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शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

एडिटिंग की मिसाल है, एन इन्सिग्निफिकेंट मैन

फिल्म का एक दृश्य
 दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की "आम आदमी पार्टी" ने अपने पांच साल पूरे होने का जश्न हाल ही में मनाया है। पार्टी के भीतर और पार्टी से अलग हुए नेताओं की टिप्पणियां भी हुईं और विपक्षियों के आरोप-प्रत्यारोप भी। पार्टी से नाराजों के भी बोल भी रहे और पार्टी के रास्ता भटक जाने की बातें भी। इसी समय में हमारे बीच एक फिल्म आई  "एन इन्सिग्निफिकेंट मैन", मैं इसे डॉक्युमेंट्री इसलिए नहीं कहना चाहता क्योंकि ये फिल्म उससे बहुत आगे जाती है।

 इस फिल्म के राजनीतिक पहलू पर बहुत बातें हुई हैं। इससे जुड़े लोगों के बारे में भी बहुत बातें हुईं हैं। लेकिन मेरा मानना है कि इस फिल्म ने एक बहुत बड़े स्टीरियोटाइप को तोड़ा है। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैंने इसे महसूस किया है। फिल्म रिलीज हुई 17 नवंबर को और मैं इसे 19 को ही देख आया।

 आमतौर पर भारत में दर्शक इस तरह की फिल्मों के लिए थिएटर में पैसा नहीं खर्च करता। लेकिन इस फिल्म में कुछ अलग है, मैंने दिल्ली के अनुपम साकेत में जब यह फिल्म देखी तो हॉल खचाखच भरा पाया। इसमें भी खास बात देखने वालों में युवाओं की संख्या ज्यादा होना लगी।

 अब लोग कह सकते हैं कि केजरीवाल की ब्रांड वैल्यू इससे जुड़ी है इसलिए भीड़ चली आयी। लेकिन मेरे हिसाब से सचिन की "बिलियन ड्रीम्स" को भी ऐसा रिस्पांस नहीं मिला था, और सचिन तो पीढ़ियों पर राज करने वाला ब्रांड रहे हैं। तो फिर क्या खास है इस फिल्म में जो इसे लोगों के लिए इतना रुचिकर बनाता है।

 मेरे हिसाब से इस फिल्म की एडिटिंग इसकी जान है और यही इसे इतना खास बनाती है। मैंने शुरू में ही कहा कि इसे डॉक्युमेंट्री कहना इससे जुड़े लोगों की काबिलियत को काम आंकना होगा। मुझे नहीं लगता कि इसके निर्देशकों के पास किसी तरह के फुटेज की कमी रही होगी, लेकिन उन फुटेजों का कैसे और कहाँ इस्तेमाल करना है। कैसे फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाना है, ये काम किया है इसकी एडिटिंग ने।

 फिल्म में एक दृश्य जो मुझे प्रभावित कर गया वो था केजरीवाल का सत्याग्रह फिल्म देखकर थिएटर से बाहर निकलना और एक टीवी रिपोर्टर को इंटरव्यू देना। उस दौरान कैमरा का एक फोकस केजरीवाल के अपनी शर्ट के कोने से साथ खेलने को दिखाता है। यह अपने आप में किसी फिल्म के नायक के चरित्र को स्थापित करने वाला दृश्य है।

 यह किसी फीचर फिल्म की तरह ही अपने नायक को गढ़ने का दृश्य है। फिर धीरे-धीरे फिल्म में योगेंद्र यादव का असर दिखना शुरू होता है, जो बताता है कि फिल्म में नायक है लेकिन एक प्रति नायक भी है। प्रति नायक शब्द का इस्तेमाल हूँ क्योंकि योगेंद्र खलनायक नहीं हैं।

 चूँकि नायक अरविन्द हैं तो फिल्म में खलनायक होना तो जरुरी है ही, और इसके लिए चुना गया उस समय दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित को। उनके ऐसे फुटेज इस्तेमाल किये गए जो आपको बरबस हंसने पर मजबूर कर देंगे। फिर वह चाहें चुनाव प्रचार के दौरान दलेर मेहंदी के गाने पर उनका मेज थपथपाना हो या चुनाव नामांकन के दौरान अरविन्द के ऊपर जोक सुनाना। यह उनके चरित्र को फिल्म में पूरी तरह खलनायक तो नहीं लेकिन उसके लगभग बराबर ही रखता है।

 फिल्म बोझिल न लगे इसलिए इसमें एक मसाला फिल्म के लगभग सभी मसाले दिखते हैं। जब आप पार्टी की नेता संतोष कोली की मौत हो जाती है तो उसके अगले दिन की एक सभा का फुटेज फिल्म में इस्तेमाल  किया गया है। उस दृश्य में अरविन्द के चेहरे पर वह सारे भाव नज़र आते हैं जो इस घड़ी में हक़ीक़त में होने चाहिए और ये दृश्य फिल्म के नायक को दर्शक के करीब लाता है।

 ऐसा ही एक और दृश्य है जहाँ एक मोहल्ला सभा में एक महिला अरविन्द को पावर देने की बात करती है। इस फुटेज को फिल्म में रखने का निर्णय बताता है कि निर्देशक अपने चरित्र को कैसे गढ़ना चाहता है। फिल्म में एक दृश्य कुमार विश्वास और अरविन्द के बीच हास-परिहास का भी है। यह हमारे नेताओं के बीच आम इंसान की तरह होने वाले हंसी मजाक के साथ-साथ उनकी एक मिथक छवि को तोड़ने का भी काम करता है।

 भारतीय समाज अपने नेता को इंसान मानने के लिए तैयार ही नहीं है। वह या तो कोई दैवीय पुरुष, शक्ति या परमावतार होता है, वह इंसान नहीं होता। इसलिए जब हम उनके लिए कहानी या फिल्म लिखते हैं तो वह "लार्जर देन लाइफ" होती है। एक समय में अरविन्द ने इस छवि को तोडा था और यह फिल्म उसी को आगे बढाती है। यह हमे हमारे नेताओं को अपने बीच का समझने में मदद करती है।

 और अंत में एक बात फिल्म बनाने वालों के लिए, हिंदी में "मुख्यमंत्री" सही शब्द है, "मुख्यामंत्री" नहीं जैसा कि फिल्म के अंत में लिखा दिखाया गया है।

फिल्म के निर्देशक विनय और खुशबू

रविवार, 17 जुलाई 2016

कितने दूर चले गए हमारे नेता?


 भी पिछले दिनों एक किताब "डिकोडिंग राहुल गांधी" को पढ़कर ख़त्म किया। ये राहुल गांधी के 2012 तक के सफर (अमूमन असफलताओं) की कहानी कहती है। पत्रकार आरती रामचंद्रन की इस किताब को आये लम्बा समय बीत चुका है इसलिए उसके बारे में बहुत कुछ लिखा और पढ़ा जा चुका होगा, ऐसा मुझे लगता है। इसलिए मैं यहाँ किताब के बारे में ज्यादा ज़िक्र नहीं करूँगा। लेकिन हाँ इस किताब ने मन में कई सवालों को जन्म दिया उन पर तो बात की ही जा सकती है।

 इस किताब को आप राहुल गांधी की एक अनाधिकारिक जीवनी (क्योंकि राहुल के बारे में कोई अन्य किताब उपलब्ध नहीं है) मान सकते हैं जो उनके जीवन के बहुत छोटे से कालखंड की बात करती है। लेकिन यह कितना विचित्र है कि राहुल पर लिखी गयी किताब में लेखक ने अपनी सिर्फ एक मुलाकात का ज़िक्र किया है बाकि जितने भी संदर्भ और वर्णन हैं वो सब दस्तावेजों और सहयोगियों से जुटाए गए हैं।

