Travel लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Travel लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 31 मई 2018

'समय' कुछ कहना चाहता है...

पुराने नगर का एक अलंकरण
 "मैं समय हूँ।" दूरदर्शन पर जब 'महाभारत' की कहानी सुनाने के लिए ये आवाज आती थी तो शायद उस 'समय' को खुद नहीं पता था कि उसे ऐसा भी एक वक़्त देखना होगा, जो बीते समय को ही हमारा दुर्भाग्य बता दे। किसी का भी अतीत उसके वर्तमान का आईना होता है, क्योंकि हमारे वर्तमान की मीनार उसी नींव पर खड़ी होती है।


 अभी जो समय है वो हमें बताने पे तुला है कि एक दौर में हम विश्वगुरु थे, लेकिन कब और कहाँ ये उसे भी नहीं पता। हालाँकि हो सकता है कि उस बात में सच्चाई हो, लेकिन इतिहास तथ्य पर चलता है। ऐसे में अगर एक प्रदर्शनी आपको अपने अतीत के करीब ले जाये, आपको उस समय में जीने का मौका दे और इतना ही नहीं आपको आपकी वैश्विक हैसियत से भी रूबरू कराये तो उससे बेहतर क्या हो सकता है ?

सिंधु सभ्यता से जुड़ा एक खिलौना
 पिछले हफ्ते जब दफ्तर से एक दिन की छुट्टी मिली तो मैं भी पहुँच गया इंडिया गेट के पास नेशनल म्यूजियम, जहाँ 'भारत और विश्व : नौ कहानियों में इतिहास' प्रदर्शनी लगी है। यहाँ न सिर्फ मुझे हिदुस्तान के 20 संग्रहालयों या टाटा ट्रस्ट जैसे कुछ निजी संग्रहों की वस्तुएं देखने को मिली, बल्कि लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम से आयी कई तरह की ऐतिहासिक वस्तुओं ने भी मेरा ध्यान खींचा।

 यह प्रदर्शनी दरअसल एक रास्ता है इतिहास के उन रोशन झरोखों में झांकने का, जो कभी हमारे पूर्वजों का वर्तमान हुआ करता था। यह वो गलियारा है जहाँ हम अपने और विश्च के साझा इतिहास में चहलकदमी कर सकते हैं। यह किसी को भी मानव सभ्यता के आदिकाल से सभ्य समाज तक आने की क्रमवार जानकारी तो देती ही है। साथ ही भारत के विश्व इतिहास से जुड़ाव और उसके आधुनिक राष्ट्र बनने तक के सफर से रूबरू कराती है।

मरियम
युद्ध के देवता
 जैसे ही मैंने प्रदर्शनी में प्रवेश किया मुझे ‘साझा शुरुआत’ खंड मिला। इसमें भारत में मिले आदिमानव काल के पत्थर के औजार और उसी जैसे अफ्रीका में मिले एक पत्थर के औजार के बीच तुलना करके देखी जा सकती है कि हमारी और उनकी विकास गाथा में हम कितना इतिहास साझा करते हैं। इसके आगे प्रदर्शनी में दुनियाभर में मिले बर्तनों की समानता दिखती है, जिसने मानव को खाने के भंडारण और उसमें विविधता लाने के लिए प्रेरणा दी।

सिकंदर महान की एक मूर्ति
 आगे बढ़ा तो मुझे ‘पहले शहर’ नाम का खंड मिला, यहाँ मैंने देखा कि कैसे उस शुरुआती समय में भी भारत के आम जनमानस ने सिंधु सभ्यता और उसके नगरों का निर्माण किया और कैसे लगभग उसी समय विकसित हुईं मेसोपोटामिया और मिस्र की सभ्यताएं हमें विश्व इतिहास में करीब लाती हैं। इसके बाद जब मैं आगे बढ़ा तो मेरा सामना ‘साम्राज्य’ खंड से हुआ। यह बताता है कि हम अकेले नहीं थे जिसने दुनिया में साम्राज्यों का दौर देखा। जहां भारत के मौर्य साम्राज्य की झलक यहाँ देखी जा सकती है, वहीं चीन और मिस्र के साम्राज्यों का इतिहास भी यहाँ दिखता है।

इस्लामी कला का एक नमूना 
 इस खंड में विभिन्न साम्राज्यों के सिक्के भी रखे गए हैं जो बताते हैं कि कैसे साम्राज्य अपनी मान्यता के लिए सिक्कों का प्रयोग करते थे। कैसे इन सिक्कों ने व्यक्ति पूजा को स्थापित किया। जब सिक्के इस्लाम जगत में पहुंचते हैं तो कैसे व्यक्ति और राज्य के गुणगान का स्थान कुरान की आयतें सिक्कों पर ले लेती हैं। चीन के सिक्के भी इस खंड में हैं। इन सिक्कों के बीच में छेद है जिसकी वजह इन सिक्कों को रस्सी में बांधकर रखे जाने के लिए सुविधाजनक बनाना था।

 सिक्कों से निकलकर धर्म और राज्य मूर्ति विधा में कैसे पहुंचा और उसने साम्राज्य के वर्णन के साथ-साथ कला और चित्रकारी को नया रूप कैसे दिन इसकी जानकारी मुझे अगले खंड ‘चित्रित और मनोहारी वर्णन’ में मिली। इस खंड में ब्रिटिश म्यूजियम से लायी गई कई कलाकृतियां ऐसी थी जिसने मेरा मन मोहा। मां मरियम, यीशू मसीह के अलावा कबीलाई ईश्वर, युद्ध के देवता और काष्ठ की बनी कई मूर्तियों के साथ कपड़े पर उकेरी गई इस्लामिक चित्रकारी ने  इतिहास के खूबसूरत पहलू की जानकारी करायी। आगे ‘भारतीय समुद्र व्यापार’ खंड में भारत के विश्व के साथ होने वाले समुद्री व्यापार की झलक देखने को मिली। यह खंड दिखाता है कि कैसे व्यापारिक आदान-प्रदान ने हमारी संस्कृति को प्रभावित किया।
राणा संग्राम की ढाल

रोमन शैली की काली मिर्च की डिब्बी
 यहां ब्रिटिश संग्रहालय से आयी एक 300 से 400 ईसवी की एक पुरानी काली मिर्च छिड़कने की डिब्बी ने मुझे सोचने पर मजबूर किया कि मानव सभ्यता में हमारा वर्तमान कितना कलाहीन होता जा रहा है। उस समय में मानव ने कैसे इतनी मामूली वस्तुओं में भी कला को इतना निखरा रुप दिया। यह कहीं ना कहीं वर्तमान में हमारे कलाबोध के ह्रास को दिखाती है। 

