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रविवार, 1 अक्तूबर 2017

कुछ छोड़ आते हैं हम...

सच है ये...
छोटे शहर से आकर...
इन बड़े शहरों को...
जवाँ बनाते हैं हम,

पर तुम क्या जानो...
इन पलों के लिए...

न जाने कितने पलों को... 
बूढ़ा बनाते हैं हम,

एक ही समय में...
बड़े शहर की ये जवानी...
कई छोटे शहरों के समय से...
अपनी भूख मिटाती है...
उस समय में...
कितने बड़े शहर बनाते हैं हम,

दिवाली पर हमारी भी...
माँए राह देखती है...
लेकिन दिए यहीं जलाते हैं हम...
यहाँ के आशियानों की रौशनी के लिए...
खुद घर के दिए बुझा आते हैं हम,

इंतज़ार तो उसे...
होता है हर त्यौहार...
पर कभी-कभार ही...
घर जाते हैं हम...
यहाँ होली की रंगत के लिए...
घर बेरंग छोड़ आते हैं हम,

दफ़्तर-कॉलेज में...
साथ रहकर भी...
रहते बाहरी ही हैं...
कभी चिंकी, कभी बिहारी बन...
यूँही भीड़ में पिट जाते हैं हम,

सपने यहीं सजते हैं...
इसमें हम क्या करें...
कुछ सपने सँजोए...
संदूक उठाये चले आते हैं हम,

किराये के कमरों में...
लड़कपन से जवानी तक...
दोस्ती लफ्ज़ के...
मायने तुम्हें समझाने को...
बचपन की दोस्ती को...
खूँटी से दीवार पर...
टांक आते हैं हम,

तुम क्या जानों...
इधर की जवानी के लिए...
अपने घर पर...
बूढ़ी आखें निहारते...
छोड़ आते हैं हम,

फिर छोटे शहर को...
जवाँ रखने के लिए...
गाँवों में कुछ और...
बुढ़ापे छोड़ आते हैं हम,


अच्छे दिन...

पहले वो हिंदू-मुसलमान करेंगे,
फिर तुम्हें आपस में लड़ाएंगे,
इसकी आदत डलवाएंगे,
संवेदनशीलता को रौंदेगे,
एक-दूसरे की जान का,
प्यासा बनाएंगे,
फिर किसी दिन तुमसे,
किसी का क़त्ल करवाएंगे,
फिर एक दिन तुम्हें ही,
निर 'आधार' बता कर,
तुम्हें देश का दुश्मन बताएँगे,
गरीब को अमीर का हक़
मारने वाला बताएँगे,
फिर एक दिन सेना आएगी,
जो तुम्हें रौंद जाएगी,
इसे वो देशहित जताएंगे,
सच कहता हूँ "मित्रों'
तब तुम्हें ये "अच्छे दिन"
बहुत याद आएंगे...

बुधवार, 15 जून 2016

आता क्या है तुम्हें...?

आता क्या है तुम्हें ?
जान छिड़कना...
किस पर ?
दोस्त-यार-परिवार...
और काम ?
बिल्कुल इनका कोई भी काम...
इसमें प्रियतमा कहाँ ?
आँखों-सपनों में...
हक़ीक़त में नहीं ?
होती तो वो जान होती...
हम्म!


गुरुवार, 26 मई 2016

मौसम की वो आख़िरी बारिश..


छज्जों पर हमारे प्यार की..
पींगें बढ़ रही थीं..
उस पर बारिश का मौसम..
नए रंग में उसे रंग रहा था..
शायद ये मेरा पहला..
एहसास था प्यार का..
और बारिश भी तो पहली ही थी..

फिर दस्तक दी सर्दियों ने..
लेकिन बारिश वो तो..
होए ही जा रही थी..
मन में समय में प्रेम की..
उस पहली मुलाकात की प्यास..
बुझाना..
कहाँ इस बारिश के बस में था..

फिर एक दिन..
हल्की गुनगुनी धूप में..
छज्जे पर वो आई..
मैं रह न सका, और..

एक कागज़ी उस छज्जे में फेंक दी..
पर्ची क्या मिलने की अर्ज़ी थी..
जवाब जब हाँ आया..
लगा निकाह कबूल हो गया..

पड़ोसी की छत पर..
आई वो बहाना करके..
उस दरमियाँ सिर्फ वो मुंडेर..
हाँ वही तो बीच में थी..

फिर बस शुरू हुई बातें..
चलती रहीं न जाने कब तक..
कहना जो था पहली बारिश..
के वक़्त से अब तक की दास्ताँ..