 अब ये मेरी समझ से परे है कि किसी से एक मुलाकात में आप कितना उसके बारे में जान पाएंगे। यहाँ आम जीवन में रोज़ाना दफ्तर या कामकाज के दौरान में मिलने वाले लोगों को हम सही से नहीं जान पाते तो एक नेता को कैसे जान सकते हैं ? खैर किताब में राहुल के बारे में कई रोचक जानकारियां हैं जिनके बारे में शायद आम जनता को पता भी नहीं हो।

 आज़ादी के हमारे नायकों ने अपने जीवन में कई किताबों को लिखने का श्रम किया। उस दौर में वो अपने साथियों को पत्र लिखा करते थे जिसमें उनकी अपनी निजी भावनाओं का पता चलता था। अगर जानना है कि पत्र किसी के अंदर ने मनुष्य को कैसे बाहर निकालते हैं तो गांधीजी और टॉलस्टॉय के बीच का पत्राचार पढ़िए। खैर इस दौर की तो कमी यही है कि इतिहास विलुप्त हो रहा है और नया इतिहास लिखा जा रहा है।

 नेहरू-गांधी परिवार में राजीव गांधी के बाद जब से नयी पीढ़ी का उदय हुआ है तो ये लिखने की परंपरा कंही पीछे छूट गयी है। नेताओं का जन संवाद खत्म हो गया है और उसकी जगह चाटुकारों ने ले ली है। इसलिए आरती की किताब में भी राहुल का चित्रण उनके चाटुकारों के माध्यम से ही ज्यादा हुआ है।

 खैर मैं राहुल की बात का अंत यंही करना चाहूंगा क्योंकि उनके जमा खाते में कुल मिलाकर "स्वयं सहायता समूह" की एक मात्र उपलब्धि है। वैसे यह कार्य भी मनमोहन सरकार की योजनाओं का हिस्सा था इसमें राहुल क्या योगदान है वो मुझे नहीं पता ! किताब भी राहुल के समस्याओं से भागने की ही बात करती है। 

 रंज इस बात का नहीं कि हम अपने नेताओं के बारे में कितना जानते हैं, सवाल ये है कि लोकतंत्र में सुरक्षा के नाम पर हमारे नेता लोक से ही दूर हो चलें हैं। फिर वो चाहें अपने आप को चाटुकारों से मुक्त बताने वाले नरेंद्र मोदी हों या अरविन्द केजरीवाल। इनमें से कोई भी जनता के लिए आसानी से उपलब्ध नहीं है। 

 मैंने अपने बड़ो से नेहरू-गांधी दौर के कई किस्से सुने हैं उनमें से एक किस्सा नेहरू से जुड़ा है- (अभी इसकी सत्यता की जाँच की जानी बाकी है, लेकिन फिर भी किस्सा तो है, जांचने वाले इस किस्से जुड़े तथ्य बताएं तो बेहतर होगा।)
"एक बार जवाहरलाल नेहरू तीनमूर्ति वाले घर से निकल रहे थे तो उन्होंने एक बुजुर्ग सफाईकर्मी को झाड़ू लगाते देखा। उस समय झाड़ू में डंडा नहीं लगा होता था तो उस बुजुर्ग को झुककर झाड़ू लगानी पड़ रही थी। यह देखकर नेहरू रुक गए और उस बुजुर्ग से बात करने पहुँच गए। उसके बाद उन्होंने सरकारी सफाईकर्मियों की झाड़ू में डंडा लगाने का निर्णय लिया और ऐसे ये परंपरा शुरू हुई।"
  हालाँकि मोदी ने भी एक दो बार ये जताया कि वो सर्व सुलभ होने की इच्छा रखते हैं। लेकिन यह मुझे रस्मी ज्यादा लगा। भारतीय राजनीति अन्य उभरते सितारे केजरीवाल के बारे में तो यही कहा जाता है कि सर्व सुलभ होना तो दूर वो तो कई बार अपने विधायकों के लिए भी उपलब्ध नहीं होते।

 सोचना हमें ही है कि क्या हम अपने नेताओं को ऐसे ही दूर से देख के मनोरंजन करना चाहते हैं या उन्हें अपने जीवन में अपनाकर लोकतंत्र का उत्सव मनाना चाहते हैं क्योंकि मांगेगे नहीं तो मिलेगा भी नहीं। रही बात मनोरंजन की तो देखने से भी हो जाता है जबकि उत्सव में भाग लेना होता है।

 वैसे अब नेताओं ने लिखना छोड़ दिया है और सरकारी अधिकारियों ने लिखना शुरू कर दिया है। नेहरू-गांधी परिवार में इंदिरा के बाद तो शायद ही किसी ने कुछ लिखा हो, तो हमें अपने नेताओं के बारे में पता कैसे चलेगा। भाजपा में लिखने को अच्छी विधा नहीं माना जाता तभी तो लिखने वाले जसवंत सिंह का क्या हश्र हुआ सबको पता है और लाल कृष्ण आडवाणी भी "माय लाइफ माय कंट्री" लिखने के बाद कहाँ हैं ये भी सभी को दिखाई दे रहा है।

 खैर अभी इंतज़ार करिये क्या पता मनमोहन सिंह ही कुछ लिख दें...

रविवार, 8 मई 2016

दिल छीछालेदर, फेंक जूता लेदर


 ये बॉलीवुड फिल्म "गैंग्स ऑफ वासेपुर" का एक गाना है जिसके शब्दों को मैंने बस थोड़ा इधर-उधर करके लिखा है। अब लिखूं भी क्यूँ नहीं, हम सब अब इसी काम में तो लगे पड़े हैं, एक-दूसरे की छीछालेदर करने और आपस में एक-दूसरे पर जूता उछालने में।

  हाल के दिनों में आप ज़रा नज़र दौड़ाएं तो आपको समझ आएगा कि हम कहाँ जा रहे हैं। वैसे मुझे कहने का हक़ नहीं है लेकिन फिर भी गौर करें कि राजनीतिक जीवन का हमारे निजी जीवन में कितना अतिक्रमण हो गया है। आम तौर पर राजनीति और निजी जीवन के बीच एक तटस्था रहनी चाहिए लेकिन पिछले कुछ सालोंं में हम नितांत राजनीतिक हो गए हैं और समाज के परिदृश्य से ये ज्यादा अच्छा नहीं है। 

 हालाँकि ये मेरा निजी मत हो सकता है कि इस तरह हमारा राजनीतिक होते चले जाना या यूँ कहूं कि राजनीति में पगलाए जाना सामाजिक जीवन को गर्त में ले जाने वाला है वंही कुछ लोग इसे लोकतंत्र की मजबूती मान सकते हैं।

 लोकतंत्र में लोग किसी एक पार्टी के समर्थक या किसी दूसरी पार्टी के विरोधी होते रहे हैं लेकिन आप देखें इस जमात में "भक्त" एक नया शब्द आया है। भक्त कहना हमारे लोए थोड़ा सुविधाजनक है क्योंकि भारत में आपको इनके अनगिनत प्रकार मिलेंगे जिनमें राजनीतिक भक्त भी शामिल रहे हैं लेकिन आजकल इसका चलन थोड़ा ज्यादा हो गया है।

 लेकिन अब इस जमात का काम तर्कों और कुतर्कों पर बहस करने तक सीमित नहीं रहा बल्कि अब ये एक दूसरे की छीछालेदर और जूता फिंकाई का काम करने पर ही अपना ध्यान लगाते हैं। इसके दो फायदे हैं नेता-अभिनेता का प्रचार हो न हो इनकी साख जरूर बढ़ जाती है।

