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गुरुवार, 7 सितंबर 2017

कहने को बस यही है...

 ल शिक्षक दिवस था तो यह बात मैं कल भी लिख सकता था। लेकिन एक डर था कि कल की भीड़ में ये बात कहीं खो जाती। वैसे आजकल डर कई तरह के हो गए हैं, फिर वह चाहे अपनी बात कहने का डर हो, या सोशल मीडिया पर ट्रोल किये जाने का या सरकार से सवाल पूछने का। खैर इन सभी के बारे में फिर कभी बात की जा सकती है क्योंकि ये बात मैं आज करना ही नहीं चाहता... 

 बचपन में अक्सर हम अपने शिक्षकों से ही या आस-पास के लोगों से या बड़ों से ये सुना करते थे कि एक शिक्षक के जीवन का सबसे अच्छा पल क्या होता है...? जवाब होता था कि जब किसी शिक्षक का पढ़ाया कोई विद्यार्थी बहुत सालों बाद उससे मिलता है और अपने जीवन में बहुत सफल होने के बावजूद शिक्षक के पैर छू लेता है तो शिक्षक का सीना गर्व से फूल जाता है। 

 हमारी फ़िल्में भी शिक्षक जीवन के इस पहलू को दिखाती रही हैं। हाल के वर्षों में आयी "दो दूनी चार" और "चॉक एंड डस्टर" नाम की दो फ़िल्में मुझे याद हैं जिनमें यही बात दिखाई गयी है। लेकिन मेरा मानना है कि यह इस बात का केवल एक पहलू है।

 यदि कोई छात्र सफल होकर अपने शिक्षक का सम्मान करता है तो यह उस शिक्षक की निश्चित सफलता है। लेकिन उसके उन्हीं छात्रों में से कोई समाज का विनाशक हो जाता है तो क्या उसके पैर छूने से भी उस शिक्षक का सीना गर्व से फूल जाता होगा...?

 मेरा मानना है कि ये उस शिक्षक की असफलता तो है लेकिन उससे भी बड़ी ये उस छात्र की असफलता है कि वह अपने शिक्षक के लिए सम्मान का कारण नहीं है। यहीं पर एक छात्र की सफलता का प्रश्न भी खड़ा हो जाता है। 

 हमारे समाज की विडंबना भी यही है कि हम एक पक्ष से सारी जिम्मेदारियां निभाने को कहते हैं लेकिन हमारी दूसरे पक्ष के प्रति क्या जिम्मेदारी है, इस सवाल पर चूं तक नहीं करते। महिला-पुरुष संबंधों के दायरे में आप इस बात को देखेंगे तो ज्यादा बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। तो यहाँ प्रश्न एक शिक्षक के प्रति विद्यार्थी की सफलता का है। इस छोटे से वाकये से समझाना चाहता हूँ... 
 "पिछले साल मैं अपने कॉलेज के पुरातन छात्र सम्मलेन में गया था। करीब 7-8 साल बाद कॉलेज जाना हुआ। तो अपने पुराने दोस्तों, शिक्षकों से मिलकर खुश था। सब यादों को ताज़ा कर रहे थे कि कौन क्या किया करता था ? कौन पढ़ाई में अव्वल था तो कौन किसी और काम में ?
इसी दौरान मेरे हिंदी के शिक्षक भास्कर रोशन वहां आये और वर्तमान वर्ष के छात्रों से मेरा परिचय कराने लगे।
भास्कर सर ने मुझे सिर्फ कॉलेज के फर्स्ट ईयर में हिंदी पढ़ाई थी। वो भी मेरा सिर्फ क्वालीफाइंग पेपर था। लेकिन उन्होंने जब मेरा परिचय कराया तो मेरे पास प्रतिक्रिया देने के लिए शब्द नहीं थे क्योंकि मुझे अंदाज़ा नहीं था कि उन्होंने मुझे इस तरह से याद रखा होगा। 
उनके शब्द थे, " ये मेरे उन छात्रों में से एक है जिसे मैंने शायद अपने जीवन में आज तक सबसे ज्यादा अंक दिए हैं। जबकि ये मुझसे सिर्फ क्वालीफाइंग पेपर ही पढ़ा करता था।"
 उस समय मुझे लगा कि ये शायद एक छात्र के तौर पर मेरी आंशिक ही सही लेकिन एक सफलता तो है।

 मुझे अहसास हुआ कि वाकई इस बात में कितनी गहराई है कि आप अपने शिक्षक को कैसे याद रखते हैं उससे बड़ी बात है कि वो आपको एक सफल छात्र के रूप में यद् रखता है जो समज को गढ़ रहा है या एक ऐसे छात्र के रूप में याद करता है जो समाज का विनाशक बन चुका है। 

 मेरा मानना है कि शिक्षक अपनी हिस्से का काम उसी दिन पूरा कर देता है जब वह अपने छात्र को डर से लड़ने की शक्ति दे देता है। उसके बाद जिम्मेदारी छात्र की होती है कि वह उस शक्ति का इस्तेमाल अपने शिक्षक का सीना गर्व से फुलाने में इस्तेमाल करना चाहता है या उसके मस्तक को शर्मसार कर झुकाने में...
भास्करोदय...
 वैसे भास्कर सर की दो बातें मुझे हमेशा याद रहती हैं-

"लिखते समय शब्दों का इस्तेमाल बहुत कंजूसी से करना चाहिए।"
"गुस्से को दबाना चाहिए ,ना कि सवालों को। "

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

सफर, जीवन के एक दशक बीतने का

अब मैं ऐसा नहीं दिखता... 

 ज जब मैं यह लिख रहा हूँ तो दिल्ली आये हुए 10 साल का वक़्त बीत चुका है। इस दौरान किशोर से जवां होने का सफ़र इसी दिल्ली में पूरा किया है। हालाँकि अभी भी मैं बच्चा बना रहना पसंद करता हूँ और इसलिए कभी-कभी बच्चों की तरह हरकतें करता हूँ लेकिन मैं उसे गलत नहीं मानता। मुझे लगता है कि मेरा यही बचपना मुझे इस हीन-भावना से भरी दुनिया में थोड़ा अलहदा बनाता है क्योंकि अपनी भावुकता को मैंने मरने नहीं दिया है, हाँ लेकिन उसे छिपाना मैंने सीख लिया है।

 जब इस 10 साल के सफर को पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लगता है कुछ भी तो नहीं बदला लेकिन बहुत कुछ बदला है। बहुत से अनुभव अच्छे-बुरे दोनों तरह के रहे, रिश्तेदारों, दोस्तों, बॉस, सहकर्मी  के रूप में कई तरह की पूँजी जमा की लेकिन आज ख़ुशी के मौके पर बात सिर्फ अच्छी यादों की क्योंकि बुरी यादों की दास्ताँ लम्बी होती है।

 इस 10 साल में सबसे बड़ा बदलाव मेरे छोटे भाई का मुझसे कई साल बड़ा हो जाना है क्योंकि उसने घर की जिम्मेदारियां संभाल ली हैं। घर पर बड़ी से बड़ी घटना के बारे में मुझे तब पता चलता है जब वो निबट जाती हैं। उसके भीतर त्याग की जो भावना मैंने बचपन से देखी वो अब एक अलग पायदान को पार कर चुकी है और शायद मैं अब तक उसका अल्पांश ही अपना पाया हूँ, हाँ लेकिन यह यात्रा अभी जारी है।

 हम दोनों के बीच भाई-भाई वाला स्वार्थ तो पहले भी नहीं था और अब वह ज़रा भी नहीं बचा क्योंकि बचपन में ही हम इतना झगड़ा सुलझा चुके हैं कि अब आपस में लड़ने के लिए भी वक़्त नहीं है हमारे पास। हुआ बस यह है कि वो मेरा बड़ा भाई बन गया है और मैं उसका छोटा।

 दिल्ली आने के बाद कई रिश्तेदारों, दोस्तों की मदद मिली जिसमें पार्थ जैसा दोस्त भी मिला। कॉलेज में एक वही था जिसने इस बात पर गर्व करना सिखाया कि भाषा का सवाल महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि आपकी काबिलियत मायने रखती है।

 हमारे बीच दोस्तों की तरह कई झगडे हुए, सुलह हुई लेकिन बस स्वार्थ कभी नहीं आया। हालाँकि एक झगड़ा है जो मेरे मन में अटका रह जाता है लेकिन हम दोनों को ही ये मालूम है कि वो हमारी बढ़ने की उम्र थी। किशोर से जवां होने की उम्र। हम दोनों अब ज्यादा मिल नहीं पाते, ज्यादा बात भी नहीं करते। लेकिन उसकी एक बात है जो मुझे याद रहती है ,वो तब जैसा था आज भी वैसा ही है। अपने जीवन में आज तक मैंने उससे ज्यादा जमीन से जुड़ा व्यक्ति नहीं देखा। शायद मैं भी कभी फिसल गया हूँ लेकिन वो नहीं फिसला।

 अभी मुझे उसके सफल होने है इंतज़ार है और अब मैं उसे लेकर थोड़ा प्रोटेक्टिव भी रहता हूँ लेकिन मुझे सच मैं नहीं पता कि उसकी सफलता की खबर मिलने पर मैं रोऊँगा या खुश होऊंगा क्योंकि बहुत ज्यादा खुश होना भी रुला ही देता है।

 रिश्तेदारों में रिंकू मामा जैसा गाइड और राजू मामा जैसा लोकल गार्जियन यहीं दिल्ली में मिला। नीरू मामी, रितु मामी और प्रीति मौसी से मैं दोस्त की तरह कुछ भी बात कर सकता हूँ। शुभम और उत्सव की वजह से दस साल में छोटे भाई की याद कम आई। जिगीषा मेरे सामने पैदा हुई और स्कूल में पहुँच गयी और वैशाली-मयंक स्कूल से कॉलेज में इन्हीं 10 साल में आये।