दूर पड़ोसी की लड़की..
छत पर खड़ी हमें देखती रही..
तब अचानक बदरा गरजे..
हमारी बातें टूटी..

उसने कहा जा रही है वो..
वो चली गयी..
भीगते बालों को संवारते..
मेरे पास बस..
उन हाथों का स्पर्श ही बचा..

मैं खड़ा रहा दिनभर..
भीगता रहा उस बारिश में..
फिर उस मौसम में न बारिश हुई..
और ना छज्जे पर वो आई..

जेहन में बसी रही जो..
वो बस उसके हाथों की छुअन..
और और..
मौसम की उस आखिरी बारिश का एहसास..

नोट - यह इस कड़ी की आखिरी कविता है। इससे पहले दो भाग और हैं इस कविता के, पहला भाग पहली बारिश का एहसास.. और दूसरा भाग बारिश में प्यार का खुमार.. है।

इस कविता को फेसबुक पर पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें Facebook Link  

शनिवार, 14 मई 2016

बारिश में प्यार का खुमार..


कनखियों से देख-देख कर हम,
एक दूसरे के लिए जिंदा थे,

बारिश के मौसम में,
रोज एक दूसरे को देखने,
हम हो जाते बेताब थे,

पहली बारिश के बाद दूसरी,
फिर तीसरी, चौथी और,
बस इंतजार रहता,बारिश हो,
छत-छज्जे जहाँ भी हों,
बस किसी तरह दीदार हो,

दिल की बातें ज़ुबाँ पर आएँ,
उनकी नज़रों से गुलजार अब,
मेरा मन,छत-छज्जा सब था,

इल्म नहीं रहता कई बार,
कि क्या कर रहे होते,
कहाँ जाना है कहाँ चले जाते,

फिर एक दिन,बारिश की बूँदों के बीच,
उसने कुछ कहना चाहा,
पर मैं उसे सुन न पाया,

इन निगाहों से मैं,
उसे निहारता रहा,
जब मैं समझा उसकी बात,
तो बस आगे क्या कहूँ,
चलो उसे फिर कभी कहता हूँ...


यह मेरी पिछली कविता पहली बारिश का एहसास का दूसरा भाग है..

नोट- इस कविता को फेसबुक पर पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें- Facebook Link

मंगलवार, 3 मई 2016

पहली बारिश का एहसास..


आज की बारिश ने पहली बारिश के
अहसास को ताज़ा कर दिया..
मैं खड़ा था छत पर
कि तभी नज़र वो आई..
बारिश का मौसम इतना सुहाना
पहले कभी नहीं लगा..

अब छत से भागे हम उसके पीछे
पर वो फुरफुरा रही थी,काँप रही थी..
जब वैसे में उसने मुझे देखा..
तो वो सहम गयी..
अपने परों को समेटकर..
टकटकी निगाहों से मुझे देखने लगी..

मैं भी उसके पास जाने को बेताब था..
तभी एक हवा के झोंके ने उसे..
फिर मोहिनी रूप दे दिया..
और मैं अपने को रोक न सका..

चला उसको अपनी बाहों में बांधने..
उसे अपने आकंठ से लगाने..
उसका आलिंगन करने..

बारिश में उसका अधर रस..
पीने को मैं लालायित..

किन्तु जैसे ही मैं उसके नज़दीक पंहुचा..
वो शर्मा गयी..
और छिपा के आँचल में अपना मुखड़ा..
चली गयी घर के अन्दर..

फिर छज्जे पर वो खड़ी हो गयी.
तब से शुरू हुआ एक नया अध्याय..
मेरा और उसका खिडकियों से झाँकता..
प्रेमगान..!! 


नोट - इस कड़ी में दो और कविताएं लिखी हैं जिन्हें आगे साझा करूँगा. ( It is a poetry trilogy.)
फेसबुक पर इस लिंक के माध्यम से पढ़ सकते हैं- Facebook Link

गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

ग्रीन टी, मैं और वो

हमारी बात उस दिन,
शुरू हुई थी चाय पर,
काम के बीच वही तो पल,
मिलते हैं कुछ फुर्सत के,

इस पर भी गौर फरमाएं....
नया-नया शौक चढ़ा है,
ग्रीन टी पीने का,
साथियों के साथ मैं,
झेल रहा था उस कड़वेपन को,

वो मीठी मुस्कान सी वहां आई,
पर उससे किसी ने नहीं पूछा,
तो मैंने ही पूछ लिया,
बस फिर शुरू हुईं हमारी,
" सिर्फ बातें "
जहां सारा मशगूल हो गया चर्चाओं में,
कुछ समय यूँ ही मेल-मुलाकात,
गुफ़्तगू में ज़ाया होने लगा,
जबकि शहर ने हमारा,
विवाह तक रचा डाला,

फिर एक दिन,
मैंने ही उससे कहा कि,
किस्से सुनाए जा रहे हैं हमारे,
उसने बड़े दिल से कहा,
ये जहान तो हमेशा बैरी रहा है,
हम बस यूँ ही मेल-मुलाकात,
और गुफ़्तगू करते रहेंगे... 