अकबर की युद्ध पोशाक
 इससे आगे  ‘दरबारी संस्कृति’ खंड में मुझे मुगल दरबार की शानोशौकत दिखी। इसमें अकबर की युद्ध पोशाक और तलवार के साथ राजपूतों के शौर्य को दर्शाती कला से परिपूर्ण राणा संग्राम सिंह की एक ढाल ने थोड़ी देर मुझे वंही खड़े रखा। इस ढाल पर उनकी कई लड़ाइयों की चित्रकारी की गयी है। इतना ही नहीं इस खंड में मैंने ईसाई संस्कृति के राजसी प्रतीक भी देखे।

 इसके बाद ‘आजादी के जुनून’ में भारत की आजादी की लड़ाई के कई पहलू और अंत में ‘असीमित काल’ खंड में वर्तमान में जारी युद्धक सोच और उससे समाज पर पड़ते प्रभाव यहाँ बहुत अच्छे से दिखाया गया है।



 कुल मिलाकर इसे एक बार जरूर देखा जा सकता है। अभी तो यह 30 जून तक यहाँ लगी है, तो देख लीजिये, क्योंकि वर्तमान में जब हम इतिहास का कुछ बिखरा कुछ धुंधला स्वरूप देख रहे हैं तो इस तरह की प्रदर्शनियां उसे एक नयी रोशनी देती हैं।

 साथ एक वीडियो भी साझा कर रहा हूँ...



गुरुवार, 24 मई 2018

ये है बनारसी ब्रेड पकौड़ा...


 ज हम बनारस की तरफ चलते हैं थोड़ा, वैसे भी इतनी गर्मी में गंगा के तीरे ही थोड़ी राहत की उम्मीद है। यूँ तो बनारस को वाराणसी और काशी भी कहा जाता है लेकिन पता नहीं मुझे क्यों को इसे बनारस कहना ही पसंद है। मैं चाहकर भी इसे किसी और नाम से नहीं बुला पाता।

 मैं बनारस पहले भी जा चुका हूँ। सारनाथ देखा, जैन मंदिर देखे, घाट देखे और गंगा आरती का भी आनंद लिया। अस्सी घाट पर कुल्हड़ में चाय की चुस्की हो या गदौलिया पर ठंडाई का मज़ा, ये सब बनारस के अपने रंग हैं। मैंने सुबह-ए-बनारस में राग भी सुने हैं, तो गंगा मैया के साथ नाव की सैर करते-करते शाम-ए-अवध सा आनंद भी बनारस में लिया है।

 लेकिन इस बार की यात्रा थोड़ी अलग रही। नवंबर में मैं बनारस गया तो ऑफिस के काम से ही था। लेकिन जिस जिस कार्यक्रम में शामिल होने गया था वो कबीर से जुड़ा था। इसलिए इसका अनुभव बाकी यात्राओं से अलग रहा। कबीर से जुड़े कई पहलुओं को जानने का मौका मिला, तो वंही जुलाहा समुदाय के साथ बातचीत भी की, जो उस समय भी नोटबंदी की मार झेल रहा था।

 उस समय हमारी सुबह छह बजे दरभंगा घाट पर प्रभात के राग और गंगा पर सूर्योदय के नज़ारे से शुरू होती थी। खैर ये बात इसलिए नहीं शुरू की थी।

 तो बात यह कि जब भी बनारस की बात होती है तो वहां के खाने की भी बात होती है। फिर वो चाहे विश्वनाथ मंदिर के पास काशी की चाट हो या गोदौलिया चौक की कुल्हड़ वाली लस्सी। इन सबके बारे में बहुत कहा गया, लिखा गया। हिंदी साहित्य की कई रचनाएँ इन सबके इर्द-गिर्द बुनी गयीं। अस्सी घाट की अड़ी की दास्तान बताने वाला "काशी का अस्सी" जैसा उपन्यास तो पूरे हिंदुस्तान की राजनीति और राम मंदिर आंदोलन की कलई खोल देता है।

 इतना ही नहीं गली ठठेरान की कचौड़ियों के भी अपने चर्चे हैं और रंगीली के मलाई पान और लाल पेड़ा के भी कई किस्से सुनने को मिल जातें हैं। लेकिन इस बार मेरा परिचय एक नए तरह के नाश्ते से हुआ।

 आम तौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार के इलाकों में ब्रेड पकौड़ा वैसा नहीं होता, जैसा ये दिल्ली में दिखता है। उसकी एक बड़ी वजह उसका वहां पर समोसे का विकल्प नहीं होना है, क्योंकि समोसा वो है जिसमें आलू है और ब्रेड पकौड़े में आलू का क्या काम ये समझ से परे है वहां।

 तो आप जब बनारस में लहुराबीर चौक से तेलियाबाग चौक की तरफ बढ़ते हैं, तो आपको राजकीय क्वींस इंटर कॉलेज दिखाई देता है। बस इसी के ठीक सामने मुझे अबकी बार ब्रेड पकौड़े का एक नया रूप देखने को मिला।

 हमारा होटल वंही नज़दीक में था और मेरे साथ इस यात्रा पर इम्ति भाई भी थे। चार दिन की यात्रा में शुरू के दो दिन वो मुझसे कहते रहे कि आपको ब्रेड पकौड़ा और घुघनी खिलाना है। मैं बहुत असमंजस में कि ये कौन सी बला है ?

 कितना रोचक है ना कि देशज शब्दों से हमारे दूर होने के चलते हम आम बातों का भी अर्थ नहीं समझ पाते। अब बताइये भला कि जिस बात को मैं बला समझ रहा था दरअसल वो उबला हुआ देसी चना है जिसे घुघनी कहा जाता है।

 खैर, तीसरे दिन जब गए तो दुकान हमे बंद मिली, क्योंकि रविवार को कॉलेज बंद होता है इसलिए दुकान खुलती नहीं। तो अब क्या करें ? अंत में मुकर्रर हुआ कि कल सुबह में जल्दी उठकर इसका स्वाद जरूर लिया जायेगा। अब सोमवार के दिन मैं और इम्ति भाई सुबह कुल्हड़ की चाय पीकर निकल पड़े घुघनी और ब्रेड पकौड़ा खाने को।

 वाह क्या नज़ारा था, एक कढ़ाई में गर्म-गर्म पकौड़े छन रहे थे और दूसरी ओर एक भगौने में चने या घुघनी एक दम गर्म...लेकिन मैं अभी भी ठिठका क्योंकि पकौड़े तलने के दौरान जो बेसन की बूंदियां कढ़ाई में तैर रही थी उन्हें एक अलग थाल में जमा किया जा रहा था। मैं सोच रहा कि अब इसका क्या काम ?