 ग्रेजुएशन के बाद जब आगे बढ़े तो प्रमोद जैसा दोस्त मिला। एक ऐसा दोस्त जो सुपरमैन की तरह गुमनाम रहता है लेकिन आप एक बार मदद के लिए बुलाओ तो चला आएगा। एक और अजीब सा दोस्त मिला राहुल जो बिलकुल ही अलहदा मेरे जैसा, जो मेरी ही तरह बचपना करता और कभी-कभी बड़े भाई की तरह रास्ता भी दिखाता।

 इन 10 सालों में जो एक और बात बदली वो मुझमें और मेरे शहर की सोच में आया एक सकारात्मक बदलाव है। इस वजह से स्कूल के समय कुछ दोस्त बिछड़ गए, कुछ दूर हो गए और कुछ साथ रह गए।

 कहते हैं कि जिन लोगों के स्कूल के दोस्त जीवनभर उनके साथ होते हैं वो बहुत भाग्यशाली होते हैं तो मैं वैसा ही सौभाग्यवान हूँ जिसके पास दिल्ली में 10 के दौरान स्कूल के अच्छे दोस्त रहे और वो और ज्यादा घनिष्ठ हो गए।

 कहानी शुरू होती है अनुज और विवेक से और फिर तीनों सौरभ के साथ होते हुए कृष्ण मोहन, सजल एवं अमितेष पर ख़त्म होती है। इनके साथ होने की वजह यह नहीं है कि इनकी सोच मेरे जैसी है या इनकी और मेरे शहर की सोच में जो बदलाव आया है ये भी उसी तरह बदल गए हैं। बल्कि इनके साथ होने की वजह बस इतनी है कि यह मेरे सोच के बदलाव को अपना पाए हैं।

 इसी 10 साल के दौरान नौकरी भी शुरू हुई और नए लोगों से मिलने का हुनर भी सीखा।

 हिंदुस्तान में काम करने के दौरान सबसे पहले सीनियर के तौर पर पूनम ने मुझे काम में ईमानदारी और वक़्त की अहमियत समझाई और गोविंद सिंह सर ने अवसरों को नहीं गंवाने की सलाह के साथ जीना सिखाया। बाद में जब नव भारत टाइम्स पहुंचा तो शिल्पा जैसी एक अच्छी सहकर्मी और दोस्त मिली। अनु हम दोनों की शायद अब तक की सबसे बेहतरीन बॉस रही है। हाँ हम दोनों जब साथ काम करते थे तो उसकी बुराई करते थे लेकिन हम हीरों को तराशने वाली जौहरी वही थी।

 इसके बाद नौकरी बदल गयी और अर्पणा मिली जो सच में बड़ी बहन ही है। वो मुझे मारती है तो दुलारती भी है। उसकी बुराई कोई करता है तो मेरे अंदर का हुमायूं जाग जाता है। हालांकि अपनी लड़ाई लड़ने में वो झाँसी की रानी से कम नहीं है, इसलिए मुझे किसी तरह के लाव-लश्कर की अब तक जरूरत नहीं पड़ी है। हम दोनों को जो बात कॉमन बनाती है वो ये कि हम दोनों जानते हैं कि हम परफेक्ट नहीं है क्योंकि वो कोई नहीं हो सकता और हम दुनिया के सामने परफेक्ट होने का ढोंग भी नहीं करते।

 इस नई नौकरी के दौरान मनीष, प्रणव जैसे दोस्त भी मिले जिनके साथ अलग-अलग तरह का कॉम्बिनेशन है। अंकित, नोमान, भास्कर और कृतिका भी अच्छे दोस्तों में हैं।

 परवाह करने वाले वैभव और अनवर भाई भी हैं। इनमें भी वैभव भाई के साथ बिल्कुल बड़े भाई जैसा रिश्ता है तभी तो मैं कई बार बहुत उलूल-जलूल हरकतें करता हूँ लेकिन वो कभी बुरा नहीं मानते। बिल्कुल बड़े भाई की तरह समझाते हैं। मैं भी क्या करूँ घर पे ठहरा मैं बड़ा, तो हमेशा आठ-आठ कजिन्स पे हुकुम चलाने की आदत सी बन गई है ऐसे में अभी छोटों वाली नम्रता सीख रहा हूँ क्योंकि ज़िंदगी सीखते रहने का ही तो नाम है।

 एक और सीनियर हैं जो बिलकुल माँ की तरह ख्याल रखती हैं। साथ ही जलीस सर भी इसी दफ्तर में मिले जिनके साथ का अनुभव पहले भी साझा कर चुका हूँ।

 तो अब जब मैं 10 साल की इस यात्रा पर नज़र डालता हूँ तो पाता हूँ कि ये सारी पूँजी मैंने यहीं तो जमा की है जिसमें रिश्ते हैं, दोस्ती है और इतने सारे अच्छे अनुभव हैं। हालाँकि मुझे पता है कि यह स्थायी नहीं हो सकता है लेकिन फिर भी जब तक मेरी संपत्ति यही है और जब नहीं रहेगी तो भी कोई मलाल नहीं होगा क्योंकि इसमें कोई स्वार्थ नहीं है और जहाँ स्वार्थ नहीं होता वहां अपेक्षा भी नहीं होती किसी तरह के बंधन की...

 तो यह रहा सफर तब से अब तक का, जीवन के एक दशक बीतने का।

अब ऐसा दिखता हूँ...

बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

कितना कुछ है गोलगप्पों के पास...

 मेरे हिसाब से गोलगप्पों को भारतीय खानपान में सबसे ऊपर रखना चाहिए क्योंकि स्वाद की पूरी की पूरी संस्कृति का समागम है इनमें। आप जहाँ भी जाएं गोलगप्पों का स्वाद उसी देस के रूप रंग में ढल जाता है। तभी तो "क़्वीन" फिल्म में भी जब कंगना रनौत को भारतीय खाने से रूबरू कराने की चुनौती मिलती है तो वो पूरे जी-जान से गोलगप्पे ही बनाती हैं।

 गोलगप्पे इन्हें दिल्ली की भाषा में कहा जाता है, लेकिन भारत में इसे अलग-अलग जगहों पर गुपचुप, पानी के बताशे, पानी की टिकिया और फुचकु जैसे न जाने कितने नामों से जाना जाता है। कुछ लोग इसे खाते हैं तो कुछ इसे पीते हैं।

 वैसे ये होती आटे और सूजी से बनी पूरियां ही, बस इनका मिज़ाज़ थोड़ा कड़क होता है। पूरियां तो नरम पड़ जाती हैं लेकिन ये खट्टा या मीठा पानी भरने के बाद भी करकरी ही बनी रहती हैं। 

हज़रतगंज के अजय भाई
 मेरा ये निजी मत है कि किसी उत्तर भारतीय शहर के स्वाद का अंदाज़ वहां के गोलगप्पों से ही समझ आ जाता है। अभी हाल ही में मैं जब खजुराहो गया तो मैंने सबसे पहले गोलगप्पे ही खाये। वहां इनमें आम स्वाद भी नहीं था तो शहर में क्या ख़ाक अच्छा मिलने वाला था खाने को? हुआ भी यही वहां कुछ भी ऐसा नहीं मिला खाने को जो उस शहर की रंगत का एहसास कराए।

 यूँ तो मैंने कई शहरों के गोलगप्पे खाये हैं लेकिन लखनऊ के हज़रतगंज के गोलगप्पों का जो नवाबी अंदाज़ है वो अपने आप में स्मृति में रह जाने वाला है। सितंबर में मैं जब लखनऊ गया तो मोती महल का स्पेशल समोसा खाने के बाद भी मेरा मन गोलगप्पे में ही अटका था क्योंकि इनका स्वाद पहले भी एक-दो बार ले चुका था। थोड़ा बाजार की तरफ बढ़ा तो साहू सिनेमा के सामने अजय भाई मिल गए, और मेरी गोलगप्पे खाने की तम्मना पूरी हो गयी।

मोती महल का स्पेशल समोसा


 लखनऊ के गोलगप्पों की खास बात उनमें भरा जाने वाला चटपटा पानी है। आम तौर पर दूसरे शहरों में गोलगप्पों के साथ खट्टा और मीठा पानी ही मिलता है लेकिन लखनऊ में आपको इसकी पांच से छह किस्में मिल जाएंगी। इसमें भी खास है इसे खिलाए जाने का क्रम। आप अपनी सुविधा के हिसाब से तीखे से शुरू कर मधुर या मधुर से तीखे स्वाद की तरफ रूबरू हो सकते हैं।

 अब ये ज़ायका इतना इंतिख़ाबीपन तो लिए होगा ही, नवाबों के शौक से जो पला है ये शहर। फिर अवध का क्षेत्र है तो "जी की रही भावना जैसे, प्रभु मूरत देखी वो वैसी"।

 लखनऊ के गोलगप्पों में जब पानी भरा जाता है तो क्रम के हिसाब से मीठा पानी बीच में ही कंही होता है। और ये अजय भाई का नहीं बल्कि सभी खोमचे वालों का तरीका है। इसकी वजह अजय भाई ने बताई नहीं लेकिन मैंने ही अंदाज़ा लगाया। मेरे हिसाब से बीच में मीठा पानी होने की वजह, हर तरह पानी के स्वाद का असल एहसास करना हो सकती है। अब अगर आप तीखे पानी से खाना शुरू करें तो आपकी जीभ की इन्द्रियां बहुत सक्रिय हो जाएँगी ऐसे में आगे जो पानी हैं उनका स्वाद कैसे आएगा ? इसलिए बीच में  मीठे पानी का गोलगप्पा खाने से जीभ को शांति मिलेगी और आगे के दूसरी तरह के पानी का ज़ायका अच्छे से उभरकर आएगा। ऐसे ही अगर दूसरी तरफ से शुरू करते हैं तो भी जीभ को वापस नए टेस्ट के मोड में लाने के लिए ही मीठे पानी का उपयोग होगा।
"गोलगप्पे से मेरे बचपन की भी एक याद जुड़ी है। मेरा ननिहाल मथुरा में है। तब छुट्टियों में नानी के घर जाने का बड़ा कौतूहल होता था। नानी के घर के पास शाम को एक गोलगप्पे वाला आता था। हम सब बच्चे उसे घेर के खड़े हो जाते थे। उसके पानी में एक अलग तरह का तीखापन होता था जो सीधा गले में लगता था। उसके पानी में टाटरी होती थी तो वो गज़ब का खट्टा होता था। पुदीना और हरी मिर्च की चटनी में काली मिर्च का हल्का सा स्वाद उस पानी को इतना अलग बना देता था कि मुझे आज भी याद है। उसके गोलगप्पों के पानी में इस काली मिर्च के प्रयोग से ही मथुरा के खाने का  आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। आज भी मथुरा के असल खाने में आपको काली मिर्च का बहुत संतुलित प्रयोग देखने को मिलेगा। 
अच्छा उस गोलगप्पे वाले की एक और खास चीज मुझे याद है। वो उसमें मटर के साथ एक तली कचरी डाला करता था। कचरी का स्वाद हल्का सा  कड़वा होता है जो खट्टे पानी के साथ मिलकर अनोखा प्रभाव छोड़ता है। खैर तब हम छोटे थे तो बहुत ज़िद के बाद कचरी वाला एक गोलगप्पा खाने को मिलता था।"
  अब मथुरा जाता हूँ तो वो गोलगप्पे वाला नहीं मिलता। लेकिन मैं हूँ चाट का शौक़ीन तो वहां की घीया मंडी और मंडी रामदास की चाट का जवाब ही नहीं है।