 अब इसे ज़रा ऐसे समझें कि जब स्मृति ईरानी की शिक्षा पर प्रश्न खड़ा हुआ तो हमने राहुल गांधी, तोमर इत्यादि सबकी शिक्षा पर प्रश्न खड़े कर दिए। मतलब सनम हम तो डूबेंगे ही लेकिन साथ तेरा वहां भी ना छोड़ेंगे। फिर वो चाहे बाद में गिरिराज सिंह, कठेरिया और भी ना जाने कितने नाम आये लेकिन हमारी कोशिश अपना दामन बचाने से ज्यादा दूसरे का गन्दा करने की रही।

 जनाब हम कब कह रहे हैं कि हमे पढ़े-लिखे नेता की जरुरत है क्योंकि मनमोहन सिंह पढ़े-लिखे हैं और हमने उनकी सरकार देखी है। इसके अलावा लालू यादव कथित तौर पर नहीं पढ़ें हैं, हमने उनकी भी सरकार देखी है तो नेता की पढ़ाई से भारतीयों को उतना फर्क नहीं पड़ता।

 पड़ेगा भी कैसे, हम तो अभी तक सामाजिक तौर पर बच्चों की पढ़ाई की जद्दोजहद में व्यस्त हैं। हम उन्हें पढ़ाई में लगाएं या कमाई में , बेटों को पढ़ाएं या बेटियों को हम इसी में पिसे जा रहे हैं तो भला नेताओं की पढ़ाई का हम क्या आचार डालेंगे ?

 माना कि आप पढ़े नहीं हैं तो फिर शर्माना कैसा? भैया दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने बिना पढ़े ही बड़े काम किये हैं।  एडिसन, सचिन तेंदुलकर ऐसे ही नाम हैं। तो आप शरमाते क्यों हैं बल्कि आप कुछ ऐसा सकारात्मक क्यों नहीं करते कि लोगों के सामने मिसाल पेश की जा सके कि देखो बिना पढ़ा-लिखा इंसान भी कमाल कर सकता है।

 जनाब तकलीफ आपके गैर पढ़े-लिखे होने से किसी को कहाँ है समस्या तो आपके दोगलेपन से है जो सामने कुछ बात करते हैं और पीठ पीछे कुछ। यही हाल आपने "भारत माता की जय" के नारे का भी किया।

 खैर राजनीति में ये जूता फिंकाई होती रही है वो बात और है कि मम्मी-पापा ने बचपन में ही बता दिया था कि "आजकल जमाना बड़ा ख़राब है" नहीं तो हम इसे ही ज़माने का सच मान बैठते।


लेकिन अब हम एक नए तरह की छीछालेदर बॉलीवुड में भी देख रहे हैं। मान लो कि कंगना-ऋतिक का प्रेम प्रसंग रहा और ये खबर लीक भी हो गयी लेकिन उसके बाद क्या..? हम और वो दोनों भी एक दूसरे की छीछालेदर करने उतर आये फिर बीच में सुमन-सुत भी कूद पड़े।

 आप इस बात को छोड़ दीजिये, हमने तो रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के "अंधों में काना राजा" वाली बात तक की छीछालेदर की जबकि उन्होंने सिर्फ एक मुहावरे का प्रयोग करके यथास्थिति बताने की कोशिश की थी। वो तो भले मानुष ठहरे राजन साहब जो माफ़ी मांग ली वरना लोग उनके बयां के साथ-साथ उनकी भी छीछालेदर करना जल्दी ही शुरू कर देते।

 अब ज़रा इसे गौर से समझें कि ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि हम वास्तव में नितांत राजनीतिक होते जा रहे हैं और हमारा अब हमने छीछालेदर को प्रचार बना दिया है। पहले हम कीचड़ मुंह पर लगने पर साफ़ कर लेते थे लेकिंन अब साफ़-सफाई तो हम झाड़ू की फोटो के साथ करते हैं हाँ लेकिन कीचड़ हाथ में लेकर दूसरे पर उसी समय फेंक देते हैं।

 इसलिए तो मैंने शुरुआत में ही कहा कि हमारा समाज "एक दूसरे की दिल से छीछालेदर" और "फेक लेदर का जूता नहीं" बल्कि "फेंक जूता लेदर" की ओर बढ़ रहा है। गौर से देखिये अपने आस-पास जो राजनीति के नाम पर हो रहा है वो क्या वाकई राजनीति है या बस हमने छीछालेदर को ही राजनीति बना दिया है या जिस समाज की ओर हम बढ़ रहे हैं वो अच्छा समाज है या नहीं, ये हमें सोचना होगा।

 बाकि आप जावेद अख्तर साहब का संसद का आखिरी भाषण सुनिए एवं समझिए और "भक्तों" को ढिंढोरा पीटने दीजिये क्योंकि वो इसी काम में माहिर हैं।

राज्यसभा टीवी के यूट्यूब चैनल से साभार 

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

जनाब बस दिमाग खोलकर चलें...!




 वैसे आमतौर पर मैं राजनीति से परहेज ही करता हूँ क्योंकि आजकल राजनीति के बारे में लिखने का मतलब बुद्धिजीवियों का नेताओं के बयानों पर टीका टिप्पणी करने और समर्थकों का उनके लिए छाती पीटने भर से रह गया है। रही-सही कसर सोशल मीडिया पूरी कर देता है क्योंकि अब संवाद एक तरफ़ा हो चला है।

 हम जब मीडिया की पढाई कर रहे थे तब एक थ्योरी थी "बुलेट थ्योरी" जिसका मोटा सा मतलब यह था कि खबरें बन्दूक से निकली गोली की तरह होती हैं जिसका कोई फीडबैक नहीं आता और आज के सन्दर्भ में यह बात नेताओं की टिप्पणियों पर लागू होती है। बस वो ट्वीट कर देते हैं और उसके बाद सब अपने हिसाब से लड़ते रहो। 

 खैर यह बात तो प्रसंगवश लिख दी लेकिन बात तो मैं जेएनयू के मुद्दे पर करना चाह रहा था।

 मैं अभी तक इस बात को समझ नहीं पा रहा हूँ कि यदि जेएनयू में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगे भी तो उसके वीडियो फुटेज ( Is there any conspiracy? ) मीडिया तक कैसे पहुंचे ? इसका मतलब यह हुआ कि कोई वास्तव में विवाद भड़काना चाहता था। 

 दूसरी बात यह कि सरकार को इस मामले क्या वाकई में दखल देना चाहिए था ? यदि जेएनयू प्रशासन खुद इस बात पर एक्शन लेता तो क्या वह ज्यादा तार्किक नहीं होता ?

 तीसरी बात कि इस मामले में अज्ञात लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गयी तो गिरफ्तारी जेएनयू छात्र संगठन के अध्यक्ष ( Kanhaiya's Clearance. ) की कैसे और किस आधार पर हुई ? क्या उसने इस कृत्य समर्थन किया था?

चौथी बात कि कुछ लोगों द्वारा अंजाम दी गयी इस घटना के लिए पूरा जेएनयू कैसे जिम्मेदार हो गया ?