 लेकिन देखिये जनाब, हमने जब दो प्लेट ब्रेड पकौड़ा माँगा तो यही बची हुई बूंदियां उसकी गार्निशिंग कर रही थीं। मतलब कुछ भी बर्बाद नहीं। बढ़िया से एक दोने में ब्रेड पकौड़े के छोटे-छोटे टुकड़े और उस पर गर्म-गर्म उबले चने के साथ चटनी, वाह अलग ही मज़ा। साथ ही नींबू के रस की बूंदों ने उस मज़े को दोगुना कर दिया। उस पर वो बची हुई करारी बूंदियां ऊपर से डाली गयीं तो चने से गल गए ब्रेड पकौड़े का दुःख भी जाता रहा।

 मतलब आप सोचिये सुबह-सुबह बेसन का फाइबर पेट में पहुंच गया और शरीर के लिए जरुरी थोड़ा सा तेल भी और साथ में चने का प्रोटीन अलग, साथ में दुकान पर जमा नए लोगों से बातचीत, दोस्तों के साथ चर्चा और साथ में अगर चाय भी पी ली जाए तो आनंद ही आनंद। इसके अलावा ब्रेड से पेट भी भर गया और गयी दोपहर तक के खाने की। अब 20 रुपये में सुबह-सुबह आपको क्या चाहिए।

 मुझे लगता है कि मोदीजी के पकौड़ानॉमिक्स को भी यहीं से प्रेरणा मिली होगी। 

बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

कितना कुछ है गोलगप्पों के पास...

 मेरे हिसाब से गोलगप्पों को भारतीय खानपान में सबसे ऊपर रखना चाहिए क्योंकि स्वाद की पूरी की पूरी संस्कृति का समागम है इनमें। आप जहाँ भी जाएं गोलगप्पों का स्वाद उसी देस के रूप रंग में ढल जाता है। तभी तो "क़्वीन" फिल्म में भी जब कंगना रनौत को भारतीय खाने से रूबरू कराने की चुनौती मिलती है तो वो पूरे जी-जान से गोलगप्पे ही बनाती हैं।

 गोलगप्पे इन्हें दिल्ली की भाषा में कहा जाता है, लेकिन भारत में इसे अलग-अलग जगहों पर गुपचुप, पानी के बताशे, पानी की टिकिया और फुचकु जैसे न जाने कितने नामों से जाना जाता है। कुछ लोग इसे खाते हैं तो कुछ इसे पीते हैं।

 वैसे ये होती आटे और सूजी से बनी पूरियां ही, बस इनका मिज़ाज़ थोड़ा कड़क होता है। पूरियां तो नरम पड़ जाती हैं लेकिन ये खट्टा या मीठा पानी भरने के बाद भी करकरी ही बनी रहती हैं। 

हज़रतगंज के अजय भाई
 मेरा ये निजी मत है कि किसी उत्तर भारतीय शहर के स्वाद का अंदाज़ वहां के गोलगप्पों से ही समझ आ जाता है। अभी हाल ही में मैं जब खजुराहो गया तो मैंने सबसे पहले गोलगप्पे ही खाये। वहां इनमें आम स्वाद भी नहीं था तो शहर में क्या ख़ाक अच्छा मिलने वाला था खाने को? हुआ भी यही वहां कुछ भी ऐसा नहीं मिला खाने को जो उस शहर की रंगत का एहसास कराए।

 यूँ तो मैंने कई शहरों के गोलगप्पे खाये हैं लेकिन लखनऊ के हज़रतगंज के गोलगप्पों का जो नवाबी अंदाज़ है वो अपने आप में स्मृति में रह जाने वाला है। सितंबर में मैं जब लखनऊ गया तो मोती महल का स्पेशल समोसा खाने के बाद भी मेरा मन गोलगप्पे में ही अटका था क्योंकि इनका स्वाद पहले भी एक-दो बार ले चुका था। थोड़ा बाजार की तरफ बढ़ा तो साहू सिनेमा के सामने अजय भाई मिल गए, और मेरी गोलगप्पे खाने की तम्मना पूरी हो गयी।

मोती महल का स्पेशल समोसा


 लखनऊ के गोलगप्पों की खास बात उनमें भरा जाने वाला चटपटा पानी है। आम तौर पर दूसरे शहरों में गोलगप्पों के साथ खट्टा और मीठा पानी ही मिलता है लेकिन लखनऊ में आपको इसकी पांच से छह किस्में मिल जाएंगी। इसमें भी खास है इसे खिलाए जाने का क्रम। आप अपनी सुविधा के हिसाब से तीखे से शुरू कर मधुर या मधुर से तीखे स्वाद की तरफ रूबरू हो सकते हैं।

 अब ये ज़ायका इतना इंतिख़ाबीपन तो लिए होगा ही, नवाबों के शौक से जो पला है ये शहर। फिर अवध का क्षेत्र है तो "जी की रही भावना जैसे, प्रभु मूरत देखी वो वैसी"।

 लखनऊ के गोलगप्पों में जब पानी भरा जाता है तो क्रम के हिसाब से मीठा पानी बीच में ही कंही होता है। और ये अजय भाई का नहीं बल्कि सभी खोमचे वालों का तरीका है। इसकी वजह अजय भाई ने बताई नहीं लेकिन मैंने ही अंदाज़ा लगाया। मेरे हिसाब से बीच में मीठा पानी होने की वजह, हर तरह पानी के स्वाद का असल एहसास करना हो सकती है। अब अगर आप तीखे पानी से खाना शुरू करें तो आपकी जीभ की इन्द्रियां बहुत सक्रिय हो जाएँगी ऐसे में आगे जो पानी हैं उनका स्वाद कैसे आएगा ? इसलिए बीच में  मीठे पानी का गोलगप्पा खाने से जीभ को शांति मिलेगी और आगे के दूसरी तरह के पानी का ज़ायका अच्छे से उभरकर आएगा। ऐसे ही अगर दूसरी तरफ से शुरू करते हैं तो भी जीभ को वापस नए टेस्ट के मोड में लाने के लिए ही मीठे पानी का उपयोग होगा।
"गोलगप्पे से मेरे बचपन की भी एक याद जुड़ी है। मेरा ननिहाल मथुरा में है। तब छुट्टियों में नानी के घर जाने का बड़ा कौतूहल होता था। नानी के घर के पास शाम को एक गोलगप्पे वाला आता था। हम सब बच्चे उसे घेर के खड़े हो जाते थे। उसके पानी में एक अलग तरह का तीखापन होता था जो सीधा गले में लगता था। उसके पानी में टाटरी होती थी तो वो गज़ब का खट्टा होता था। पुदीना और हरी मिर्च की चटनी में काली मिर्च का हल्का सा स्वाद उस पानी को इतना अलग बना देता था कि मुझे आज भी याद है। उसके गोलगप्पों के पानी में इस काली मिर्च के प्रयोग से ही मथुरा के खाने का  आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। आज भी मथुरा के असल खाने में आपको काली मिर्च का बहुत संतुलित प्रयोग देखने को मिलेगा। 
अच्छा उस गोलगप्पे वाले की एक और खास चीज मुझे याद है। वो उसमें मटर के साथ एक तली कचरी डाला करता था। कचरी का स्वाद हल्का सा  कड़वा होता है जो खट्टे पानी के साथ मिलकर अनोखा प्रभाव छोड़ता है। खैर तब हम छोटे थे तो बहुत ज़िद के बाद कचरी वाला एक गोलगप्पा खाने को मिलता था।"
  अब मथुरा जाता हूँ तो वो गोलगप्पे वाला नहीं मिलता। लेकिन मैं हूँ चाट का शौक़ीन तो वहां की घीया मंडी और मंडी रामदास की चाट का जवाब ही नहीं है।