 मथुरा के नजदीक ही आगरा में अगर आपको गोलगप्पे और चाट का स्वाद लेना है तो बेलन गंज का बाज़ार घूम आइये। दिल खुश हो जायेगा वहां की चाट और गोलगप्पे खाकर।

 मेरे गृहनगर झाँसी में भी गोलगप्पे का एक अलग मिज़ाज़ है। वहां पर उनमें भरे जाने वाले उबले आलू अच्छे से लाल मिर्च के मसाले में लपेटे जाते हैं जिन पर कच्चा प्याज़ लगाकर फिर गोलगप्पे में खट्टा पानी भरकर खाया जाता है।

 इस कहानी का अंत करते हुए एक बात और बताता हूँ। दिल्ली को छोड़कर आप इन जगहों में से कंही भी गोलगप्पे खाइये आपको पानी में मीठी चटनी खुद से नहीं मिलेगी, उसके लिए आपको गोलगप्पे वाले से कहना पड़ेगा। वंही दिल्ली में आपको "गोलगप्पे वाले भैया" से मीठा नहीं लगाने के लिए कहना होगा।

मोती महल हज़रतगंज

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

दो रूपये का प्लेटफाॅर्म टिकट

 स दिन मैंने उसके लिए सिर्फ एक दो रूपये का प्लेटफाॅर्म टिकट ही तो खरीदा था बस, आठ साल करीब बीत चुके हैं इस घटना को। वो टिकट भी मैंने उसके लिए सिर्फ इसलिए लिया क्योंकि उसके पास खुले रूपये नहीं थे और उसे एक रिश्तेदार को गाड़ी में बिठाने जाना था। इसके अलावा हमारी कोई जान-पहचान नहीं थी तब।

 वो अपनी बुआ को छोड़ने आया था। उनकी और मेरी सीट आस-पास ही थी तो इस वजह से मेरी और जतिन की गाड़ी में ही थोड़ी बातचीत हुई। फिर जब ट्रेन चलने लगी तो वो मुझसे यह कहकर चला गया कि बुआजी को ग्वालियर उतारकर मैं उसे फोन कर दूं। मैंने ऐसा ही किया और उसके बाद बात आयी-गयी हो गई।

 उसके बाद मेरी और जतिन की एक-दो बार और बातचीत हुई। फिर एक बार वो राजौरी गार्डन में मेरी किराये की कोठी पर मिलने भी आया और उसके बाद हम अपने काम-धाम में व्यस्त हो गए। बस फेसबुक पर हमारी कभी-कभी राम-राम हो जाती थी, इससे ज्यादा मिलना-जुलना हो नहीं पाया।

 वैसे भी जतिन पुणे, कतर और भी ना जाने कहां-कहां काम के सिलसिले में गया तो मुलाकात तो वैसे भी संभव नहीं हो पायी। एक बार जतिन जब कतर से लौटकर आया तो ग्वालियर जाने से पहले उसने नयी दिल्ली स्टेशन पर मिलने के लिए बोला और मैं बस समय निकालकर पहुंच गया। उसके बाद हमारी करीब तीन साल बाद मुलाकात एक सफर में हुई जब मैं झांसी अपने घर और वो ग्वालियर अपने घर जा रहा था।

 आज मैं जब यह वृतांत लिख रहा हूं तो यह ख्याल मन में आ रहा है कि पिछले आठ सालों में हमारे बीच कुछ भी अनोखा नहीं घटा और एक सामान्य जान-पहचान का रिश्ता ही रहा। लेकिन फिर भी एक अलग तरह की घनिष्ठता है इस संबंध में, कम से कम मेरी ओर से तो है और जब मैं इसके पीछे की वजह टटोलता हूं तो मुझे लगता है कि इस दौरान शायद हमने आपस में एक-दूसरे से किसी भी तरह की कोई अपेक्षा नहीं रखी।

 आजकल के समय में संबंधों में अपेक्षाओं का बड़ा जंजाल देखने को मिलता है। दोस्ती से इतर वाले संबंधों में तो यह बड़े पैमाने पर दिखता है।

 जतिन और मेरे बीच सिर्फ सम्मान का भाव है, एक-दूसरे के व्यवहार के प्रति सम्मान। अपेक्षाएं कुछ भी नहीं, कम से कम मेरी ओर से तो बिल्कुल भी नहीं और शायद इसलिए यह मित्रता कायम है।
हमारे बीच आपस में कोई डबल स्टैंडर्ड नहीं है। एक-दूसरे को उसी रूप में स्वीकारते हैं क्योंकि वैसे भी हम मनुष्य हैं, मशीन नहीं कि एक जैसे सब हो जाएं। मेरे लिए वह वैसा ही दोस्त रहा जैसे कि मेरे कुछ और दोस्त हैं और शायद उसकी ओर से भी यही बात रही।

 शायद हम दोनों को यह भी समझ है कि किसी संबंध में प्रगाढ़ता के लिए जरूरी नहीं कि रोज बातचीत की जाए या अक्सर मुलाकात की जाए, हां लेकिन संबंधों में विश्वास बनाए रखा जाए।

 आज यह बात इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि कुछ दिन पहले किसी से संबंधों के बारे में चर्चा हो रही थी तो मैंने उसे यह उदाहरण दिया कि संबंध को निभाना होता है वह भी निष्काम भाव से और उसे अपेक्षाओं से जितना दूर रखो उतना बेहतर वह होगा। बस अपना आत्मसम्मान बनाए रखो और दूसरे को बराबरी का सम्मान देते रहो। संबंध कभी खराब नहीं होंगे।

 अब जतिन से मेरी आखिरी मुलाकात और बातचीत उसके विवाह पर हुई थी। छह माह से ज्यादा हो चुके हैं और उसके परिवार से उस दौरान मैं पहली बार मिला था। पहली बार में उन्होंने जो सम्मान और आदर दिया बस इस दोस्ती में वह काफी है।

 अब यह दो रूपये का प्लेटफाॅर्म टिकट सरकार ने भले दस रूपये का कर दिया हो लेकिन उसकी वजह से जतिन की अच्छी दोस्ती फिलहाल मेरे पास है और दुआ है कि आगे भी बनी रहेगी। बाकी देखते हैं कि अब अगली मुलाकात कब होती है।

सोमवार, 15 अगस्त 2016

पुलिस का एक रूप ये भी

 यूँ तो ये एक किस्सा भर है लेकिन हकीकत में यह उस बदलाव को दिखाता है जो व्यवस्था में आ रहा है।

अब ऐसा नहीं हो तो बेहतर है
 पिछले दिनों मैं अपने चाचा को छोड़ने नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन गया था तो एक बात ने मेरा ध्यान खींचा। रेलवे स्टेशन पर फुटओवर ब्रिज से मैंने देखा कि लोग एक लंबी लाइन लगाकर ट्रेन आने का इंतज़ार कर रहे हैं। मालूम करने पर पता चला कि यह ट्रेन के जनरल डब्बे में सवारी करने वाले यात्रियों की लाइन है जो एक-एक करके उस डब्बे में चढ़ने की तैयारी में खड़े हैं।

 जिन लोगों ने कभी भी भारतीय रेल में जनरल डब्बे से यात्रा की है तो उन्हें पता होगा कि इस डब्बे में घुसना किसी जंग जीतने से कम नहीं है और बिहार जाने वाले मेरे साथियों के लिए यह विश्वयुद्ध के समान होता है। यह हमारी व्यवस्था की खामी है कि हमारी अधिकांश आबादी हमारी योजनायों का हिस्सा नहीं और अगर है भी तो उन योजनाओं में भारतीयता की निहायत कमी है। 

 भारत में अक्सर लोग बिना किसी पूर्व योजना के यात्रा करते हैं। इसलिए रेलवे में तत्काल वाली व्यवस्था बिलकुल हिट रही है और यही वजह है कि जनरल डब्बे जन सैलाब से भरे होते हैं।

 जनरल डब्बे में चढ़ने के दौरान अक्सर भगदड़ और जेबतराशी की घटनाएं होना अपने यहाँ आम हैं। जब इससे पार पाने के पुलिस के देसी तरीके को मैंने नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर देखा तो मैं सोचा कि ये व्यवस्था का पूरी तरह भारतीयकरण है। 

 हम अक्सर पुलिस के डंडा बजाने की आदत का विरोध करते हैं, करना भी चाहिए लेकिन अगर यह जनता के भले के लिए इस्तेमाल हो रही है तो क्या बुराई है। पहले डंडे के दर पर अगर किसी अच्छी आदत का विकास किया जा सकता है तो यह बेहतर है। उस दिन मैंने स्टेशन पर देखा कि एक कांस्टेबल हाथ में डंडा लिए लोगों की लाइन लगवा रहा था जो उस ट्रेन के जनरल डब्बे में सवार होना चाहते थे। 