 यह वो कुछ बातें हैं जिन पर सोशल मीडिया दोनों पक्षों के लोग बहस कर रहे हैं। सब अपने समर्थन में वीडियो को दिखा रहे हैं। तो अनुरोध बस इतना है कि किसी निर्णय पर पहुँचने से पहले दिमाग को विभिन्न पहलुओं से सोचने के लिए थोड़ा खोल लें।

 मुझे और जो बात इस सब प्रकरण के पीछे नजर आई वो यह कि आने वाले साल में पश्चिम बंगाल और केरल के चुनाव होने हैं। दोनों ही राज्यों में लेफ्ट पार्टियों का अच्छा दबदबा है और जेएनयू का लेफ्ट से अच्छा ताल्लुक है। ऐसे में जेएनयू से जुड़ा कोई भी विवाद दोनों राज्यों में कार्यकर्ताओं और समर्थकों को इकठ्ठा करने में काम आएगा। लेकिन शायद सरकार यह भूल रही है कि इन दोनों राज्यों में ही लेफ्ट पार्टियों का आधार काफी मजबूत है तो इससे वो आपके कार्यकर्ताओं से ज्यादा लामबंद हो जायेंगे। कंही यह विवाद पटखनी जैसा न हो जाये जैसा "गोपालक" विवाद बिहार में उल्टा पड़ा था।

 एक और बात जो यह है कि कांग्रेस ने लेफ्ट पार्टियों से गठबंधन कर लिया है ऐसी ख़बरें चर्चाओं में हैं। तो कंही भाजपा को यह डर तो नहीं सताने लगा है कि कांग्रेस महज दो साल में ही फिर से मजबूत होने लगी है। जैसे बिहार में उसकी स्थिति सुधरी है अगर वह और जगह भी बेहतर हुई तो कांग्रेस मुक्त भारत का सपना कैसे पूरा होगा। 

 एक और बात जो मुझे इस प्रकरण में समझ में आ रही है वो यह है कि जेएनयू के विवाद से अफज़ल गुरु के विवाद को जोड़ देना कंही कश्मीर के संकट से उबरने के लिए अपने समर्थकों के बहाने जन समर्थन जुटाने का प्रयास तो नहीं है क्योंकि मुफ़्ती मोहम्मद सईद के निधन के इतने दिन बाद भी वहां सरकार नहीं बनी है।

 इसके अलावा भाजपा के लिए सबसे अहम चुनाव उत्तर प्रदेश के हैं और उसमें एक साल करीब का वक़्त रह गया है। वहां बसपा फिर से उभर रही है और हाल के पंचायत चुनावों में उसके समर्थन वाले प्रत्याशी जीते हैं। ऐसे में जेएनयू के माध्यम से दलित-पिछड़े वोटों ध्रुवों में बांटने का काम तो नहीं किया जा रहा ताकि मायावती के उभर को रोका जा सके, उन्हें सीबीआई से उतना डरा भी तो नहीं सकते जितना कि मुलायम सिंह यादव को और फिर सपा को तो भाजपा की राजनीति से हमेशा फायदा ही मिलता है। 

 तो बहुत से सवाल हैं और बहुत सी संभावनाएं बस आप अपना दिमाग खोलकर रखें जनाब। बाकि ये भारत है, विविधताओं से भरा, इसे किसी एक विचारधारा में किसी का भी बांधपाना नामुमकिन ही है चाहें तो पूरा इतिहास खंगाल के देख लो।

मंगलवार, 7 जुलाई 2015

क्या मानें इसे सम्मान या उपकार ?

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस निश्चित रूप से भारत की 'सॉफ्ट डिप्लोमेसी' का शानदार उदाहरण है, लेकिन क्या इसके सिर्फ इतने ही निहितार्थ हैं ?

मुझे लगता है कि इसको थोड़ा व्यापक रूप में देखना चाहिए। यह बात सभी जानते हैं कि बाबा रामदेव ने चुनावों में भाजपा के पक्ष में खुला प्रचार किया था। सरकार ने उन्हें कई तरह से अनुग्रहीत  करने का प्रयास किया जैसे कि पहले पद्म


पुरस्कार से नवाजना चाहा, फिर बाद में उन्हें हरियाणा में कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिए जाने की भी बात हुई लेकिन रामदेव बाबा ने इसे स्वीकार करने से इंकार कर दिया।

देखा जाये तो यह सही भी है, अब कारोबारी इंसान को तमगों का क्या करना ? उसे तो अपने कारोबार से मतलब है। योग दिवस इसे भुनाने का सबसे सही तरीका है। सरकार ने योग दिवस के माध्यम से रामदेव का ही फायदा कराया है। इस वजह से उन्हें बिना धेला खर्च किये अंतर्राष्ट्रीय प्रचार मिल गया।

योग दिवस के मनाये जाने से इसकी वैश्विक स्वीकार्यता बढ़ेगी तो उसका व्यापार भी बढ़ेगा और विश्वभर में इसके कारोबार में लगे लोगों को लाभ पहुंचेगा। बाबा रामदेव के लगभग 1100 करोड़ के पतंजलि समूह के लिए इससे बेहतर अवसर क्या हो सकता है। चूँकि वो इस कारोबार के पुराने खिलाड़ी हैं लिहाजा उसका फायदा उन्हें मिलेगा ही। एक अनुमान के मुताबिक अकेले अमेरिका में ही योग का कारोबार लगभग 27 अरब अमेरिकी डॉलर का है। अब उसमें से रामदेव बाबा कितना हिस्सा अपने नाम जुटाते हैं ये देखना होगा ?  इसके अलावा देश में भी इसका कारोबार बढ़ेगा तो रामदेव और अन्य योग बाबाओं का तो राजयोग आने वाला है।

लेकिन यह बात भी मौजूं है कि संयुक्त राष्ट्र ने इसे मान्यता कैसे दी ? ठीक है मान लेते है कि भारतीय राजदूत ने इसके लिए काफी लॉबिंग की होगी और खुद प्रधानसेवक भी इसके लिए लॉबिंग कर आये थे वहां जाकर लेकिन क्या लॉबिंग ही काफी थी ? अगर ऐसा होता तो कई सालों से संयुक्त राष्ट्र में स्थायी सदस्य बनने के लिए लॉबिंग  कर रहे भारत का ये सपना भी साकार हो जाता।

मैं इसे थोड़े व्यापक रूप में देखता हूँ। ये बात किसी से छिपी नहीं संयुक्त राष्ट्र किन देशों के प्रभाव में कार्य करता है। इन देशों को चीन के अलावा अपने व्यापारिक हितों की पूर्ति के लिए एक नया स्थान चाहिए और भारत इसके लिए सबसे मुफीद जगह है।

जिस तरह चीन विश्व राजनीति में दखल बढ़ा रहा है, साफ़ है पुरानी ताकतें उसे कुछ थामना जरूर चाहती हैं।ऐसा उसके विश्व व्यापार को प्रभावित करके किया जा सकता है और इस काम में उनका साथ देने के लिए भारत की नयी सरकार ने लाल कालीन बिछा रखा है। ऐसे में इस तरह के एक दो झुनझुने थमाने से उनका कुछ जायेगा नहीं और हम अपने मुंह मियां मिट्ठू बन लेंगे।

वैसे भी किसी धनवान को असल से ज्यादा सूद प्यारा होता है ऐसे में बस वो नए निवेश के रास्ते तलाशता रहता है ताकि सूद आता रहे।  तो ऐसे ही देसी और वैश्विक धनवानों को फायदा पहुँचाने के लिए इस तरह के आयोजन होते रहते हैं। 

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

मेरे सपनों का 'आप'राध

मैं अपराधी नहीं हूँ लेकिन आजकल लोग मुझे 'आप'राधी जरुर कहने लगे हैं। अब कुछ दिन पहले ही की बात है मैं सपने में अरविन्द  से मिला और कुछ प्रश्न किये जैसे कि क्या आप वाकई इतने ईमानदार हैं कि वजन तोलने की मशीन पर भी बिना कपड़ो के खड़े होते हैं ताकि वजन में कोई गड़बड़ी न हो या इतने धरनेबाज कि आपकी पत्नी आपके लिए खाना भी नहीं बनाती क्योंकि उन्हें डर होता है कि कंही खाना ख़राब बना तो आप घर में ही धरना देने बैठ जायेंगे (ये बातें मैं नहीं पूछ रहा ये तो दिल्ली और देश की जनता पूछ रही है मैसेज,मेल और सोशल मीडिया पर ) तो मुझ पर तुरंत आरोप लगा दिया गया कि आपको चायवालों ने भेजा है और आप 'आप' पर प्रश्न करके बहुत गम्भीर 'आप'राध कर रहे हैं।