 मथुरा के नजदीक ही आगरा में अगर आपको गोलगप्पे और चाट का स्वाद लेना है तो बेलन गंज का बाज़ार घूम आइये। दिल खुश हो जायेगा वहां की चाट और गोलगप्पे खाकर।

 मेरे गृहनगर झाँसी में भी गोलगप्पे का एक अलग मिज़ाज़ है। वहां पर उनमें भरे जाने वाले उबले आलू अच्छे से लाल मिर्च के मसाले में लपेटे जाते हैं जिन पर कच्चा प्याज़ लगाकर फिर गोलगप्पे में खट्टा पानी भरकर खाया जाता है।

 इस कहानी का अंत करते हुए एक बात और बताता हूँ। दिल्ली को छोड़कर आप इन जगहों में से कंही भी गोलगप्पे खाइये आपको पानी में मीठी चटनी खुद से नहीं मिलेगी, उसके लिए आपको गोलगप्पे वाले से कहना पड़ेगा। वंही दिल्ली में आपको "गोलगप्पे वाले भैया" से मीठा नहीं लगाने के लिए कहना होगा।

मोती महल हज़रतगंज

मंगलवार, 24 मई 2016

सैर सुबह की : हुमायूँ का मकबरा

हुमायूँ का मकबरा
ये बात उसी दिन की है जब मैं और मनीष सुबह की सैर पर हुमायूँ का मकबरा देखने गए थे। सबसे पहले हमने ईसा खान का मकबरा देखा था जिसके बारे में मैंने पहले लिखा है। ईसा खान का मकबरा देखने के बाद हमने मुख्य इमारत की ओर अपना मार्ग प्रशस्त किया।
अरब की सराय में जाने वाला दरवाजा

 जैसे ही हम आगे बढ़े हमारे पीछे वो तीन लड़के भी आ गए जो अपने संभवतः नए-नवेले डीएसएलआर कैमरे से ईसा खान के मकबरे में खेल रहे थे। मनीष उनसे पहले ही खीझ चुका था इसलिए हम अरब की सराय की ओर मुड़ गए।

 अरब की सराय के बारे में ज्यादा कुछ खास जानकारी तो हमें हासिल नहीं हो पायी लेकिन इतना पता चला कि इसका निर्माण हुमायूँ के मकबरे का निर्माण करने वाले मजदूरों के रहने के लिए कराया गया था। इसी से लगी अफ़सर की मस्ज़िद पर हम थोड़ी देर रुके और कई फोटो लिए।

अफ़सर की मस्ज़िद के पास योग करती महिलाएं
 हुमायूँ के मकबरे का परिसर वहां आस-पास रहने वाले लोगों के लिए खुला है इसलिए सुबह के समय लोग कसरत करते, योग करते हुए आपको इस परिसर में यहाँ-वहाँ दिख जाएंगे। हमें भी अफ़सर की मस्जिद से लगे हुए अफ़सर के मकबरे के आगे दो युवतियां योगाभ्यास करते हुए नज़र आयीं। पता नहीं क्यों हम दोनों को वहां घूमता देख वो थोड़ी देर के लिए रूक गईं। शायद हम दोनों अकेले लड़के थे इसलिए या लड़कों के बारे में हमारे समाज की लड़कियों के मन में जिस तरह का असुरक्षा का भाव व्याप्त है उस वजह से लेकिन वो थोड़ी देर तक बिलकुल शांत रही। जब उन्हें लगा कि हमसे उन्हें कोई हानि नहीं होगी तो वो फिर से अपने योगाभ्यास में व्यस्त हो गईं।

मकबरे के मुख्य द्वार का एक दृश्य
 इसके बाद अंततः हम मुख्य परिसर की ओर चल दिए और अब तक वो तीन लड़के भी हमसे दूर हो चले थे जिनकी वजह से विशेष तौर पर मनीष परेशान था। मैं तो हुमायूँ के मकबरे को तीसरी बार देखने आया था लेकिन मनीष के लिए यह अनुभव नया था क्योंकि वो पहली बार यहाँ आया था। इतनी बड़ी इमारत देख के उसे कैसा लगा ये तो वही जाने लेकिन मुझे इस इमारत की जो बात सबसे पसंद है वो है इसकी तकनीक।

 आज जैसे अत्याधुनिक साधनोंं के बिना इतनी बड़ी इमारत की परिकल्पना और उसमें भी ख़ूबसूरती को पिरोना अपने आप में अभूतपूर्व है। मैं तो इतिहास का विद्यार्थी रहा हूँ तो मेरी दिलचस्पी शुरू से ऐसी इमारतों में रही है। भले ही आजकल तथाकथित बुद्धिजीवी इन्हें सामंतवाद या निरंकुशता का प्रतीक मानते हों लेकिन कल्पना कीजिये कि ये प्रतीक नहीं होते तो फिर हमारे पास इतिहास के नाम पर होता क्या ?

गुम्बद के अंदर का नज़ारा,
साथ में लटकता झाड़फानूस
 खैर यहाँ ये चर्चा का विषय नहीं है, मैं बात कर रहा था हुमायूँ के मकबरे की। इस मकबरे की सबसे बड़ी खासियत जो मुझे लगती है वो है इसका गुम्बद क्योंकि ये मुख्य इमारत की मूल पहचान है और इसे साधने में जो तकनीक इस्तेमाल की गयी है वो काबिले तारीफ है। बचपन में हम पढ़ा करते थे कि यदि किसी वस्तु के भार को विभिन्न भागों में बाँट दिया जाये तो उसे साधना आसान हो जाता है ठीक वैसे ही जैसे किसी बड़े पत्थर को हटाने के लिए हम एक बांस का प्रयोग कर खुद की मेहनत कम कर लेते थे और उसका भार उस बांस पर डाल दिया करते थे। अब ये नियम कौन सा है वो मुझे याद नहीं लेकिन इस इमारत में भी गुम्बद के वजन को इसके आस-पास की दीवारों पर डाल दिया गया है तभी तो कई फुट ऊंचे प्लेटफॉर्म पर स्थित होने के बावजूद ये गुम्बद अटल खड़ा है।

झरोखा
 हुमायूँ के मकबरे की एक और खास बात इसमें प्रयोग की गयी जालियां हैं जो बाद में मुग़लकाल की लगभग हर इमारत में नज़र आती हैं और सलीम चिश्ती की दरगाह (फतेहपुर सीकरी) में संगमरमर में ढलकर इसका अनोखा स्वरूप उभर के आता है। मुग़लकाल की 'बादशाह का झरोखा दर्शन' परंपरा में भी इन जालियों का अहम योगदान है। इस इमारत में झरोखे की अहमियत मुझे इसलिए ज्यादा नज़र आती है क्योंकि ईमारत को ठंडा, हवादार और प्रकाशमान बनाए रखने में इसी का सर्वाधिक योगदान है। हर तरफ से और हर समय की सूर्य की रोशनी मुख्य इमारत के बीच बनी हुमायूँ की कब्र तक पहुंचाने का बंदोबस्त ये झरोखे ही करते हैं।