 मैंने कांस्टेबल प्रदीप से जब बात की तो उसने कहा कि साहब आपको तो मालूम है कि हमारे यहाँ डंडे का हुकम चलता है। आप लाख चिल्ला लें लेकिन ये जनता डंडे से चलती है। हमें तो ऊपर से आदेश आये कि ट्रेन में यात्रियों को आराम से चढ़ाना है ताकि भगदड़ वगैरह न मचे, पहले एक दो दिन लाइन लगवाने की कोशिश की जब नहीं हुआ कुछ तो फिर डंडा खटकाया और लाइन लग गयी बस।

 उसने कहा कि अब आप देखो कितने आराम से सब चढ़ रहे हैं। कोई मारामारी नहीं। अब अगर यही लोग खुद से कर लें तो हमे भी डंडा नहीं उठाना पड़े। लेकिन हमारे बिना हड़काये कोई काम ही नहीं होता। हमारी भी म्हणत की बचत हुई। जेब कटना कम हो गया, भगदड़ नहीं मचती। पहले अक्सर ट्रेन में चढ़ते वक़्त लोग डब्बे और स्टेशन के बीच फंस जाते थे लेकिन तीन महीने से जब से इस सिस्टम को अपनाया है तो बस पांच मिनट की म्हणत और बाकी का आराम। इसके दो फायदे और हुए महिलाओं और विकलांगो के डब्बे में जबरदस्ती घुसने वालों पर रोक लग गयी।

 फिर मैंने भी प्रदीप से कहा कि ये तो बहुत बढ़िया है और सोचा कि आखिर पुलिस ने इस डंडा पिलाई का काम किया किसके भले के लिए। हमारे और अपने लोगों के लिए ही न तो फिर हम पुलिस के ऐसे कामों की तारीफ क्यों नहीं करते? बुराई तो पुलिस की होती ही रहती है लेकिन उसकी तारीफ भी होनी चाहिए जब वो देसी जुगाड़ हमारे लिए इस्तेमाल करती है।

बुधवार, 22 जून 2016

आम की गुठली

 बचपन में मुझे गर्मी का बेसब्री से इंतज़ार रहता था। इसकी वजह भी साफ थी। गर्मियों की छुट्टी मिला करती थी तो नानी के घर जाया करते थे। मेरा जन्मदिन भी इसी मौसम में पड़ता है तो वो आमतौर पर नानी के घर पर ही मना करता।  उस दिन नानाजी मेरे लिए छोले जरूर बनाते क्योंकि मुझे उनके हाथ के बने छोले बड़े पसंद थे। लेकिन घर के बाकी लोगों को उनके हाथ का आमरस।
स्रोत-मेरी रसोई से...


 नानी के घर पर गर्मियों में रोजाना दूध की रबड़ी वाला आमरस बनता था जो मुझे तब पसंद नहीं था लेकिन माँ थोड़ा बहुत डांट-डपट के खिला ही देती। लेकिन जन्मदिन के दिन मैं राजा, बाकी सब प्रजा। उस दिन मेरे लिए रबड़ी अलग होती और आम अलग से काट के मुझे दिया जाता।

 मुझे आम बहुत पसंद है। गर्मियों में पहली बार मुझे आम हमेशा नानाजी के घर पहुंचने के बाद ही मिलता था, क्योंकि घर पर मुझे तब तक आम खाने को नहीं मिलते जब तक बारिश नहीं हो जाती। इसके लिए माँ-पापा दोनों से सख्त हिदायत मिली हुई थी लेकिन नानी के घर आपको बारिश हो या न हो टोकने वाला कौन था? वैसे घर पर आम खाने की मनाही इसलिए थी क्योंकि मुझे शरीर पर दाने या फुंसियां निकल आती थी। अब ये बात और है कि मुझे आज तक आम और शरीर के दानों के बीच का कनेक्शन पता नहीं चला। मैंने जानने की कोशिश भी नहीं की क्योंकि इससे यादें मिट जाने का डर लगा रहता है। 

 मैं आम का बहुत बड़ा लालची हूँ। तभी पिछले साल जब ऑफिस की एक साथी ने मुझे दोस्तों के साथ बाँटने के लिए अपने घर के आम दिए तो मैंने घर पहुँच के सबसे बढ़िया दो आम सबसे पहले अकेले ही खा लिए बाद में दोस्तों को बताया कि उनके लिए आम आएं हैं।
साभार - गूगल इमेजेस

 बचपन में भी घर पर मुझे जब तक आम खाने की मनाही होती थी तब तक मैंगो शेक मिला करता था। मैंगो शेक के लिए आम काटने के बाद हमेशा आम की गुठली बच जाती थी। मुझे आम पसंद था लेकिन आम की गुठली कतई नहीं। मैं गुठली हमेशा मैं छोटे भाई को सरका देता था और खुद छिलकों में लगे हुए आम से संतोष कर लेता।

 कई बार मुझे जब मैंगो शेक के लिए आम छीलने को कहा जाता तो मैं जानबूझकर छिलका मोटा छीलता क्योंकि बाद में वो छिलके तो मुझे मिलने थे। इसी बहाने बारिश से पहले घर में आम खाने को भी मिल जाते। खैर इस बात के लिए कई बार माँ की झिड़की भी लग जाती कि ठीक से छीलना है तो छीलो नहीं तो रसोई से नौ दो ग्यारह हो जाओ। फिर बचती आम की गुठली और वो भी मैं भाई को दे देता।

 इस साल करीब पांच-छह साल बाद ऐसा हुआ कि मैं और छोटा भाई गर्मियों के मौसम में एक साथ हैं। इसलिए आज जब मैं आमरस बना रहा था तो छिलका मैंने मोटा छीला और भाई ने मुझे पकड़ लिया। फिर वही बचपन वाली धमकी कि माँ से शिकायत करें। लेकिन अब वो डर नहीं कि माँ डांटेगी क्योंकि फ़ोन पर उसने डांटना बंद कर दिया है। फिर आज उसके बाद भाई को आम की गुठली खाने के लिए बचपन वाले जाल में फंसाना और मेरा छिलकों में लगे आम को अंजाम देना।

 लेकिन अब भाई सयाना हो गया तो आम की गुठली के जाल में फंसता नहीं और आजकल आम में भी इतना गूदा या रस कहाँ कि उसे छिलकों या आम की गुठली से चुराया जाये।

सोमवार, 20 जून 2016

राजाराम के साथ चाय पर चर्चा

स्रोत - गूगल इमेजेस

 अरे नहीं-नहीं, मैं स्वर्ग में भगवान राम से भेंट करके नहीं लौटा हूँ। वैसे भी मैं उधर जा ही नहीं सकता क्योंकि उसका लाइसेंस तो "भक्तों" के पास है। मैं तो हाल में ग्वालियर की यात्रा पर गया था तो वहां रास्ते में मेरी चप्पल टूट गयी। मैं उसे सुधरवाने जिस "चप्पलों के डॉक्टर" के पास गया था, बस उनका नाम राजाराम है।

 अब वहां बाजार में वो अकेले थे और काम का ढेर भरा, बस फिर क्या था हमने पकड़े चाय के तीन गिलास और उनमें से एक थमा दिया राजाराम जी को और वंही टेक लगा के बैठ गए, तो बस यह ब्यौरा है उनके साथ हुई चाय पर चर्चा का...

"अरे साब इस चाय की क्या जरुरत थी, आप क्यों ले आये, पहले बोला होता तो हम ही मंगा देते।"
"अरे नहीं चाचा, मेरा मन था पीने का तो ले आये, आप बस चाय पियो और अच्छे से सिलाई करना।"
"आप निश्चिन्त रहें, एकदम मजबूत काम करके देंगे, 25 साल से यही काम तो कर रहे हैं।"
"अरे फिर तो आपका तजुर्बा मेरी उम्र से ज्यादा है, तो चाचा आप यंही ग्वालियर के हैं या बाहर से आकर बसे।"
"नहीं साहब, मैं तो यंही का हूँ, बस बाहर कुछ दिन काम करने गया था लेकिन मन नहीं लगा सो वापस यंही आ गया।"

 अब तक राजाराम जी अपनी चाय खत्म करने के करीब पहुंचे थे कि तभी दो और ग्राहक अपनी चप्पल उन्हें दे गए। उन्हें बहुत अर्जेंट चाहिए थी तो चाचा ने तसल्ली भरी निगाहों से मेरी तरफ देखा, मैं तो आया ही समय काटने था तो मैंने भी सहमति दी कि चाचा निपटा लीजिए। चाचा ने चप्पल में कील ठोकी और ग्राहकों से पैसे लेकर उन्हें चलता किया। तब तक मैं भी फ़ोन पर किसी से बात निपटा रहा था फिर जब मैं निपट चुका तो देखा चाचा के हाथ में सफ़ेद धागा था जिसे वो मोम से रगड़ रहे थे।

"अरे निपट गए।"
"हाँ दो कील ही ठोकना था, अब आपका काम ही निपटाएंगे।"
"चलो ठीक है। अच्छा एक बात बताओ कि मैं यहाँ से किला (ग्वालियर का) जाना चाहता हूँ तो कैसे जाऊं।"
"किले के लिए तो सबसे नजदीक उरवाई गए पड़ेगा, यंही से टम्पू मिल जायेगा तो उस से चले जाना।"
"और चाचा यहाँ चौहान साब कैसा काम कर रहे।"
"साब काम तो सबई करते हैं लेकिन अपने को फायदा हो तब कछु समझें।"
"मतलब"
"अरे साब देखो अपन को काम से का लेना देना, अपन को तो रोटी सस्ती चाहिए बस।"
"लेकिन चाचा अब तो सब बढ़िया है, ऐसा ही सुना है।"
"सब सुना ही है ना, हो रहा हो तो बताओ। अब आप तो दिल्ली से आये हैं आप ही बताओ कि वहां वो केजरीवाल कौनो काम कर रहा।"
"अरे चाचा उसे काम करने कहाँ दे रहे लोग।"
"साब ये तो कोरी कोरी बात है। असल बात बताओ।"
"असल में तो मैं बता ही नहीं सकता क्योंकि मेरा वास्ता उससे या उसके काम से पड़ा नहीं।"
"ऐसा ही यहाँ है साब चौहान साब के काम से हमारा वास्ता पड़ा ही नहीं।"