 तभी अरविन्द मेरे खिलाफ धरना देने मेरे बेड के बगल में ही बैठ गए और और हाय हाय करके मेरा इस्तीफ़ा मांगने लगे। अब मैं तो कुछ काम धंधा करता नहीं यूँही बस कुछ सपने देखता हूँ उसी आम आदमी की तरह जिसकी बात अरविन्द करते हैं तो अब मैं क्या इस आम आदमी के पद से भी इस्तीफ़ा दे दूं।

साभार-www.mysay.in

 अरविन्द अनशन कर ही रहे थे कि मेरे सपने में सुबह-सुबह एक चायवाला चला आया और कहने लगा कि लो इसे भूल जाओ और ये हमारी विकासपरक चाय नारंगी कप में पियो (हालाँकि उसके सारे बर्तन और कपडे भगवा थे लेकिन नारंगी ही मुझे लगे क्यूंकि सुबह-सुबह नींद में आँखे सर्दियों में कहाँ पूरी खुलती हैं )। अब मैं न चाय पियूं न कॉफी तो मुझे क्यूँ उसकी परवाह रही तो सुबह-सुबह मैंने उसकी भी बाईट लेना चाही जैसे मीडिया हर मिनट की अरविन्द की अप्डेट देता है। मैंने  उससे भी पूछ लिया कि ये बताइये कि आपने ऐसे कौन से कर्म किये कि आप चाय वाले से प्रधानमंत्री तक बनने वाले हैं वरना इस देश में तो चायवाला नुक्कड़ से आगे जा ही नहीं पाता। फिर एक और बात कि चाय के धंधे में ऐसी भी क्या कमाई कम थी जो यहाँ चले आये क्यूंकि यहाँ तो ईमानदार कमा ही नहीं पाते। अब चाय वाला मोदी था और मैं समझ नहीं पा रहा था कि गुजरात में मोदी दलित कैसे हो गए या फिर यह भी सरकारी गलती है ठीक वैसी ही जैसी राखी बिडलान के बिड़ला होने में हुई तो उनका वीपी सिंह बढ़ गया और पीछे नारंगी टोपी में खड़ा उनका डॉक्टर मेरे पीछे पिल पड़ा कि आप, 'आप' की तरह प्रश्न पूछकर बहुत बड़ा 'आप'राध कर रहे हैं।
साभार-श्रेयस नवारे

 अब मैं ठगा सा रह गया कि ये भी 'आप'राध है, तो अपराध क्या है ? ये बातें चल ही रही थी कि अंगूठा चूसते हुए,चश्मा लगाये एक लड़का अपनी माँ के पीछे से मेरे सपने में झाँक रहा था। मैंने आवाज देकर उसे आगे बुलाया लेकिन उसने पहले माँ को आगे भेज दिया मैंने कहा अब तो मैं मारा गया क्योंकि माताजी की तो सबको सुननी पड़ती है वो किसी की नहीं सुनती। मैंने  उस बच्चे को पास बुलाया और प्यार से पूछा कि क्या चाहिए इतनी सुबह-सुबह तो वो बड़े मिमियाते हुए बोला कि इन दोनों ने हमारी टोपी चुरा ली और अपने-अपने हिसाब से इस्तेमाल कर रहे हैं। इनमे से एक ने तो मेरी कविता का शीर्षक भी चुरा लिया अब मैं कहां कॉपीराइट की शिकायत करूँ।

 तो मैंने भी कहा बेटा तुम्हारी माँ तो हर फैसला करती है तो उसी से शिकायत कर दो। फिर वैसे भी उस कविता का तुम क्या करते क्योंकि जब तक वो तुम्हारे पास थी तुम उसे ये भरोसा ही नहीं दिला पाये कि तुम इस कविता को कंही प्रकाशित भी करा सकते हो। लोगों को लगा कि चोरी की होगी इसीलिए डर रहा है तो अब अंततः किसी ने चुरा ही ली, और वैसे भी ये मेरा सपना है तुम्हारी माँ वाला तो है नहीं कि सरकार बदलते ही मेट्रो से एयरपोर्ट तक सब गायब हो जाये। बस फिर उसने दहाड़ मारकर रोना शुरू किया और उसकी माँ मुझ पर बरसने लगी कि ये भी कोई तरीका है बच्चों से बात करने का और अगर आप ऐसा कर रहे हैं तो आप बाल 'आप'राधी हैं। 

 अब मेरे सबर ने भी सबर कर लिया कि मैं जो भी बात बोलूं मैं ही 'आप'राधी हो जाता हूँ बस फिर क्या था मैंने अपने बिस्तर के बगल से उतारकर चप्पल पहनी और चला सुबह-सुबह पाखाने की ओर इन सबको पीछे चिल्लाता छोड़कर। अब सुबह-सुबह मैं भी काम के काम न कर इनकी कामचोरी के किस्से सुन रहा था, तो पाखाने में इनका शोर बंद करने के लिए जैसे ही मैंने दरवाजा बंद किया मेरी नींद टूट गयी। फिर क्या था बस मुझे समझ में आ गया कि सारा 'आप'राध मेरे सपनों का ही था।

बुधवार, 8 जनवरी 2014

बदल रहे हैं हम

वैसे तो एक जनवरी भी साल के बाकी के आम दिनो की तरह ही एक आम दिन होता है, लेकिन फिर भी बदलते साल का कुछ रोमांच इसे दिलचस्प बना देता है। वैसे हम खुद लगातार बदलने की प्रक्रिया से गुजरते रहते हैं, कोशिश होती है कि बदलाव अपने में लायेंगे लेकिन साल बदल जाते हैं हम नहीं बदल पाते और वही पुराने ढर्रे पर चलते रहते हैं।
शपथ लेते हुए राखी बिड़ला (बिडलान)
खैर हम बदल रहे हैं ये नजर आने लगा है अगर बात राजनीति से शुरू की जाये तो दिल्ली में अरविंद के मुख्यमंत्री बनने से ज्यादा चौंकाने वाली बात ये रही कि युवा वर्ग की राजनीति में भागीदारी बढ़ रही है, अब युवा राजनीति को गटर नहीं समझ रहा। दूसरी तरफ जो युवा मोदीमय है उसे भी एक अन्य विकल्प नजर आ रहा है। इस बीच जो सबसे ज्यादा अचंभित करने वाली बात है वो है राखी बिडलान का मंत्री बनना। मात्र 26 साल की उम्र में किसी सरकार में मंत्री बनना वो भी बिना किसी राजनीतिक विरासत के इस देश कि राजनीति के बदलने की ओर संकेत करता है। भले ही अभी इन सभी के काम पर व्यापक चर्चा होनी बाकि है और इनके राजनीतिक तरीके पर भी, लेकिन जरा एक दशक या उससे थोड़ा और पहले भी नजर दौड़ाएं तो देश में ऐसा कोई उदहारण नहीं दिखता कि 26 की उम्र में कोई मंत्री बना हो।
एक बड़ा बदलाव अबकी से मुझे पाने प्रधानमंत्री में भी नजर आया कि वो अब राजनीतिक प्रश्नो से बचते नहीं हैं बल्कि उनका जवाब देते हैं जिसकी बानगी इस बार की उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस में आप देख सकते थे। अब ये तो भगवान का कसूर है कि वो कितने भी दमदार हो जाएँ लेकिन नजर ही बेचारे आते हैं। अब इसके लिए कोई भगवान में बदलाव लाये तो मुनासिब है।
हाँ भगवान ने जरुर अब लोगों के घरों तक पहुँचने का अपना टाइम बदल लिया है। पहले टीवी पर वो सुबह-सुबह दर्शन देने आते थे वो भी अक्सर शनिवार और रविवार के दिन लेकिन अब वो भी वीकेंड मानते हैं और शनि-रवि को टीवी से गायब रहते हैं भाई आखिर उनकी भी तो इच्छाएं हैं क्या बदलते दौर में उनका मन नहीं होता होगा कि वो भी न्यू इयर ईव पर पार्टी मनाने जाएँ। समय भी उनका बदल चुका अब तो वो रात को आते हैं प्राइम टाइम पर आत 8 बजे से।
वैसे अब उबके दर्शन करने वाले लोगों में भी बदलाव आया है अब वे  टीवी के सामने रोली-चावल लेकर नहीं बैठते, न ही उन्हें इन सीरियलों के सास-बहू टाइप सीरियलों में बदलते जाने से चिड़ होती है और उन्हें अब जल्द ही इससे भी गुरेज नहीं होगा कि उनके भगवान संस्कृत क्यों नहीं बोलते, उनके लिए तो अच्छा है कि भगवान भी हाईटेक होते जा रहे हैं तभी तो विजुअल इफेक्ट्स के साथ आजकल भगवान साउथ के सुपरस्टार से कम नहीं लगते। इतना ही नहीं दर्शकों को अब धारावाहिकों में भगवान को लेकर दिखाए जा रहे तथ्यों की भी परवाह नहीं, तभी तो मूल शास्त्रों से तमाम असंगतियां होने के बाबजूद भी लोग इसे स्वीकार कर रहे हैं। वरना जोधा अकबर के नाम पर मचा बवाल तो  आप जानते ही हैं वंही अब सीरियल आ रहा है इसी नाम से तो कोई बवाल नहीं। तो लोग थोड़े ही सही धार्मिक रूप से उदार तो हुए हैं।
वैसे एक बदलाव अब मैं अपने घर में भी देखने लगा हूँ मेरी दादी कि उम्र यही कोई 82 के आस-पास होगी जब एक साल पहले उन्हें हमने मोबाइल दिलाया था तो वो उससे बेहद अनजान थी और वैसे भी 80 की उम्र में कौन इस सरदर्दी को पालना चाहता है लेकिन उनकी जिजीविषा और तकनीक के बढ़ते प्रभाव ने उन्हें मोबाइल पर सिर्फ कॉल उठाने तक सीमित नहीं रखा बल्कि खुद से कॉल लगाने में भी दुरुस्त बना दिया है।