नहर-ए-बहिश्त
 इसके पीछे एक वजह ये भी कि दरअसल इस इमारत को जन्नत का स्वरूप देने की कोशिश की गयी है और बादशाह को परवरदिगार के बराबर का दर्ज दिया गया है। इसलिए इसमें चारबाग शैली के बीच में मुख्य इमारत बनायी गयी है। चारों बागों को एक नहर विभाजित करती है जो दिल्ली के लाल किले की नहर-ए-बहिश्त की तरह है और जिसकी तस्दीक ताजमहल में भी होती है। कब्र का प्रतीक जमीन से ऊपर बनाया गया है जो अल्लाह के हमसे ऊपर होने का संकेत देता है। उस कक्ष में भरपूर रोशनी, उसकी दुनिया में उजियारे का स्वरूप है और विस्मय से भर देने वाली इसकी भव्यता अल्लाह की अभूतपूर्व छवि का निर्माण करने के लिए हैं जिसके बराबर यहाँ बादशाह को दर्जा दिया गया है।

 असल में यह विशेषताएं मुग़लकाल की सभी इमारतों का मूल स्रोत है जिसकी परिणति आगरा के ताजमहल में जाकर होती है। वहां पर अल्लाह का स्वरुप और सौम्य रूप में सामने आता है और जन्नत का भव्यतम दृश्य भी दृष्टिगोचर होता है क्योंकि वह  इमारत पूरी तरह सफ़ेद संगमरमर से बनी है। 

नाई का मकबरा
 इसी इमारत में एक नाई का मकबरा भी है जिसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है लेकिन हाँ मनीष इसे देखकर बहुत खुश हुआ और अंततः उसने एक फोटो तो इस मकबरे के साथ खिचवाई वरना इस पूरी सैर के दौरान मैं ही मॉडलिंग करता रहा। मनीष के यहाँ पहुंचकर खुश होने की वजह शायद यहां पसरी वो छाँव थी जो उस धूप के मौसम की दरकार थी या वहां उठता वो धुआं जिसकी मनमोहक महक ने उसके मन को आबाद किया, लेकिन ये सिर्फ मेरा आकलन है असल बात तो वही जानता होगा। 

 तो गर्मियां बीतने दें और एक छोटी-सी सैर आप भी कर आएं इस खूबियों से भरी ऐतिहासिकता की।







हुमायूँ के मकबरे का स्मरणीय दृश्य

NOTE-All Picture Courtesy-Manish Sain

सोमवार, 4 अप्रैल 2016

माई साहिबा दरगाह : भटकते हुए ठौर का मिल जाना

 कभी-कभी रास्तों पर यूँही घूमते हुए आप ऐसी चीजों से टकरा जाते हैं जो आपके जेहन में बस जाती हैं। ऐसे ही एक बार चांदनी चौक में नयी सड़क पर घूमते हुए "दौलत की चाट" से नजर मिल गयी थी और उसका स्वाद मन में ऐसा बसा कि अब सर्दियों में बकायदा उसे खाने के लिए ही चांदनी चौक जाता हूँ।

 हाल ही में मुझे दिल्ली में साइकिल चलाने का शौक लगा है तो अक्सर मेट्रो से किराए पर साइकिल लेकर मैं कुछ दोस्तों के साथ यूँही तफरी करने चला जाता हूँ। इसी के साथ घूमने का शौक भी पूरा हो जाता है।

 उस दिन रविवार था जब हमने क़ुतुब मीनार के पास संजय वन जाने का मन बनाया और किराए की साइकिल से मैं और मेरे दो मित्र अभिनव एवं गौरव संजय वन पहुँच भी गए, लेकिन मेरा मन रास्ते में अधचिनी गांव के पास पड़ी एक दरगाह पर अटक गया और मैं ऐसा लालयित था कि अगले दिन फिर से मेट्रो से साइकिल लेकर मैं सिर्फ और सिर्फ उस दरगाह को देखने गया।

माई साहिबा की दरगाह
 दरअसल दिल्ली आने वाले हर बाशिंदे को हज़रत निजामुद्दीन की दरगाह के बारे में पूरी खबर रहती है, क्योंकि स्टेशन के नजदीक होने और जग प्रसिद्ध होने के कारण सभी लोग उसका रुख कर लेते हैं लेकिन अधचिनी गाँव से उनका रिश्ता उनके हज़रत बनने से भी पुराना है। अधचिनी गाँव में उनकी माँ साहिबा और बहिन की दरगाह है और आज भी उनके बहिन की करीब 42वीं पीढ़ी के वंशज इस दरगाह की देख-रेख करते हैं।

माई साहिबा की दरगाह का एक अलग स्वररूप

 माई साहिबा की दरगाह जाने का रास्ता आसान है, जब आप अधचिनी से आईआईटी दिल्ली की ओर बढ़ेंगे तो बांयें हाथ पर एक पतली से गली पर एक बोर्ड टंगा है जिस पर लिखा है "हज़रत निजामुद्दीन की माई साहिबा की दरगाह"। बस गली में घुस जाइये तो जैसे ही आप अंदर पहुंचेंगे तो आपके सामने एक बड़ा सा दालान पाएंगे और यंही पर है दरगाह का द्वार।

 मैं जब वहां पहुंचा तो दरगाह के ट्रस्टी सैयद आमिर अली निज़ामी से मेरी थोड़ी गुफ्तगू हुई। वो हज़रत की बहिन हज़रत बीबी जैनब के वंशज हैं। उन्होंने मुझे बताया की जब हज़रत निजामुद्दीन के वालिद का इंतकाल हो गया तो उनकी माँ हज़रत बीबी जुलेखां बाल-बच्चों समेत दिल्ली आ गईं और यंही अधचिनी को अपनी रिहाइश बनाया। निज़ामुद्दीन यूँ तो बदायूं के थे लेकिन उनकी शुरुआती शिक्षा यंही अधचिनी में ही हुई उसके बाद वो ग्यासपुर चले गए जिसे आज हम सभी निजामुद्दीन बस्ती के नाम से जानते हैं।

 निजामुद्दीन बाद में वंही ग्यासपुर में बस गए लेकिन माई साहिबा यंही रहीं और आज उनकी यहाँ मौजूद दरगाह करीब 800 साल पुरानी है। यहाँ एक मुफ्त डिस्पेंसरी भी चलती है जहाँ मुख्य तौर पर यूनानी तरीके से इलाज होता है और शुक्रवार को लंगर भी होता है।

 इस साल माई साहिबा का उर्स 8 मार्च को पड़ा था और हर साल उनका उर्स मार्च के महीने के आस-पास ही पड़ता है।