 इसके बाद मेरे पास कोई जवाब नहीं था और न ही बहस बढ़ाने की कोई वजह क्योंकि चाचा ने मुझे एक ही पंक्ति में चुप करा दिया था। फिर मैंने सोचा कि क्यों न मोदी जी (नरेंद्र) का जिक्र छेड़ा जाये, शायद चाचा उनके बारे में कुछ कहें।

"अच्छा चाचा एक बात बताओ ये मोदी जी कछु करेंगे या नहीं।"
"देखो भाईसाब उनने काम तो बहुत सारे करने की कही थी, लेकिन अभी तो मन की बात ही सुनी है।"
"ये तो मजाक वाली बात हो गयी, असल में आपको क्या लगता है, मोदी जी करेंगे कुछ।"
"अरे साब हम भी अख़बार सुनते हैं, टीवी देखते हैं। आपई बताओ गरीब की सुनै है कौनो।"
"वो तो ठीक है चाचा लेकिन मोदी जी तो बहुत काम करते हैं।"
"देखो साब हम बैठते पटरी पर, और दिन के चार आने कम लेते कि बस रोटी कहकर डरे रहें। अब कौनो सरकार आये, मोदी आये या केजरीवाल आये हमाये लाने सब वैसा का वैसा ही है।"

 इसके बाद चाचा से दो चार बातें और हुई। तब तक मेरी चप्पल भी सिल गयी। उनके साथ इस चाय पर चर्चा का कोई निष्कर्ष तो नहीं निकला लेकिन फिर मेरे दिमाग में एक बात जरूर रह गयी।

 चुनाव, नेता, पार्टी और उनके वादों को लेकर ये गरीब जनता जब इतनी निश्चिन्त है तो वो वोट किस आधार पर देती है और क्यों देती है ? जब वो जानते हैं कि सरकार और पार्टियां कुछ नहीं करेंगी तो वो सरकार में उठापटक क्यों कर देते हैं ? क्यों वो हमेशा इस आस में रहते हैं कि उन्हें कुछ मिलेगा ? क्या यही हमारा संविधान उन्हें अब तक दे पाया है...एक अनोखी सी तसल्ली जिसमें बेचैनी तो है लेकिन छटपटाहट नहीं और उसे दूर करने का जुझारूपन भी नहीं। मैं अभी इन प्रश्नों के जवाब तलाश रहा हूँ, अगर आपको किसी भी एक प्रश्न का जवाब मिले तो बताना... 

शुक्रवार, 10 जून 2016

छोटू with छोटू दो अंतिम

पुनः जारी छोटू with छोटू ...
जलीस सर के साथ हमारी यादों की
" जमापूंजी "

 हाँ "पुनः जारी" इसलिए लिखा है क्योंकि "भाषा" में काम करने के दौरान मेरा इससे कई बार वास्ता पड़ा है और "दो अंतिम" इसलिए क्योंकि इस कहानी का अंतिम भाग इसी पोस्ट में समाप्त हो रहा है...

 ऊपर बताये दोनों शब्द युग्म भाषा में हमारे काम अभिन्न हिस्सा हैं। इस पोस्ट का संदर्भ भी ऐसा ही है। यहाँ मैं अपनी पिछली पोस्ट के आगे की कहानी बयां कर रहा हूँ, इसलिए पुनः जारी...

 पिछली पोस्ट मेरे भाषा में आकर छोटू बनने की बात करती है वहीं इस पोस्ट में मेरे भाषा में बड़े होने की कहानी है। भाषा में मेरे इन दोनों परिवर्तनों के साक्षी रहे हैं जलीस सर...

 भाषा में काम के दौरान डेस्क, रिपोर्टिंग इत्यादि कई सारे काम करने का अवसर मिलता है। यहाँ मुझे रिपोर्टिंग पर जाने का जब भी मौका मिलता है तो मैं ख़ुशी से जाता हूँ क्योंकि मुझे रिपोर्टिंग हमेशा से पसंद रही है। जब हम रिपोर्टिंग करके वापस लौटते तो हमें जलीस सर की कड़ी परीक्षा से गुजरना होता, हाँ यह बात अलग है कि उस दौरान कई बार बहुत से रोचक किस्से हमें सुनने को मिल जाते।

 खैर यहाँ बात भाषा में मेरे पहले साल की है, उस साल मुझे यूँ तो राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की रिपोर्टिंग करने का अवसर मिला था लेकिन जब जनवरी में गणतंत्र दिवस परेड की रिपोटिंग में जाने का मौका मिला तो ख़ुशी से फूला न समाया...
"उस दिन सुबह-सुबह छः बजे घर से निकले और परेड स्थल पहुंचे। सैम अंकल ( बराक ओबामा जी ) के आने की वजह से सुरक्षा चौकस थी और बारिश भी हो रही थी। खैर किसी तरह उस दिन हम रिपोर्टिंग करके ऑफिस पहुंचे। गनीमत है कि उस दिन मुझे एक अलग स्टोरी मिल गयी थी और वो यह कि गणतंत्र दिवस पर जिन तोपों से सलामी दी जाती है वो अंग्रेजों के ज़माने की हैं। जब ये स्टोरी लेकर मैं ऑफिस पहुंचा तो जलीस सर खुश हुए और उन्होंने पूरे मन से उसका सम्पादन किया। एक बात उन्होंने मुझसे कही कि मैं बिल्कुल पीटीआई में ही पहले काम कर चुके उमेश उपाध्याय जी की तरह हूँ। उस दिन मुझे ये बात अच्छी लगी लेकिन असल में मैं भाषा में बड़ा हुआ इस घटना के ठीक एक साल बाद।
एक साल बाद फिर से 26 जनवरी की रिपोर्टिंग करने जाना था। इस बार किसी गड़बड़ी की वजह से प्रेस विंग में बैठने की जगह नहीं मिल पायी थी तो हम आम जनता के बीच बैठकर रिपोटिंग कर रहे थे। (हम इसलिए क्योंकि इस बार मेरे साथ मेरा ही एक साथी अंकित भी रिपोर्टिंग करने गया था। ) तो इसकी रिपोर्टिंग से पहले मैं जलीस सर से बस पूछने गया कि क्या-क्या रिपोर्टिंग करनी है, तो उन्होंने कहा कि पिछले साल जैसा ही कुछ अलग लाने की कोशिश करना। इसी के साथ उन्होंने एक बात कही, "इस बार तुम वरिष्ठ रिपोर्टर की तरह रिपोर्टिंग करने जा रहे हो, तो बढ़िया से करना।" 
बस यही वो समय था जब मुझे लगा कि अब मैं छोटू नहीं रहा बल्कि बड़ा हो गया हूँ। 
किस्मत मेरे साथ थी कि इस बार भी मुझे और मेरे साथी को एक स्टोरी मिल गयी। स्टोरी ये थी कि गणतंत्र दिवस की परेड के दौरान जो लोग लोगों के चेहरे पर तिरंगा बना रहे होते हैं वो दरअसल में पानीपत के युवाओं का एक समूह है जो बस ऐसे अवसरों पर ही दिल्ली आता है और लोगों के चेहरे पर तिरंगा बनाकर अपना काम चलाता है। जलीस सर इस खबर पर खुश थे और हम इसलिए खुश थे क्योंकि सुबह के भूखे हम दोनों को जलीस सर के हाथ की बनी खीर और उनके घर के आलू पराठे खाने को मिले थे।और फिर इस बार तो खीर खाने के साथ मैं बड़ा भी हो गया था तो आनंद दुगना था।"
 इस तरह वो दिन था जब जलीस सर ने मुझे भाषा का छोटू नहीं रहने दिया। मैं उस दिन भाषा में बड़ा हो गया। हालाँकि मैं छोटू तो अभी भी हूँ लेकिन जलीस सर रिटायरमेंट से पहले मुझे भाषा में जिस तरह से बड़ा बना गए उसकी यादें तो जेहन में हैं ही।

 उनके रिटायरमेंट वाले दिन हम सभी भाषा में उनके साथ बितायी यादों का एक छोटा सा तोहफा ही उन्हें दे पाये। उस जमापूँजी की फोटो ऊपर चस्पा की है और साथ ही जलीस सर का ये एक फोटो भी साझा कर रहा हूँ जिसमें उनका सबसे पसंदीदा पौधा ट्यूब रोज है। हाँ धन्यवाद अंकित को भी देना होगा क्योंकि अगर रिटायरमेंट वाले दिन वह नहीं होता तो शायद हम अपनी यादों की ये जमापूंजी जलीस सर को कभी नहीं दे पाते...
जलीस सर अपने सबसे पसंदीदा ट्यूब रोज पौधे के साथ ...