रविवार, 10 अप्रैल 2016

वो बस वाली लड़की...

स्रोत - गूगल सर्च से साभार 

चार दिन से वो मुझे रोज़ बस में मिल रही है,
सुंदर आँखें लेकिन खोयी-खोयी,बस दीदार की मूरत वो, लेडीज़ सीट पर शांत सी बैठी,

और नज़र मिलने पर दोनों शरमाते,मैं भी कनखियों से उसे झांकता, आँखें उसकी न गुस्सा होती,न जाने कब से वो न मुस्कुराई है,


न हँसती, न विरोध जताती,कुछ तो है जो वो मन में दबायी है,क्या पता कंही किसी रोज़, अब मैं रोज उसी बस से आता हूँ,उसके सीट के बगल में खड़ा हो जाता हूँ,उसकी आँखें मेरे सवालों का जवाब दे दें...

Note- To read on facebook please click the link-https://goo.gl/fk85hN

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

क्या ऐसा ही भारत हमने बुना था ?

गूगल से साभार
क्या ऐसा ही भारत हमने बुना था ?

जहाँ डिजिटल संवाद हर रोज़ बढ़े,
समाज आपस में ही न बतियाए,

जहाँ बड़े-बड़े सवालों को,
कुछ दिन चुप रखकर टाल दिया जाए,

जहाँ दूरियां पाटने के सेतु बनाने हों,
वहाँ रोजाना एक नई खाई खोद दी जाए,

जहाँ एक ज़िंदा इंसान की कीमत,
एक जानवर से कम हो जाए,

जहाँ दंगा कराने वालों को,
देश का हीरो मान लिया जाए,

जहाँ अपनी बात सिर्फ रखने पर,
बात करने लायक ही न रहने दिया जाए,
क्यों बिठाया हमने नालायक को,
रख दिया उसके सिर पर ताज,

क्या अधिकार था उसे कि झोंक दे,
पूरे समाज को दशकों की आग में,
और चले हर तरफ नंगा नाच,

फिर जब वो चल बसा,
क्यों उस पौधे को बढ़ने दिया,
क्यों ना किया हींग-फिटकरी का इलाज़,

इलाज़ की तो बात छोड़िये,
हमने ज़हर को ही मरहम क्यों समझा,
क्यों गिरि के एक शेर को हमने,
अपने गाँव का रास्ता दिखा दिया,

हम भी बड़े निर्लज्ज हैं,
जो ठंडी लाशों पर,
रोटियां उन्हें सेकने देते हैं,

करते हम ही हैं सबकुछ,
बस दोष दूसरों को देते हैं,

खुद से एक बार पूछें,
क्या सच में ऐसा ही भारत बुना था ?

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

पदचिन्ह

क्या खूब है की राह मिले आसान,
हर पग आपके छोड़ जाएँ निशान,
कर चलो ऐ साथी कुछ ऐसा,
भुलायेगा कैसे तुम्हे ये जहान।

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

अब भी बाकी है!


काली रात का अँधियारा,
डूबते को तिनके का सहारा,
हवा में फैला कोलाहल सारा,
बेगुनाहों की वो सुगबुगाहट, 
अब भी बाकी है!


मध्यरात्रि का अर्द्ध प्रहर,

फैला बस ज़हर ही ज़हर,
बरसा क्या भयानक कहर!
अनजान से खतरे की आहट,
अब भी बाकी है!


मासूम-बेगुनाह-निर्दोष,
भाग रहे बेसुध-बेहोश,
तय करें किस, किसका दोष?
गले में अटकी वो हिचकिचाहट, 
अब भी बाकी है!


दोष छिपाने के प्रयास हैं उत्तम,
अन्याय मिला बड़ी देर से सर्वोत्तम,
न्याय की मार-मार रहा उच्चत्तम,
ह्रदय में इसकी कड़वी कड़वाहट, 
अब भी बाकी है!


सिसक-सिसक साँस लेती सिसकियाँ,
गड़े दर्द ने बाहर निकाल ली उँगलियाँ,
जिंदगी जीना भूल गई अनगिनत जिंदगियां,
आँखों में लगते धुंए की वो चिनमिनाहट,
अब भी बाकी है!


(सन्दर्भ भोपाल गैस त्रासदी)