 मैं तो सलाह दूंगा कि एक बार आप भी इस जगह जरूर जाएं क्योंकि जहाँ एक तरफ निजामुद्दीन की दरगाह पर जायरीनों की संख्या ज्यादा होने और बाहर पूरा बाजार होने से काफी भीड़भाड़ हो जाती हैं वंही उसके उलट यहाँ पर एकदम शांति पसरी रहती है।

 अब मैं तो साइकिल से गया था आप चाहें तो कोई और साधन भी ले सकते हैं, घूम कर आइए आपको यकीन नहीं होगा कि इतने व्यस्त रोड के नजदीक होने और भीड़भाड़ से भरे इलाके में होने के बावजूद इस दरगाह में इतनी शांति क्यों रहती है ? अब रही बात संजय वन क़े वृतांत की तो थोड़ा ठहर के लिखूंगा उस बारे में, तब तक आप भी "माई साहिबा की दरगाह" हो आएंगे ऐसी मैं उम्मीद करता हूँ। 

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

सैर सुबह की : ईसा खान का मक़बरा

 म तौर पर धूल  और शोरगुल से भरी रहने वाली दिल्ली में सुबह की सैर का आनंद थोड़ा मजेदार होता है यदि वह दक्षिणी दिल्ली में हुमायूँ के मकबरे के बाग़-बगीचों में की जाए। ऐसे ही एक दिन मैं और मनीष भोर में पौ फूटने से पहले ही जा पहुंचे हुमायूँ के मकबरे पर और दिल्ली की एक सुहानी सुबह देखी जो कई मायनों में यादगार रही।

 मनीष और मेरी लंबे  समय से योजना थी कि दिल्ली दर्शन पर निकला जाये और एक-एक करके विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया जाए। सौभाग्य से उस रविवार को मुझे अवकाश मिल गया था ऑफिस से और मनीष का मन भी था इतने सुबह उठकर जाने का अन्यथा रविवार को सुबह कौन नींद ख़राब करता ? हम दोनों ने घर के बाहर से ऑटोरिक्शा लिया और पहुंच गए हुमायूँ के मकबरे पर।

 टिकट वगैरह खरीदने के बाद हमने सबसे पहले वहां स्थित ईसा खान के मकबरे का रुख किया। ईसा खान शेरशाह सूरी का दरबारी था। उसके जीवनकाल में ही इस मकबरे का निर्माण हो गया था।

मुख्य द्वार से प्रवेश ...
 यह मक़बरा अष्टकोणीय आकार में बना है और इसके चारों ओर चारबाग़ शैली के बाग़ हैं जिनके चारों ओर अष्टकोणीय दीवार है। हकीकत में यह मक़बरा हुमायूँ के मकबरे से पुराना है और इसलिए इसकी हालत थोड़ी खस्ता है जिसकी वजह से उन दिनों में यहाँ पर इसके संरक्षण का कार्य चल रहा था। 

 हमारी यह यात्रा इसलिए यादगार रही क्योंकि मनीष इतने सुबह उठकर सिर्फ इसलिए गया था ताकि वह अपने कैमरे से इन इमारतों के कुछ बेहतरीन शॉट्स ले सके लेकिन......

 ईसा खान के मकबरे में हमारा स्वागत कुछ लड़कों के एक समूह ने किया। वे संभवतः कॉलेज जाने वाले नए छात्र लग रहे थे। उनके हाथ में एक डीएसएलआर कैमरा था और संभवतः वह भी नया ही था। अजीब बात जो हमें लगी वो यह कि वे लोग इस कैमरे से भी सेल्फ़ी ले रहे थे। 

 खैर इस बात से मनीष को कोई परेशानी नहीं थी क्योंकि वे भी पर्यटक थे , घूमने आएं थे तो फोटो तो लेंगे ही, मनीष की परेशानी का सबब दूसरा था।

बेचारा मनीष, कोशिश जारी है.... 
 ईसा खान के मकबरे के भीतर जब हमने प्रवेश किया तो सामने तीन मुख्य कब्रें देखीं। वहां हल्का अँधेरा था तो मनीष के फोटो लाइट कम होने की वजह से साफ़ नहीं आये।  इससे उसे थोड़ी खीझ हुई कि काश उसके पास भी उन लड़कों जैसा कैमरा होता, खैर ये एक आम मानवीय प्रतिक्रिया थी लेकिन उसे मलाल इस बात का था कि तीन कब्रों पर रोशनदानों से पड़ने वाले रोशनी के मनोरम दृश्य को वह अपने कैमरे में कैद नहीं कर पा रहा  था। 

 इसके बाद जब हम ईसा खान के मकबरे के मुख्य गुम्बद के बाहर के अष्टकोणीय गलियारे में आये तो वहां देखा कि बहुत सारे स्तम्भों के बीच में इस इमारत के बनने के दौरान छत पर बनाये गए बेल-बूटों, कलाकारी को नया रूप देकर संवारा जा रहा है, यहाँ रोशनी ठीक थी तो मनीष ने फोटो ले लिए कि तभी पीछे काफी शोरगुल करता हुआ उन लड़कों का समूह आ गया तो मैंने और मनीष ने उसी अहाते में स्थित मस्जिद की ओर  रुख किया।

सुन्दर, अप्रतिम... 
 मस्जिद की ओर पहुंचकर हमने देखा कि गुम्बदों के ऊपर टाइल्स का काम फिर से दुरुस्त किया जा रहा है। तभी वहां एक मोर ने अपने पंख फैलाये जिस कारण से सबका ध्यान उसकी ओर आकृष्ट हो गया। उन लड़कों का समूह भी उसे देखने के लिए मस्जिद की ओर चला आया। अब  मनीष के चेहरे पर थोड़ी चिंता व्यक्त हो रही थी क्योंकि उसे लग रहा था कि वह अब ठीक तरह से ईसा खान के मकबरे की मुख्य इमारत का फोटो नहीं ले पायेगा।

 मस्जिद की ओर  से मक़बरा काफी शानदार दिखाई दे रहा था। सुबह की सूरज की लाल किरणें उसके मुख्य गुम्बद की सफेदी को आलोकित कर रहीं थीं। अष्टकोण के प्रत्येक कोण पर गुम्बद के नीचे बनी एक छतरी और उसके नीचे बने तीन मेहराबों को जब आप मस्जिद की ओर से देखते हैं तो तीन कोणों को मिलाकर एक अभूतपूर्व दृश्य बनता है जिसके बीचों-बीच एक रास्ता आस-पास के बाग़ को स्पष्ट रूप से दो भागों में बाँट देता है। ज्यामिति का छात्र अगर कोई हो तो इतनी कुशलता को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाये।