रविवार, 29 मई 2016

छोटू with छोटू

छोटू with छोटू

 जी हाँ, इस तस्वीर को किसी साथी ने यही कैप्शन दिया तो मैंने शीर्षक में यही लिख दिया क्योंकि इससे बेहतर वैसे भी कुछ नहीं हो सकता। इस फोटो में मेरे साथ जलीस सर हैं जो हाल ही में भाषा से रिटायर हुए हैं और अपनी जिंदगी की नयी इनिंग शुरू कर चुके हैं। उनकी रिटायरमेंट पार्टी के दौरान ही हमें पता चला कि उनका एक नाम छोटू भी है वरना हम सभी के लिए तो वो जलीस सर ही हैं। मेरे साथ छोटू नाम यहाँ भाषा में आकर ही जुड़ा, तो आज यहाँ बात मेरा नाम छोटू पड़ने की क्योंकि इसमें जलीस सर का योगदान है और फिर अगली कड़ी में बात मेरे बड़े होने की और उसमें भी उनका ही योगदान है।

 दरअसल घर में मुझे छोटू होने का सुख प्राप्त नहीं है क्योंकि मुझसे छोटा मेरा एक भाई है और घर में सब उसे छोटू बुलाते हैं, वैसे भी एक ही घर में दो लोगों के एक ही नाम होना थोड़ा अजीब होता और फिर इस किस्से के शीर्षक की तरह हम भी घर में छोटू-1 और छोटू-2 होते। 

 हम एक ही घर में दो चाचाओं के बच्चों के साथ रहते हैं। मैं उनमें सबसे बड़ा हूँ तो मेरा उनके बीच हकीकत में कोई नाम ही नहीं हैं, उन सब के लिए मैं भैया हूँ और इस वजह से कभी-कभी मेरी माँ भी मुझे भैया बुलाती है। मोहल्ले-पड़ोस, रिश्तेदार कंही भी मैं छोटू नहीं हूँ क्योंकि वो छोटे भाई का हक़ है लेकिन हाँ यहाँ मेरे ऑफिस "भाषा" में मैं ही छोटू हूँ।

 हालाँकि जब ऑफिस में मुझे ये नाम मिला तो शुरुआत में मुझे कोई समस्या नहीं थी क्योंकि जब कोई उम्र में बड़ा व्यक्ति आपको इस नाम से बुलाए तो उसमें उनका प्यार झलकता है लेकिन जब आपके हम उम्र भी आपको छोटू कहने लगें तो मानव मनोविज्ञान के हिसाब से कोई भी झेंप जायेगा।

 इसी तरह मैंने भी कई जंग लड़ी इस नाम से छुटकारा पाने के लिए फिर अंततः मेरी तमाम असफल कोशिशों के बाद मैंने इस नाम को अपना ही लिया। मैंने मान लिया कि मुझसे छोटों के आने के बावजूद भाषा का छोटू मैं ही रहूँगा, और अब तो मैं इस पर अपना अधिकार मानता हूँ, कोई लेकर तो दिखाए मुझसे ये नाम अब। 

 तो किस्सा शुरू करते हैं कि भाषा में मुझे ये नाम मिला कहाँ से, इससे जुड़ी एक घटना का जिक्र करना चाहूंगा जिसके गवाह जलीस सर रहे हैं।
"भाषा में आये बहुत दिन नहीं बीते थे तब, हम ( यह यूपी-बिहार वाला हम नहीं हैं यहाँ इसका मतलब मेरे कुछ साथियों से है ) पहली बार संसद गए थे तब, सदन की कार्यवाही देखने का पहला अनुभव होने के चलते मैं कौतूहल से भरा हुआ था। 
कार्यवाही देख के निकले तो फोटो वगैरह खिंचवाने की सारी मुरादों को पूरा कर हम संसद में भाषा का कामकाज देखने गए, अरे भई नया-नया ही तो आया था तो जानना चाहता था कि एजेंसी में आखिर कैसे काम होता है। कई अच्छी यादों के साथ हम वहां भाषा के ऑफिस से बाहर निकले और चाय बोर्ड की चाय लेकर वहीं संसद के गलियारे में खड़े हो गए।
उस दौरान जलीस सर ने भाषा के शुरुआती संपादकों में से एक रहे एक सज्जन से हमारा परिचय कराया। (सज्जन इसलिए लिखा क्योंकि मुझे उनका नाम याद नहीं रहा, वैसे भी मेरी कमजोरी है कि एक मुलाक़ात में मुझे नाम याद नहीं होता, हाँ चेहरा जरूर याद रह जाता है। ) 
हाँ, तो उन सज्जन ने मुझे देखते ही कहा कि क्या भाषा में अब आठवीं पास छोटे-छोटे बच्चों को भी काम पर रखने लगे हैं। बस इसके बाद सब ठहाका मार कर हँस पड़े, मैं भी हँसा क्योंकि मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था।"
 अगले दिन इस घटना का ज़िक्र ऑफिस में छिड़ा और जो लोग मेरे साथ गए थे उन्होंने मेरी काफी टांग खिंचाई की। दो दिन बाद सप्ताहांत में 12 बजे करीब जब जलीस सर दफ्तर आये तो उन्होंने इस घटना का ज़िक्र शब्दशः और लोगों के साथ किया और फिर उसके बाद जब सीनियर्स ने दिल खोलकर जो हँसा वो मुझे अच्छा लगा क्योंकि अगर वो उस बात पर हँसे नहीं होते तो शायद आज यहाँ लिखने को कुछ नहीं होता।

 तो तब से मैं भाषा का छोटू बना और तभी से भाषा के इस छोटू यानी कि मुझे अब इंतज़ार करता है कि कोई तो मेरी टांग खींचे और इसके लिए कई बार उड़ता हुआ तीर पकड़ने में भी मुझे गुरेज नहीं हैं। इसके पीछे भी वजह है कि अगर वो तीर दूसरी दिशा में चला गया तो मेरे पास तो इन किस्से-कहानियों का टोटा पड़ जायेगा...जो मैं होने नहीं देना चाहता।

मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

परिवर्तन और अनुभव...

वर्ष 2007 में बनाया था मैंने इसे...
 हते हैं कि धरती पर परिवर्तन शाश्वत है। यही वो एकमात्र ऐसी बात है जो सदा होती रहती है निरन्तर, हर क्षण। हम एक परिवर्तन के दौर से लगातार गुजरते रहते हैं लेकिन हम अक्सर इन परिवर्तनों पर गौर नहीं करते और ये हमें महसूस ही नहीं होते। सम्भवतया इसी से दिनचर्या का निर्माण होता है जिससे हम अपना काम नियमित तौर पर कर सकें और यह प्रति क्षण होने वाले परिवर्तन हमारे लक्ष्य के लिए बाधक नहीं बनें। इसलिए हम बस लगातार चलते रहते हैं।

 राजकपूर के गाने 'मेरा जूता है जापानी...' की एक पंक्ति है 'चलना जीवन की कहानी, रुकना मौत की निशानी',  मेरे हिसाब ये दो वाक्य परिवर्तन की इस पूरी परिभाषा को समझाने में सक्षम हैं क्योंकि मनुष्य के जीवन में मौत के बाद ही परिवर्तन का अंत होता है उसके बाद परलौकिक दुनिया की जितनी भी कहानियां है वह सभी काल्पनिक हैं और उनकी सत्यता का कोई प्रमाण नहीं है। मृत्यु शाश्वत है....लेकिन उसके बाद की बातें कोरी कपोल कल्पना।

 खैर परिवर्तन से जुड़ी इतनी बातें करने के पीछे की मंशा 'ज्ञान' देना नहीं थी और ना ही किसी बहुत बड़े खुलासे से पहले की भूमिका बांधना। दरअसल यह बस उन कुछ अनुभवों को साझा करने का प्रयास है जो बीते दो साल के दौरान दफ्तर में काम के दौरान हुए और अब जब उस कड़ी में कुछ नया जुड़ने जा रहा है तो सोचा क्यों न एक बार यादों के पन्ने पलट लिए जाएँ।

 शुरू से मेरा रुझान राजनीतिक ख़बरों की तरफ कम रहता है इसके पीछे वजह ये है कि अब राजनीतिक पत्रकारिता एक तरफ़ा अधिक हो गयी है और वहां सृजन की सम्भावनाएं कम ही दृष्टिगोचर होती हैं। फिर नृत्य, संगीत और लेखन से जुड़ाव भी मुझे राजनीतिक ख़बरों के प्रति आकर्षित नहीं करता।

 इसीलिए घुमक्कड़ी, सिनेमा, नाटक, प्रदर्शनियां, नवाचार, स्वास्थ्य, फीचर और विज्ञान से जुडी ख़बरों पर ही मेरा अधिकतर ध्यान रहता है। इसलिए 'भाषा' में काम करते हुए जब पहली बार मुझे राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की रिपोर्टिंग का अवसर प्राप्त हुआ तो मैं बहुत प्रसन्न था, क्योंकि इस पूर्व घोषित कार्यक्रम में भी सृजन की सम्भावना बची हुई थी।

 यहाँ मुझे कई बार विज्ञान की ऐसी ख़बरों से दो-चार होना पड़ा जिनका भारतीय समुदाय से कोई लेना-देना नहीं था लेकिन हमेशा उन ख़बरों का अनुवाद करते समय मैं उन ख़बरों में 'ह्यूमन कनेक्ट' को ढूंढने का प्रयास करता और फिर उसे भारतीय समाज से जोड़कर कॉपी बनाने का प्रयास करता। इस वजह से मैंने कई बार अपने सम्पादकों से डांट भी खायी कि खबर का इंट्रो छोटा और तथ्यपरक ज्यादा होना चाहिए और मैं हूँ जो भूमिका में ही दो पैराग्राफ खा जाता हूँ लेकिन फिर जब वो कॉपी ज्यादा छपती तो मैं अपनी बात को स्थापित कर देता कि आखिर हम ख़बरों को पढ़ते क्यों हैं क्योंकि हम 'ह्यूमन' हैं और इसलिए खबरों में 'ह्यूमन कनेक्ट' ढूंढने की मेरी कोशिश होती है।

 'भाषा' में कभी-कभी हमें काम के दौरान फिल्म समीक्षा का भी अनुवाद करना पड़ता है। यह बहुत दुष्कर काम है, इस काम में आपको अपनी रचनात्मकता और सृजनात्मकता को बक्से में बंद करना होता है और बिना किसी फिल्म को देखे हुए उसकी समीक्षा करनी होती है। लेकिन मैं हमेशा इसमें भी प्रयास करता हूँ कि वह समीक्षा मात्र अनुवाद न लगे और इसलिए मैं उसमें अपना अक्स जोड़ ही देता हूँ और बाद में संपादक की थोड़ी डांट खा लेता हूँ।

 खैर ये तो बीते अनुभवों की बात है लेकिन अब जो नया अनुभव प्राप्त करने के लिए मैं अग्रसर हूँ वो यह कि कुछ दिनों के लिए मैं अब अर्थ-वित्त से जुडी ख़बरों से रूबरू होने जा रहा हूँ। मुझे दो साल बाद ऐसा लग रहा है कि फिर से नयी नौकरी मिल गयी हो, क्योंकि ये जो परिवर्तन हुआ है मैं उसे सकारात्मक तौर पर लेता हूँ। जिस सृजन के चलते मैं खुद को राजनीतिक खबरों से दूर रखने  का प्रयास करता हूँ अब क्षेत्र से जुड़ी नयी ख़बरों को बनाने, उनका अनुवाद करने और उसकी रिपोर्टिंग करने के लिए जो उत्सुकता मेरे भीतर है वो एक नए सृजन को जन्म दे रही है क्योंकि कुछ नया सीखना भी तो सृजन है।