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

मेरा मोदी बिहार नहीं जीत पाया

 आजकल जब हर तरफ मोदी की लहर चली हुई है तो स्मार्टफोन की दुनिया उससे क्यों अछूती रहती। यूँ तो मोदी रन नाम का गेम काफी दिनों से एंड्राइड फोन्स के लिए गूगल प्ले स्टोर पर मौजूद है लेकिन मेरा परिचय इससे कुछ दिन पहले ही हुआ। 
बिहार में अटका मेरा मोदी

 मन न होते हुए भी थोडा खेला तो मेरे मोदी को गुजरात पार करना कुछ खास मुश्किल नहीं पड़ा। लेकिन खेलते-खेलते मैं बिहार जाकर अटक गया हूँ, कई बार कोशिश की है लेकिन समझ नहीं आ रहा कि अपने मोदी को बिहार से बाहर कैसे निकालूं। अब दुविधा यह है कि अगर उन्हें बिहार में जीत न दिला पाया तो उन्हें लेकर उत्तर प्रदेश में कैसे घुसुंगा, फिर यह कहावत यूँही थोड़े कहे जाती है कि प्रधानमंत्री बनना है तो यूपी होकर ही जाना पड़ेगा। मुश्किल ये है कि अगर मेरा मोदी बिहार न जीत सका तो यूपी कैसे जीतेगा?

 अगर बात हकीकत के खेल की भी की जाये तो मोदी के लिए नीतीश बिहार में एक अच्छी दीवार बनकर खड़े हैं ऐसे में वो यूपी तक पहुँच पाएँगे या नहीं इस पर संशय बना हुआ ही है। कल पांच राज्यों के चुनाव का नतीजा आ रहा है और एग्जिट पोल मोदी फैक्टर के पक्ष में खड़ा है लेकिन हकीकत में क्या होता है यह कल के बाद ही पता चलेगा।

 परन्तु बिहार और यूपी में तो अभी विधानसभा चुनाव भी नहीं होने हैं, तो मोदी फैक्टर वहाँ क्या रंग लाएगा देखना होगा और वहाँ स्थापित सरकारें अपने वोटर को इतने आसानी से हिलने थोड़े ही देंगी। वैसे भी मोदी के गुरु माने जाने वाले आडवाणी को बिहार ने ही उनका स्थान उन्हें दिखाया था। इस हकीकत की दुनिया को देखकर मुझे अपने मोबाइल वाले मोदी की परेशानी धीरे-धीरे समझ आ रही है। 

 अब बेचारा मेरा मोदी करे भी क्या उसे बिहार से पार लगाने वाला मैं (वोटर) भी उसे पार नहीं करा पा रहा हूँ तो वो कैसे जायेगा यूपी। देखते हैं अगले कुछ दिनों में क्या होता है क्या मेरा मोदी बिहार जीतकर यूपी में घुस पाता है या बिहार में ही लम्बे समय तक संघर्ष करता रहता है!

सोमवार, 25 नवंबर 2013

इरादे कितने लोहा हैं ?

 भाई अभी तक तो हम सरदार पटेल को ही लौह पुरुष समझा करते थे लेकिन फिजा का रुख बदल रहा है।  वैसे भी यूपी में राहुल का जादू फेल होने और नरेंद्र मोदी के सीढ़ी चढ़ने के कारण मुलायम चाचा को आजकल नींद नहीं आ रही। बेटे के हाथ में सत्ता सौँप के सोच रहे थे कि कुछ दिन आराम करेंगे और अब प्रधानमंत्री बनकर ही दम लेंगे। पर क्या करें कहा जाता है न कि सर मुंडाते ही ओले पड़े। तो पिछले 18 महीनों के अखिलेश के शासन में लैपटॉप के अलावा कुछ भी ठीक से नहीं चला। इतने दंगे हो गए कि पता ही नहीं चल रहा कि कहाँ वाला सुलझाया जाये और कहाँ वाले को चुनाव तक और भड़काया जाये।

 लेकिन कुछ भी कहिये अखिलेश कम से कम पार्टी की कुछ नीतियां बदलने में तो कामयाब जरुर रहे हैं और अब वो भी अपनी पार्टी को दबा-कुचला नहीं रहने देना चाहते।जिसका प्रमाण हाल ही में मुलायम के जन्मदिन के दौरान पार्टी की तरफ से प्रकाशित कराये गए विज्ञापनो में भी दिखा। इससे पहले लैपटॉप वितरण के दौरान जो समाजवादी पार्टी अंग्रेजी के नाम से चिड़ा करती थी उसने देश के सभी अंग्रेजी दैनिकों में अंग्रेजी में इस योजना के शुभारम्भ के विज्ञापन प्रकाशित करवाये थे। और अपने लाल-हरे रंग को कॉरपोरट का कलर बनाने का प्रयास किया था।

 आप माने या न माने लेकिन अखिलेश ने समाजवादी पार्टी के विमर्श का आंशिक कॉरपोरेटीकरण तो किया ही है। तभी तो बिलकुल प्रोफेशनल तरीके की प्रेस रिलेशन कम्पनी से पार्टी के प्रचार-प्रसार का करवाया जा रहा है। इसकी बानगी अगर देखनी हो तो इस बार दिल्ली में चल रहे ट्रेड फेयर के यूपी के मंडप के बाहर का नजारा भी इसी रंग में देखने लायक है और अंदर घुसते ही आपको कभी समाजवाद की पहचान रहे लाल-हरे रंग के मौजूदा कॉरपोरट में होते बदलाव से भी हो जायेगा।
नवभारत के लखनऊ अंक में छपा विज्ञापन 

 जरा एक नजर खुद ही इस पोस्टर पर डालिये जो हाल ही में मुलायम के जन्मदिन पर देखेने को मिला।

 खासबात यह रही कि इसका प्रकाशन भी एक दम प्रोफेशनल तरीके से किया गया.…लगभग हर अख़बार के फ्रंट पर इसका एक टीजर और अंदर के पेज पर पूरा पोस्टर छापा गया।

 गौर से अगर देखें तो इस पोस्टर का आकलन करने पर पता चलेगा कि कंही न कंही अब समाजवादी पार्टी के विमर्श में सिर्फ यूपी नहीं रहा है बल्कि पोस्टर के पार्श्व में देखें तो इनकी नजर सम्पूर्ण भारत पर है। चलिए देखते हैं कि क्या होता है इन चुनावों में ? क्या मुलायम भी पीएम इन वेटिंग हैं ? वाकई देखने वाली बात होगी कि भारत के प्रति इनके इरादे कितने लोहा हैं?