 खैर मनीष को इस चिंता से मैंने दूर किया और उसे सुझाव दिया कि  इमारत की अष्टकोणीय बाहरी दीवार पर हम तब तक टहल लेते हैं जब तक उन लड़कों का समूह डीएसएलआर से सेल्फ़ी लेकर चला नहीं जाता। यह दीवार असल में इतनी चौड़ी है कि पांच लोग एक साथ दौड़ प्रतियोगिता कर सकें। हम दीवार पर टहलने लगे। पूरा चक्कर काटने के बाद हम मुख्य द्वार तक पहुंचे और वहां हम सीढ़ियों से उतरने को जैसे ही आगे बढे मेरे कदम ठिठक गए। सामने द्वार के ऊपर जाने की सीढ़ियां तो थी लेकिन वहां से नीचे बाग़ तक जाने की नहीं और हमारा ध्यान वहां नहीं गया था तो बस हम गिरते-गिरते बचे।

उन्हीं बेहतरीन शॉट्स में से एक.....
 दीवार पर टहलने के दौरान दूर से मनीष ने गुम्बद और मस्जिद के काफी बेहतरीन शॉट्स लिए और फिर अंततः हम मस्जिद वापस आये और वहां से तीन कोण वाला अपना पसंदीदा फोटो लिया। मनीष ने मस्जिद के भी अच्छे शॉट लिए जिसमें से एक में उसने मुझसे टाइटैनिक का चिरस्थायी पोज बनाने को कहा।
 उस समय तक उन लड़कों का समूह इस परिसर के दूसरे इलाके की ओर जा चुका था तो वहां हमने बिलकुल शांत वातावरण में कुछ देर उस सुबह की धूप से रोशन होते मकबरे को निहारा और सोचा कि उन कब्रों में सो रहे लोगों को अब ये रोशनी भी नहीं जगा सकती। सिर्फ इस धूप की गर्मी ही है जो उन्हें अब तक सही सलामत रखे हुए है और मौसम की मार से उनके इस शयनकक्ष को बचाये हुए है।
अंततः..... 

सोमवार, 7 सितंबर 2015

अब सोहन हलवा कैसे खाएंगे...?

 ब भी मैं दिल्ली के आम ढाबों में मिलने वाले शाही पनीर, दाल मक्खनी और तरह-तरह के पंजाबी खानों से ऊब जाता हूँ तो पुरानी दिल्ली की गलियों का रास्ता अख्तियार कर लेता हूँ और किसी न किसी एक मित्र को साथ चलने के लिए पटा ही लेता हूँ।

 पुरानी दिल्ली की गलियां न केवल मांस के शौकीनों को अपनी ओर खींचती हैं बल्कि मुझ जैसे शाकाहारियों को भी यहां की कढ़ाहियों से उठने वाली महक सराबोर कर देती है। वैसे भी यहाँ आकर खाने का लालच बढ़ जाता है तो मैं एक दादा जी दौर का नुस्खा अपनाता हूँ ताकि ज्यादा से ज्यादा जायके का आनंद ले सकूँ।

 चांदनी चौक में अक्सर मैं खाने की शुरुआत कांजी वड़े या गोलगप्पों से करता हूँ। इन सबकी रेसिपी पर फिर कभी विस्तार से चर्चा करेंगे। हाँ लेकिन यहाँ यह बताना दीगर होगा कि ये दोनों ही हाजमे के लिहाज से बेहतर होते हैं तो शुरुआत के लिए अच्छे हैं।  वैसे भी इनके पानी में खट्टे के साथ तीखपन होता है जिसे शांत करने के लिए चांदनी चौक की मिठाइयां जरूरी सी हो जाती हैं। 

गोलगप्पे का खोमचा
 गोलगपे मुझे सिर्फ नयी सड़क पर बड़े पेट वाले भाईसाहब के खोमचे के पसंद आते हैं या फिर हल्दीराम के ठीक बगल में ऊंचे दासे वाली दुकान के। इनका नाम पूछने की पिछले आठ साल में मुझे कभी जरुरत महससू ही नहीं हुई क्योंकि मुझे हमेशा ही ऐसा लगा कि ये यहाँ जैसे आदिकाल से हैं।  कांजी वड़े की दुकान भी हल्दीराम के पास में ही है तो चांदनी चौक की यह लेन मेरी जायके की यात्रा की सनातनी शुरुआत है।

 इसी लेन के ठीक सामने एक दुकान हुआ करती थी घण्टेवाला की, लेकिन इस बार उस दुकान को बंद देखकर मन खिन्न सा हो गया। जब आस-पास पता किया तो पता चला कि कई महीनों पहले ही यहाँ ताले पद गए हैं और उसकी वजह दुकान का घाटे में चलना है।

 आमतौर पर लोगों को घण्टेवाला  का नाम सोहन हलवे के लिए याद रहता है लेकिन जिसने भी यहाँ पर रसमलाई का स्वाद लिया है, उसके लिए भी घण्टेवाला ख़ास तवज्जो रखता है।

घण्टेवाला की दुकान का साइनबोर्ड
 सोहन हलवा को अगर दिल्ली की मिठाई के तौर पर जाना जाता है तो उसकी एक बड़ी वजह घण्टेवाला ही है। घण्टेवाला के इतिहास की जानकारी आपको आसानी से विकीपीडिया पर मिल जाएगी कि कैसे 200 साल से भी ज्यादा पुरानी परंपरा से इन लोगों ने सोहन हलवे को एक स्थायी मिठाई में स्थान दिलाया। लेकिन इसका यूँ अचानक बंद हो जाना मुझ जैसे मिठाई के शौकीनों के लिए बहुत विस्मय से भरा है। 

 मेरे बचपन में जब भी पिताजी दिल्ली से लौटते थे तो सिर्फ सोहन हलवे का ही इंतज़ार मुझे रहता था। अब जब मैं दिल्ली रहने लगा तो इसका  इंतज़ार करने वालों में पिताजी शामिल हो गए और मैं इसे ले जाने वाला। न सिर्फ मेरे बचपन की यादें बल्कि मेरी माँ के बचपन की भी कई यादें घण्टेवाला के सोहन हलवे से जुडी हैं। लेकिन अब यह स्वाद ही याद बन गया है। 

 घण्टेवाला की दुकान बंद होना एक और सामाजिक-आर्थिक पहलू पर गौर करने के लिए इशारा करती है। इसके ठीक सामने हल्दीराम की दुकान है और इसी बाजार में बीकानेरवाला, कँवरजी जैसी और भी मिठाइयों की दुकानें हैं।

सोमवार, 27 जुलाई 2015

चूहे नहीं "काबा" हैं ये : करणी माता मंदिर देशनोक

 हाल में कुछ समय मिला तो बस उठाया अपना बस्ता और निकल पड़े बीकानेर की ओर साथ में बचपन के एक साथी को भी ले लिया।

 सुबह-सुबह स्टेशन पर उतरते ही सबसे पहले हमने देशनोक का टिकट लिया। कई साल पहले जब ' आई एम कलाम ' फिल्म देखी थी,  तब से मैं वहां जाने को लेकर उत्सुक था।