 अर्थ जगत में मेरी थोड़ी रूचि पहले से भी रही है क्योंकि देश कैसे चलता है और हम स्वयं कैसे धन से शासित होते हैं यह अर्थ जगत का हिस्सा है और इसे जानना अच्छा ही होता है एवं इसे मैंने खुद से थोड़ा-थोड़ा जानकर ही जाना है।

 उम्मीद है कि यह परिवर्तन नए अनुभव देगा। वैसे भी मेरा मानना है कि जीवन से जुड़ा हर परिवर्तन आपको आपकी स्थापित सीमाओं से बाहर आने का अवसर प्रदान करता है और इस तरह आने वाले बहुत से परिवर्तन आपको सीमाओं से परे ले जाते हैं।

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

कीमत

कुछ दिन पहले एक काम से जनपथ मार्किट जाना हुआ। वैसे तो मैं कई बार इस बाजार में गया हूँ लेकिन सर्दियों के शुरूआती दिनों में मैं पहली बार इस बाजार में गया। बाजार में हर तरफ भीड़ ही पसरी थी और ऊनी कपड़ों की बहार सी छायी हुई थी। जहाँ देखो तो सूटर (स्वेटर), जैकेट्स, कोट और तरह-तरह के ऊनी कपडे थे। लेकिन एक बात जिसने मेरा ध्यान खींचा वो था वहाँ लगाई जाने वाली आवाजों ने, 450 के 3 टी-शर्ट्स, 500 की जैकेट इत्यादि।

पालिका बाजार के बाहर का एक दृश्य 
 मुझे याद आया कि इस तरह  आवाज लगा-लगा के हमारे शहर में पटरी पर तो नहीं पर हाँ हाट और मेले में सामान जरुर मिलता है। साल में दो बार, नवदुर्गा उत्सव के अवसर पर तो मेरे घर के बाहर ही मेला लगता है लेकिन जो सामान हमारे यहाँ आवाज लगा कर बेचा जाता है उसकी कीमत यही कोई 10-50 रुपये के बीच तो अब होने लगी है अन्यथा एक समय में तो यह 2-10 रूपये ही हुआ करती थी। अब पता नहीं यह महंगाई की मार है या कुछ जमाखोरों की कारिस्तानी पर वक्त से साथ हम इन 2 से 10 की कीमतों के फर्क के आदि हो गए हैं।

 पर यहाँ जब मैंने 500 रुपये का सामान भी आवाज लगाकर बिकते हुए देखा तब मुझे रुपये कीमत समझ में आयी कि यह वाकई कितनी गिर गयी है। तभी तो 500 रुपये का सामान भी यूँ पटरी पर बिक जाता है और लोग भीड़ लगाकर खरीदने के लिए खड़े भी रहते हैं। वरना हम तो 500 रुपये में कितना कुछ कर लेते थे लेकिन ये दिल्ली है भाई सबको उनकी कीमत से वाकिफ करा ही देती है चाहे फिर वो पैसा हो या रुपया, नेता हो या अभिनेता, इंसान हो या भगवान। 

रविवार, 10 नवंबर 2013

कौड़ियों के दाम

 अक्सर इस मुहावरे को हम अपने जीवन में इस्तेमाल करते रहते हैं और इसका मतलब भी साफ़ होता है कि ऐसी कोई वस्तु जिसका कोई मोल नहीं। लेकिन इस बार दीवाली पर मैं जब घर गया तो कुछ अनुभव हुआ कि नहीं कौड़ियों के भी कुछ दाम होते हैं।

कौड़ियाँ 
 व्यापारिक परिवार से होने के कारण हमारे यहाँ दीवाली पूजन का बड़ा ही महत्त्व है और दुकान पर पूजा करने से पहले हमारे यहाँ गद्दी को गोबर से लीप करके उस पर 7 कौड़ियों से खेलने की परम्परा है जिसमें से 3 कौड़ियों का खुली हुई तरफ से आना शुभ माना जाता है। इस बार पिताजी से दीवाली की तैयारियों में कुछ एक कौड़ियां टूट गयी जिसके चलते आदेश हुआ कि अब बाज़ार से पूजन सामग्री के साथ कौड़ियां भी लानी होंगी।

 जब मैं पंसारी की दुकान से सारी सामग्री बंधवा रहा था तो मेरी नज़र उसके द्वारा लिख जाने वाले दामों पर गयी और यकीन मानिये कौड़ियों के दाम देखकर मैं दंग रह गया। अब तक तो मैं सोचता था कि सब्ज़ी और रोजमर्रा की वस्तुओं के दामों में आने वाली बढ़त ही मुख्य महंगाई हो सकती है क्यूंकि यह सीधे तौर पर आपके दैनिक बजट को गड़बड़ा देती है लेकिन कौड़ियों का तो आज कोई खास प्रयोग भी नहीं सिर्फ ऐसी ही कुछ रस्मों-रिवाजों का अंग बची है फिर उसके दामों को क्या हो गया, आप विश्वास नहीं करेंगे कौड़ियां 15 रुपये की 10 मिली। तब वाकई लगा कि आज के ज़माने में आदमी की किसी बात का दाम भले ही न हो लेकिन कौड़ियों के दाम जरुर हैं, तो ज़रा अगली बार किसी से यह बात कहने से पहले सोच लीजियेगा कि कौड़ियों के भी दाम होते हैं।

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

बीरबल के मयखाने से

बीरबल-अकबर-मुल्ला जी
जकल रात को खाना खाने के बाद थोड़ा छत पर टहलने चला जाता हूँ और इसी बहाने इमारत में रहने वाले बाकी लोगों से मिलना-जुलना हो जाता है। हमारे मकान के मालिक से भी बातचीत हो जाती है, वो दिल्ली पर्यटन विभाग में काम करते हैं तो अक्सर मदिरा से जुड़े कई रोचक किस्से कह जाते हैं। ऐसा ही एक किस्सा अकबर-बीरबल का भी उन्होंने सुनाया जो संदेशपूर्ण प्राप्त हुआ तो साझा कर रहा हूँ।
"एक बार की बात है अकबर के दरबार में मुल्ला दो प्याज़ा आये और बोले कि जहाँपनाह क्या आपको पता है कि बीरबल शराब पीते हैं ? अकबर ने उन्हें फटकारते हुए कहा कि आप यूँही बीरबल से जलते हैं इसीलिए उसके बारे में ऐसी-वैसी खबरे उड़ाते रहते हैं। जाइये अपना काम कीजिये, बीरबल तो गऊ आदमी है, वो ऐसा कैसे कर सकता है ?
इस पर मुल्ला दो प्याज़ा बोले कहें तो जनाब को बीरबल की इस जुर्रत के दर्शन करा सकता हूँ। इस प्रकार अकबर तैयार हो गया और साँझ के समय दोनों बीरबल के घर के बाहर झरोखे से बीरबल का कार्यक्रम देखने लगे।
बीरबल वहां एक मेज पर अपना मयखाना सजाकर बैठा था और उसने अपना पहला जाम बनाया और प्याले से कुछ कहने लगा। अकबर, मुल्ला दो प्याज़ा के साथ बाहर झरोखे से सब देख और सुन रहे थे।
बीरबल अपने प्याले से -'ए शाम ए सुहानी घटा में मेरी मदिरा ये बता कि अगर मैं तुझे पियूँ तो तू मुझे क्या देगी?'
मदिरा-'अगर तू मुझे पिएगा तो मैं तुझे दिन भर की थकान से आराम दूंगी।'
बीरबल-'तू मुझे पक्का आराम देगी !'
मदिरा-'हाँ !'
बीरबल घुड़क-घुड़क जाम पी लेता है और दूसरा जाम बना कर उसे उसी तरह हाथ में लेकर फिर से कुछ पूछने लगता है और बाहर झरोखे से अकबर ये सब देख के लाल-पीला हो रहा होता है। बीरबल फिर से अपनी मदिरा से-
बीरबल-'ए जन्नते जहाँ अब अगर मैं तुझे पियूँ तो तू मुझे क्या देगी?'
मदिरा-'अब तू मुझे पिएगा तो मैं तुझे सारे तनाव से मुक्ति दूंगी और तेरे दिमाग को शांत कर तेरी शाम सुकून से भर दूंगी।'
बीरबल-'तू ऐसा करेगी !'
मदिरा-'बिल्कुल !'
बीरबल इस बार भी सारा जाम पी जाता है। अकबर ये सब देख रहा होता है और उसके सब्र का बांध टूट रहा होता है। लेकिन बीरबल अब तीसरा जाम भी बना लेता है और उससे फिर बात करने लगता है।
बीरबल-'ए महबूब सी सुन्दर मेरी जानेमन अब मैं तुझे अपने अधरों से छूऊँ तो बता तू मुझे क्या देगी।'
मदिरा-'मेरी जाने बहार अब अगर तू मुझे अपने होठों के नजदीक लाया तो तू मुझे नहीं पिएगा बल्कि मैं तुझे पियूंगी।'
इसपर बीरबल एकदम से आवेश में आ जाता है और कहता है-'तेरी ये मजाल कि तू मुझे पीयेगी !'
और इसके बाद बीरबल प्याले को हाथ से झटक देता है और सारे मयखाने को हटाकर सो जाता है।
ये देखकर अकबर का सार गुस्सा काफूर हो जाता है और वो मुल्ला दो प्याज़ा से मुखातिब होते हुए कहता है कि देखा मुल्ला साहब 'बीरबल शराब नहीं पीता !'