रविवार, 29 सितंबर 2013

खाऊ देश के लोगों के खाने का जुगाड़

 हम लोग खाने वाले लोग हैं और इसी वजह से ही हमारी सरकार, जनता सब दिन-रात खाने की ही सोचते रहते हैं।कई बार हम से कुछ लोग इतना खा लेते हैं कि जरुरतमंदों तक खाना नहीं पहुँच पाता और इससे फिर सरकार को उनके खाने की भी चिंता होती है। अब देखो न सरकार ने हमारे देश की सत्तर प्रतिशत जनता के खाने का जुगाड़ किया है। अध्यादेश तो सरकार ले आई लेकिन वास्तव में ये किसके खाने का प्रबंध है ये जानना बाकी है।
कृष्ण-सुदामा
 श्रीकृष्ण वाले इस प्रसंग की विभिन्न व्याख्याएं हो सकती हैं लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह परंपरा हमारे लिए और सरकार के लिए एक विकराल समस्या का रूप लेती जा रही है और आने वाले समय में यह और भी घातक हो जाएगी। खैर अब बात करते हैं की इस अध्यादेश से किसके खाने का प्रबंध होगा ? खाऊ देश के लोगों के खाने का जुगाड़ है यह बिल। सरकार को कम से कम चिंता तो है कि गरीबों के पेट में खाना पहुंचे लेकिन ये तो सभी जानते हैं कि खाना जनता के पास थोड़े ही पहुंचेगा बल्कि हम आदत से बेइमान लोगों के बीच से गए अधिकारिओं, नेताओं और पता नहीं किन-किन दलालों और राशन की दुकानों वालों के पास पहुंचेगा। तभी तो सरकार ने सोचा कि क्यूँ न गरीबों को इसके पैसे ही दे दिए जाएँ और वो खुद ही बाज़ार से सामान खरीद के खा ले, लेकिन हम ठहरे आदत से मजबूर हैं जिस काम के लिए बोल जाये उसे कैसे कर सकते हैं हम उसे छोड़ के सब करते हैं तो फिर खाने के पैसे हम भारतीय दारु और जुए में नहीं खर्च करेंगे इसकी गारंटी कैसे दे सकते हैं ?
साभार-सतीश जी

 गरीबों को जो काम हमने दिया वो कुछ समय बाद उन्हें बेकार और बेगार दोनों का ही मरीज बना देगा। हमने उन्हें कुछ सिखाने का काम थोड़े ही किया और हमने इस व्यवस्था को कायम कर उनके अन्दर की प्रतियोगिता की भावना को भी ख़त्म किया और अब खाना देकर हम उन्हें नाकारा बनाने का भी जुगाड़ करने जा रहे हैं और कुछ लोगों के खाऊ होने की आदत को हम इतना बढ़ावा दिए जा रहे हैं कि आने वाले दिनों में उनको होने वाले मोटापे और उससे होने वाली बीमारियों के इलाज़ का जुगाड़ करने की भी जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी।

 क्या यह अच्छा नहीं होता कि हम उन्हें काम देते और नए काम करने के काबिल बनाते और उन्हें इज्जत से रहना सिखाते ताकि भविष्य में किसी भी स्थिति में वो जी सकें। क्यूंकि ये खाना जो उनके लिए जुटाया जा रहा है इस व्यवस्था में तो उन्हें नसीब होने से रहा। 
 लेकिन अब क्या करें हमें अपने कुछ बड़े लोगों के खाने का जुगाड़ तो करना ही था नहीं तो वो बेचारे और भुखमरी से मर जाते। अध्यादेश तो सब के खाने के लिए है लेकिन देखते हैं कि कौन-कौन सी मछली को दाना नसीब होता है क्यूंकि वो कहावत है न कि दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम।

 हम लोग वैसे भी गरीबों को काम तो देते नहीं हाँ खाना जरुर दे देते हैं। वैसे इस बात के लिए मैं पूरी तरह श्रीकृष्ण को दोषी मानता हूँ, आखिर जब सुदामा उनके पास कुछ अपेक्षा लेकर आया था तो मित्र के नाते उन्होंने उसे काम क्यों नहीं दिया बल्कि मुफ्त में सब सुख-सुविधाएँ उसे देकर सम्पूर्ण भारत के आने वाली पीढ़ियों के लिए गलत परंपरा का प्रतिपादन किया। अगर वो उसे काम देते तो कम से वो अपने और अपने परिवार के लिए कुछ सार्थक कार्य करते और नवीन संभावनाओं का निर्माण होता किन्तु ऐसा नहीं हुआ और हमारे बीज में ही भीख मांगना, खाना देना जैसी परंपरा का विकास हुआ जिस वजह से हमने अपने लोगों को एक लम्बे समय में कामचोर बनाने को प्रशिक्षित किया।

 और बेचारे हमारे अधिकारी, राशन वाले, नेता और दलाल सब इस व्यवस्था के धनात्मक शिकार हैं तभी तो वो इतना माल गटक के भी डकार नहीं लेते। इसमें तो उनके नाम गिनीज बुक रिकॉर्ड है "द वर्ल्ड मोस्ट कलेक्टिव ईटिंग रिकॉर्ड"। खाऊ लोगों के पास इसका तो हक बनता ही है और वैसे भी हमारे खाने की आदत से तो अमेरिका का राष्ट्रपति भी परेशान है।

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

एक कल्कि अवतार ये भी!

इन्सान या कल्कि अवतार
 मैं तो सबसे ज्यादा उनको लेकर उनके समर्थकों द्वारा किये जाने वाले दावों से खौफ खा जाता हूँ। अभी मोदीजी के हैदराबाद की रैली के बाद की ही बात है मेरे फेसबुक के खाते पर मैंने अपने एक मित्र की उनके सम्बन्ध में एक पोस्ट देखी तो मैं तो बेहोश होते-होते बचा, उसके कुछ अंश मैं यहाँ आपके साथ साझा करना चाहूँगा-

मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने से विश्व में क्या-क्या बदल जायेगा- 
दरणीय  मोदी जी की एक बात का मैं कायल हूँ, जब वो कहते हैं कि आप मेरे खिलाफ हो सकते हैं या मेरे साथ लेकिन आप मुझे नजरंदाज नहीं कर सकते। बात भी ठीक है अब उनके द्वारा कभी न कभी ऐसा कुछ कह दिया ही जाता है कि उसके पक्ष-विपक्ष में से कोई एक रास्ता चुनना ही पड़ता है, उसे नजरंदाज तो नहीं किया जा सकता। पहले तो अमेरिका की अर्थव्यवस्था डूब जाएगी क्यूंकि भारत तब न तो अमेरिका से हथियार खरीदेगा और न ही उसकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का सामान भारत में बिक सकेगा क्यूंकि मोदी जी स्वदेशी को बढ़ावा देंगे। दूसरा चीन भी बर्बादी के मुहाने पर खड़ा होगा क्यूंकि उसका 40% व्यापार खत्म जायेगा जो चीन अपने माल को भारत में डंप करके करता है इसका भी कारण आदरणीय मोदीजी द्वारा स्वदेशी भारतीय व्यापारिक तंत्र को मजबूत करना होगा यही नहीं उनके समर्थक पाकिस्तान को लेकर जो विचार रखते हैं उसके उदाहरण की आवश्यकता नहीं है लेकिन अरब देशों को लेकर भी कहा जा रहा है कि उस मरुस्थल में अभी और सूखा पड़ेगा क्यूंकि भारत अपना तेल आयात भी न्यूनतम स्तर पर ले आएगा और मोदीजी नवीकरणीय ऊर्जा को प्रमुख स्थान देंगे।

 जब हम इन दावों की पड़ताल करते हैं तो लगता है कि सब खोखला है और अगर ऐसे ही खोखले दावे करने वाले समर्थकों के दम पर अगर कोई ऐसा व्यक्ति प्रधानमत्री बन भी जाये जिससे जनता इतनी उम्मीदें बांध ले कि वो उसके बोझ तले ही दब जाये और खुलकर कोई फैसला भी न ले पाए तो उसका आने वाला भविष्य कितना अंधकारमय होगा। क्या भाजपा को इन भ्रांतियों पर रोक लगाने की आवश्यकता नहीं है क्यूंकि अगर जनता ने इतनी उम्मीद से उसे चुन भी लिया तो खरे न उतर पाने के बाद उसका क्या हाल होगा।

 अब जरा इन दावों पर गौर करे अगर मोदी जी को अमेरिका से इतनी नफरत ही होती या पश्चिमी देशों को उन्हें रुलाना ही होता तो क्यों वो हर साल वाईब्रेंट गुजरात जैसी गोष्ठी करते ताकि उनके यहाँ निवेश बढे। हम सभी बहुत अच्छे से जानते हैं कि आदरणीय मोदीजी नीतिओं में पूरी तरह पश्चिमी मॉडल को ही अपनाते हैं तो फिर उससे दुश्वारी क्यूँ होगी तो उनके समर्थकों को भी यह ध्यान रखना होगा। फिर उनको अमेरिकी वीजा दिलाने के लिए भी तो भाजपा लायलित है।


 हमें इस बात पर भी तो गौर फरमाना होगा कि यदि अरब देशों से आयात बंद हो गया तो अंबानी की जामनगर रिफाईनरी का क्या होगा। क्या मोदी उनको नुकसान में जाने के लिए कहेंगे जबकि वो तो गुजराती हैं । और माने या ना माने उनके अनुसार भारत की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था का रूख बदलता है। 

इस बात पर थोडा गहन विचार करें तो हमे यह भी सोचना होगा कि किस तरह की सत्ता हम अब चलाना चाहते हैं जो सब कुछ तबाह और खत्म करने पर उतर आये।


 इससे तो हम भारत की सहिष्णु, शांतिप्रिय, गुटनिरपेक्ष और विश्व के साथ सहअस्तित्व वाली उदार छवि का ही सर्वनाश कर देंगे। अगर मोदी इतने की विध्वंसकारी हैं तो क्या हक है उन्हें और उनके समर्थकों को कि सरदार पटेल के नाम को इस्तेमाल करते हुए स्टेचू ऑफ यूनिटी बनायें । क्यूंकि उनके आने के बाद तो सब अलग-थलग होने का डर है। अतः मेरा विनम्र अनुरोध है आदरणीय मोदीजी से कि हम उन्हें नजरंदाज करना शुरू कर दें उससे बेहतर है कि वो इस तरह की भ्रांतियों को खुद से स्पष्ट करते हुए दूर करें क्यूंकि उनके समर्थक तो उन्हें भगवान विष्णु का कल्कि अवतार साबित करने में लगे हैं जिसका जन्म कलयुग का अंत करने को हुआ हो।

सोमवार, 15 नवंबर 2010

"युवराज" का "रिअलिटी शो"

देश के "युवराज" राहुल गांधी
 पिछले दिनों एक बड़ी दुर्घटना से मेरा परिचय हुआ, अब जो बात कहने जा रहा हूँ उसे लेकर घटना या दुर्घटना की बहस में न ही पड़ा जाये अन्यथा पाठक के घायल होने का दारोमदार भी मेरे ऊपर ही आ जायेगा!

 हाँ तो मुद्दा है अपने देश के इकलौते "युवराज" की तथाकथित "जनरल" की यात्रा का,अब इसे सेना का "जनरल" कतई न समझे वो तो आजकल खुद आदर्श की तलाश में हैं| खबर इतनी चौकाने वाली थी कि  मेरे तो दिमाग के परखच्चे ही उड़ गए..ठीक है "युवराज" हैं तो उन्हें सारे अधिकार हैं, वे कभी भी ,कुछ भी,कँही भी, कैसे भी कर सकते हैं,प्रजा का दुःख हो या उनके तीमारदारों का उन्हें किसकी परवाह है|


  वैसे इस खबर ने मुझे अचानक तपस्या से नहीं जगाया क्यूँकि "युवराज" इससे पहले भी कई शिगुफे छोड़ते रहे हैं फिर चाहे वो खाली तसला भरा श्रमदान ही क्यों न हो|

 हाँ,तो प्रश्न घूम फिर कर वँही आ गया कि आश्चर्य कहाँ से उत्पन्न हुआ, आश्चर्य की सीमा का उल्लंघन तो तब हो गया जब सारे खबरिया चैनलों ने प्रचार का हल्ला बोल दिया कि यह अनियोजित और अचानक घटी दुर्घटना है,इसकी खबर कानोकान "दीदी" तक के घर नहीं पहुँची| तब मुझे अनायास ही याद आया कि अरे ये उस देश की ही दुर्घटना है जहाँ का प्रधानमंत्री साँस लेने से पहले भी "राजमाता" से स्वीकृति लेता है या उस देश की बात है जहाँ पर हर "रिअलिटी शो" तक पूर्वनियोजित व पूर्वलिखित होते हैं तो क्या ये मुमकिन है कि ये  कहानी "प्री-स्क्रिप्टेड" नहीं होगी?  खैर एक बात और थी जिसने अचंभित किया वो ये कि आखिर "राजमाता" ने अपना "पुत्रमोह" छोड़ा कैसे होगा जबकि उन्हें अपने ही इतिहास से अनुमान है और फिर अंतत: देश कि बागडोर संभालनी तो "युवराज" को ही है|

 पर असली वजह तो कुछ और है अब इस देश के "युवराज" को ऐसा करना क्यों पड़ा तो साफ सी बात है कि जब देश के प्रधानमंत्री कह रहे हों कि हम 8 % कि दर से बढ रहे हैं वो दीगर है कि फिर चाहे वो गरीबी हो,भुखमरी हो या जनसँख्या सबके आंकड़े आस-पास ही नज़र आयेंगे तो यह मुमकिन है कि अब से सारे वीआईपी "जनरल" में और सारे किसान "ऐरोप्लेन" में सफ़र करें| वैसे भी मोहन ने तो साक्षात् अवतरित होकर घोषणा कर ही दी थी कि सारे खासमखास अब से अपने झोपड़े में रहे और पशुओं वाली यात्रा करें("राजमाता" के चहेते कि भाषा में)!!!

 तो भई विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में कुछ भी आश्चर्य नहीं और आपके "युवराज" साल में एक बार बहादुरी करतब नहीं दिखाते वो तो हर दिन कुछ नया "रिअलटी शो" लाते हैं कभी देशी तो कभी - कभी विदेशी!!!