करणी मंदिर का मुख्य द्वार
 यहाँ पर प्रसिद्ध करणी माता का मंदिर है, राजस्थान से बाहर के लोग इसे ' चूहों वाले मंदिर ' के तौर पर जानते हैं। आस-पास जानकारी करने पर पता चला कि करणी माता चारण समुदाय (चरवाहा) समुदाय में जन्मी थीं, इसलिए चारण समुदाय के लोगों में इस मंदिर की बहुत मान्यता है। नवरात्रों में यहाँ मेला लगता है तब बड़ी संख्या में लोग यहाँ जुटते हैं।

 इस मंदिर की खास बात है कि यहाँ आपको हर जगह चूहे नजर आएंगे। दूध पीते, प्रसाद खाते , लड्डू खाते, चौखटों पर, दालान में और सीढ़ियों पर हर जगह बस चूहे ही नजर आएंगे। इन्हें यहाँ के लोग ' काबा ' कहते हैं।

मंदिर में दूध पीते "काबा"
 माना जाता है कि मंदिर में सात सफ़ेद काबा भी हैं जो नसीब वालों को ही दिखते हैं। खैर मैंने भी डेढ़ घंटे किस्मत आजमाई लेकिन "सफ़ेद काबा" मेरे नसीब में नहीं।

 मैं कुछ और ज्यादा जानना चाहता था तो मैं यहाँ स्थित पुराने मंदिर की ओर गया। इस पुराने मंदिर में एक गुफा जैसी एक जगह है जिसके बारे में कहा जाता है कि करणी माता की मूर्ति यंही प्रकट हुई थी और बाद में उसे नए मंदिर में स्थापित कर दिया गया। वर्तमान में जो नया मंदिर देशनोक स्टेशन के पास है, उसे बीकानेर के महाराज गंगा सिंह ने बनवाया था।

माना जाता है कि इसी स्थान
पर करणी माता प्रकट हुई थीं
नए मंदिर का दरवाजा राजपूत-मुग़ल शैली में सफ़ेद संगमरमर से बना है, जिस पर कई देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं। पहली झलक में यह बेल-बूटों से सुसज्जित द्वार लगेंगे लेकिन जनाब जरा गौर से देखना इन्हें, इन बेल-बूटों के बीच में आपको प्रकृति  के कई जीव नजर आएंगे।

 पुराने मंदिर के पुजारी ने बताया कि इस मंदिर में देवी की जो मूर्ति है उसमें त्रिशूल बांयें हाथ में है और यह भारत का इकलौता ऐसा मंदिर है जिसमें किसी देवी के बांयें हाथ में त्रिशूल है। यहां पुराने मंदिर में लगे पेड़ को भी वो करीब 700 साल पुराना बताते हैं। अब मैंने भी उनकी बात मान ली, क्योंकि मैं उसका कोई वैज्ञानिक परीक्षण नहीं कराने वाला था।
संगमरमर पर उकेरा गया गिरगिट, सांप

 एक और रोचक बात मुझे जो पुजारी ने बताई, वो यह कि अगर किसी के पैरों में आकर कोई चूहा यहाँ मर जाए तो उसे चांदी या सोने का चूहा चढ़ावे में देना होता है। मरे हुए चूहे का मंदिर में सफाई करने वाले लोग सम्पूर्ण विधि-विधान के साथ अंतिम संस्कार कर देते हैं। यहाँ मंदिर में चूहों की सुरक्षा के लिए पूरे दालान को जाल से ढका गया है ताकि कोई पक्षी उन्हें उठाकर ना ले जाए।

करणी माता के पुराने मंदिर का विग्रह
 वैसे पुजारी ने यह भी बताया कि यहाँ रोज कई चूहे मरते हैं, लेकिन अगर वो किसी के पैर के नीचे आकर मरते हैं तो ही बहुमूल्य धातु का चूहा चढ़ाना पड़ता है। गनीमत समझो कि हम दोनों के पैर के नीचे कोई चूहा नहीं आया।

 करणी माता के दोनों मंदिरों में हजारों चूहे आपको मिलेंगे। लोग इन्हें प्रसाद चढ़ाते हैं, इनका झूठा खाते-पीते हैं। यहाँ के लोग इन काबाओं को बहुत पवित्र मानते हैं। यहाँ आस-पास लोगों से बात करने पर पता चला कि चूहों का झूठा खाने-पीने के बावजूद आजतक देशनोक ने कोई बीमारी नहीं हुई और ना ही कभी प्लेग फैला। इतना ही नहीं कई वैज्ञानिक भी यहाँ आकर इस अचंभित कर देने वाली घटना की जांच कर चुके हैं लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं आया।
मंदिर में 700 साल पुराना पेड़

 यहाँ की लोक कथाओं के अनुसार यहां मंदिर में मरने वाले काबा का अगला जन्म इंसान के रूप में होता है और वो चारण समुदाय में पैदा होता है। खैर विकिपीडिया (https://en.wikipedia.org/wiki/Karni_Mata_Temple) पर इस बारे में एक और लोक कथा का वर्णन है लेकिन हमारी यात्रा के दौरान हमें  किसी ने इस  बारे में नहीं बताया।

 फ़िलहाल ये यात्रा यहीं समाप्त नहीं हुई। बीकानेर की गलियों से और भी बहुत कुछ आना बाकी है, देशनोक से बीकानेर वापस तो पहुँचने दीजिये जनाब !

पुराने मंदिर का मनोहारी दृश्य,
इसमें ऊपर लगे सुरक्षा जाल को देखा जा सकता है

शनिवार, 7 सितंबर 2013

कुछ अनछुए से…




 क्सर हम दुनिया जहान को घूमने की चाहत रखते हैं और शुरुआत हम अपने घर से कुछ दूर के जगहों पर बहुधा आने-जाने से करते हैं, लेकिन कई बार उस स्थान पर बहुत बार जाने के बावजूद कुछ अनछुए से किस्से रह जाते हैं जो या तो वक्त की रेत से दब जाते हैं या ताजी हरियाली से लड़ते हुए उनकी ओट में छिप जाते हैं। इस बार मेरे गृहनगर की यात्रा इन्ही मायनों में खास रही, मेरे घर से करीब 20 किमी दूर पर एक शानदार 15वीं-16वीं सदी का ऐतिहासिक/धार्मिक पर्यटन स्थल ओरछा है।

 अपने 23 वर्ष के जीवन में दसियों बार मैंने यहाँ भ्रमण किया होगा लेकिन कुछ छूटा रह गया था। यहाँ राम को राजा की तरह से पूजा जाता है। यह मुग़ल साम्राज्य के समय में समृद्ध बुंदेलखंड का भाग था और मुग़लों का एक महत्त्वपूर्ण साथी भी, लेकिन यहाँ के राजा द्वारा बनवाया गया उसका महल और जहाँगीर के सम्मान में बना जहाँगीर महल एक नजीर की तरह है और इसके परकोटे के बाहर हरियाली ने अपने आवरण में बहुत कुछ छिपा कर रखा है और इस बार की यात्रा उन्हीं कुछ छिपे स्थानों से पर्दा उठाने के लिए याद रहेगी। 

यहाँ कुछ तस्वीरें साझा कर रहा हूँ.…