सोमवार, 29 जुलाई 2013

हर किसी को अपने हिस्से का विरोध करना होगा

साभार : ए क्रिएटिव यूनिवर्स
नोट- मेरी पिछली पोस्ट "सबला बनने को प्रेरित करना है" का यह संशोधित संस्करण है जो तहलका हिंदी में प्रकाशित हुई है 31 जुलाई 2013 के अंक में आप सभी के साथ साझा कर रहा हूँ।

 कुछ बातें ऐसी होती हैं जिनको साझा किए बिना मन नहीं मानता. 
वह दिन मेरे लिए बिल्कुल आम दिन था. कुछ भी अलग नहीं. मैं हमेशा की तरह बस में बैठकर अपनी क्लास करने जा रहा था. बताता चलूं कि मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिण परिसर का छात्र था. वही जाने-पहचाने रास्ते थे और एक-सी सवारियां.

 बस के यात्री रोज की तरह बस में चढ़ और उतर रहे थे. थोड़ी देर बाद बंगला साहिब बस स्टॉप आया और दो युवतियां बस में चढ़ीं. दोनों देखने में किसी कॉलेज की छात्रा लग रही थीं. मैं चूंकि महिला सीट पर बैठा था इसलिए मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार था कि किसी भी मोड़ पर मुझे सीट खाली करनी पड़ सकती है. वे मेरे पास आकर खड़ी हुई ही थीं कि मैंने झट सीट खाली कर दी. उनमें से एक लड़की बैठ गई और मैं दूसरी के बगल में खड़ा हो गया. बस अपने गंतव्य की ओर बढ़ चली.

 कुछ देर बाद बस सरदार पटेल मार्ग से गुजर रही थी, तभी मालचा मार्ग के पास एक स्टैंड से अधेड़-सी महिला बस में सवार हुई. ठसाठस भरी बस में वे सीट तलाश ही रही थीं कि उस बैठी हुई लड़की ने खुद ही अपनी सीट उनको दे दी. मुझे अजीब लगा कि उस महिला ने एक बार धन्यवाद तक नहीं कहा. खैर, मैंने मन में सोचा कि होते हैं ऐसे भी लोग मुझे क्या मतलब? यह भी कि दिल्ली में तो यह आम है. मैंने अक्सर देखा है कि यहां आप किसी की मदद करेंगे, उसे थोड़ी सुविधा देंगे और वह उसे अधिकार समझकर आपके साथ अवहेलना का व्यवहार करना आरंभ कर देगा. अभी सफर थोड़ा ही कटा था कि उस महिला ने बगल में बैठी महिला के साथ बातचीत शुरू कर दी.

 मैं बहुत करीब खड़ा था और इसलिए मुझे सारी बातचीत एकदम साफ सुनाई दे रही थी. बातचीत के केंद्र में इन दोनों युवतियों का पश्चिमी पहनावा था. हालांकि बगल में बैठी उस दूसरी महिला के हाव-भाव से लग रहा था कि उसे इन बातों में कोई रुचि नहीं है फिर भी यह महिला लगातार बोले जा रही थी. अब मेरा धैर्य समाप्त होने लगा था और मुझे कुछ-कुछ गुस्सा आने लगा था. उन लड़कियों के पहनावे में कोई बुराई नहीं थी. उनका पहनावा एकदम आम था-जींस और टीशर्ट।

 दिल्ली में ही क्या देश के किसी भी शहर में हर दूसरी लड़की आपको यही पहने मिलेगी और इसमें बुराई भी क्या है? मेरे जी में आया कि उस महिला को जमकर फटकार लगा दूं लेकिन मैं रुक गया. मुझे लगा कि मेरे पहल करने का क्या मतलब है जब वे दोनों युवतियां सब कुछ सुनकर भी चुपचाप खड़ी हैं. लेकिन मुझसे रहा नहीं गया और आखिरकार मैंने अपने बगल में खड़ी युवती से कह ही दिया, ‘एक बात बताइए इन कपड़ों से जब आपको या आपके घरवालों को कोई परेशानी नहीं तो आप इतनी देर से इनकी बकवास क्यों झेले जा रही हैं? जवाब देकर इन्हें शांत क्यों नहीं कर देतीं.’ मेरी बात का फौरन असर हुआ और उस लड़की ने अपना विरोध दर्ज कराया. कहीं से समर्थन नहीं मिलता देखकर आखिरकार उस महिला को अपनी बात बंद करनी पड़ी.

 वह महिला तो थोड़ी देर बाद बस से उतर गई लेकिन उस दिन यह बात मेरी समझ में बहुत अच्छी तरह आ गई कि आखिर क्यों हमारे देश में औरत को औरत का दुश्मन माना जाता है. इसलिए कि सदियों से प्रताड़ना और दबाव सहन कर रही महिलाओं का मानस अब भी प्रतिरोध के लिए तैयार नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसका सीधा संबंध हमारे अंतर्मन से है. लेकिन इसके साथ-साथ मुझे यह भी समझ में आया कि जरूरी होने पर और सही जगह पर प्रतिरोध करना कितना जरूरी है और इससे कितनी गलत आदतों को रोकने में मदद मिलती है. वे  लड़कियां मेरी कोई नहीं थीं. हो सकता है कि उनकी ओर से बोलने पर मुझे काफी कुछ सुनने को भी मिल जाता. यह भी हो सकता है वे लड़कियां भी मुझे ही कुछ बोल देतीं लेकिन उस लड़की को बोलने के लिए प्रेरित करके मुझे आत्मिक संतोष मिला. सच भी है आखिर कब तक लड़कियों को अबला बताकर कुछ पुरुष उनकी ढाल बनकर खड़े रहेंगे? उन्हें अपना बचाव खुद करना होगा. फिर चाहे उनके सामने दुश्मन कोई पुरुष हो या उनकी ही जाति का कोई भटका हुआ सदस्य!

तहलका में प्रकाशित स्टोरी का लिंक- http://www.tehelkahindi.com/index.php?news=1896

शनिवार, 27 जुलाई 2013

सबला बनने को प्रेरित करना है।

साभार: टच टैलेंट डॉट कॉम
 बात ही ऐसी है कि उसे बयां करना जरूरी है। मैं रोजना की तरह बस से दिल्ली विश्विद्यालय के दक्षिण परिसर जा रहा था अपनी क्लास करने के  जा रहा था। सवारियां चढ़ रही थीं, उतर रही थीं और बस चलती जा रही थी। थोड़ी देर में बंगला साहिब के स्टैंड से दो लड़कियां बस में चढ़ी। देखने में तो कॉलेज की छात्रा ही लग रही थीं। उनमें से एक मेरे बगल में आकर खड़ी हो गयी, महिला सीट थी, मैं समझ गया, वो मुझसे कुछ कहती मैंने खुद ही खड़े होकर कहा कि सीट आप ले लीजिये। वो सीट पर बैठ गयी और उसके साथ वाली दोस्त वंही खड़ी हो गयी और मैं भी उनके बगल में ही खड़ा रहा और बस फिर अपने गंतव्य के लिए चलने लगी।

 बस कुछ देर में सरदार पटेल मार्ग से गुजर रही थी, तभी मालचा मार्ग के पास एक स्टैंड से अधेड़ सी महिला बस में सवार हुई। वो भी महिला सीट की तलाश में थी और तभी उस बैठी लड़की ने खुद ही कहा की आंटीजी आप बैठ जाइये। उस महिला ने धन्यवाद तक नहीं दिया, जो मुझे थोड़ा अजीब लगा, जब कभी मेरे साथ ऐसा होता तो अंग्रेजी में ‘‘यू शुड से थैंक्स टू मी’’ बोलकर मैं अपने परोपकार के अहम् को संतुष्टि दिला ही लेता था।

 बस में सीट पर बैठने के कुछ देर बाद पता नहीं उस महिला को क्या हुआ उसने अपनी पास वाली महिला से बातें करते हुए उन दोनों लड़कियों के कपड़ों को लेकर तरह-तरह की टिप्पणियां शुरू कर दी। हालाँकि बगल में बैठी महिला के हाव-भाव से लग रहा था कि उसे इन सब में कोई रूचि नहीं है, फिर भी वो महिला जारी रही। मुझे उस महिला पर गुस्सा आ रहा था। अब उन लड़कियों ने सिर्फ साधारण-सी जींस और टीशर्ट ही पहनी हुई थी, जो उस गर्मी में सही भी थी। मन में आया कि उस महिला को जमकर फटकार लगा दूँ, लेकिन मेरे दिमाग में उस समय कुछ और ही चल रहा था और मैंने फिर वही किया।
मैंने अपने बगल में खड़ी उस लड़की से कहा ‘‘एक बात बताओ जब इस तरह के कपड़ों से तुम्हें कोई परेशानी नहीं और न ही तुम्हारे माता-पिता को तो तुम इनकी ये बकवास सुन क्यूँ रही हो ? जवाब देकर इन्हें शांत क्यूँ नहीं करा देती।’’ मेरे कहने का असर हुआ और वो लड़की समझ गयी कि मैं क्या कहना चाहता हूँ। उसके बाद जो हुआ उसे मैं बयां नहीं करूँगा। हाँ, लेकिन वो महिला अगले ही स्टैंड पर उतर गयी।

 उस दिन मुझे समझ आया कि क्यूँ आखिर इस देश में औरत को ही औरत का शत्रु समझा जाता है क्यूंकि हमने उसके अंतःमन को प्रदूषित कर रखा है और एक बात जो समझ आई वो यह कि हमेशा जरूरी नहीं कि हम महिलाओं के लिए बाप,भाई या पति की ढाल बनकर खड़े हों यह तो हमें तब करना चाहिए जब इसकी आवश्यकता हो अन्यथा कोशिश यह हो कि हम उसे तलवार बनने को प्रेरित करें ताकि कम से कम अपने लिए तो वो लड़ सके। कब तक सहारा देकर उसे अबला बनाये रहेंगे ? उसे सही दिशा में प्रेरित कर हमें सबला बनाना है।

नोट- इस लेख का संपादित अंश तहलका में प्रकाशित हो चुका है। अगले लेख में वह संपादित अंश पढ़ें। लिंक यहाँ साझा कर रहा हूँ - हर किसी को अपने हिस्से का विरोध करना होगा