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सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

अटकन-चटकन : इस एक फिल्म में पूरा बचपन जी लिया

  

कुछ दिन पहले जी5 पर एक फिल्म देखी ‘अटकन-चटकन’....

फिल्म की कहानी बहुत साधारण सी, कोई तुर्रमबाजी नहीं। एक मजदूर वर्ग का बच्चा जिसकी रुचि संगीत में लेेकिन घर चलाने के लिए चाय की दुकान पर काम करता है। परेशान बचपन में अपना प्रिय कोई तो छोटी बहन और एक किताब बेचने वाला दोस्त। किसी तरह जुगाड़ कर करके संगीत बजाता है और फिर चार लोगों की एक मंडली तैयार हो जाती है जो कबाड़ के सामान से संगीत रचती है।

 

कुछ-कुछ कहानी मुंबई के धारावी-रॉक्स की तरह...

लेकिन मुझे फिल्म इसकी कहानी, ट्रीटमेंट की वजह से पंसद नहीं आयी और ना ही तकनीकी खामियों की वजह से मैं इसे दरकिनार कर सकता हूं।
मेरे फिल्म पसंद करने की वजह इसका मेरे बचपन से सीधी जुड़ा होना और हर एक सीन में बचपन को जी लेना है।
फिल्म की शूटिंग झांसी के गली-मोहल्लों में हुई है और उन गलियों में हम हाफ पैंट में घूमे-फिरे हैं।
फिल्म में मुख्य किरदार गुड्डू जिस चाय की दुकान पर काम करता है, ‘तिवारी चाय’ वह नवरात्र के दिनों में दुर्गा पंडाल पर देर रात तक बैठने के चलते लगने वाली भूख मि्टाने का ठिकाना होता है शहर के लोगों का। रात को तीन बजे भी जाएंगे तो चाय और आलू के पराठे आपका पेट भर देंगे।
फिर गुड्डू जब झांसी की गलियों में थपथपाते हुए घूमता है तो ‘सिंघल कार्ड’ नाम से खुद के चाचा की दुकान दिखती है। मानिक चौक से लेकर झरना गेट तक के बाजार दिखते हैं और जब गुड्डू अपने जमनिया गांव से बस की छत पर बैठकर शहर आता है तो लक्ष्मी दरवाजे से गुजरता दिखता है।
इस लक्ष्मी दरवाजे का भी शहर के दुर्गा उत्सव से अनोखा रिश्ता है। नवरात्रों में देवी की प्रतिमा के विसर्जन के लिए जब इस दरवाजे से गुजरना होता है तो कंधे पर प्रतिमा उठाकर चलते नौजवानों को उस दौरान प्रतिमा हथेलियों पर संभालनी होती है। इतना ही नहीं पूरे 90 डिग्री के कोण पर 20-20 फुट ऊंची प्रतिमाओं को घुमाना होता है।
फिर गुड्डू जब विदेशियों के सामने अपना पहला परफॉर्मेस देता है तो ओरछा के मंदिर की याद आ जाती है। उसके पीछे भूल-भुलैया दिखायी दे रही होती है। जहां से उसे तानसेन संगीत विद्यालय के प्रधानाचार्य अपने साथ ले जाते हैंं। वह जिस स्कूल में ले जाते हैं वह असल में तानसेन संगीत विद्यालय नहीं बल्कि शहर का सबसे पुराना डिग्री कॉलेज बिपिन बिहारी कॉलेज है।
गुड्डू स्कूल के बच्चों के सामने जहां अपना पहला परफॉर्मेंस देता है वह शहर का गणेश मंदिर है, इसी मंदिर में झांसी की रानी की शादी हुई और मैंने छह साल लगातार उस मंच पर तबला बजाया।
फिल्म में जहां आखिरी प्रतियोगिता होती है, उस मैदान पर आठवीं तक पढ़ाई की है और पत्थर की गेंद बनाकर ना जाने कितने जूते फाड़े हैं।

मेरा मानना है कि इस फिल्म में झांसी के छोटे शहर को जितनी बेहतरीन तरह से दर्शाया गया है वह बहुत कम देखने को मिलता है। कहानी सिर्फ गुड्डू की नहीं बल्कि झांसी शहर भी कहानी का हिस्सा है।
वरना बॉलीवुड में बनारस, लखनऊ, कानपुर जैसे कई शहरों की कहानी अक्सा दिखायी जाती है लेकिन अधिकतर फिल्मों में कहानी का हिस्सा नहीं बन पाते, सिर्फ लोकेशन भर रह जाते हैं। अटकन-चटकन इसी को तोड़ती है।
कहानी में बनारस को देखना हो तो पंकज कपूर की ‘धर्म’ देखिए, कोलकाता को देखना हो तो विद्या बालन की ‘कहानी’, लेेकिन अगर लखनऊ देखना हो तो अमिताभ बच्चन की ‘गुलाबो-सिताबो’ बिल्कुल नहीं देंखें।

गुरुवार, 31 मई 2018

'समय' कुछ कहना चाहता है...

पुराने नगर का एक अलंकरण
 "मैं समय हूँ।" दूरदर्शन पर जब 'महाभारत' की कहानी सुनाने के लिए ये आवाज आती थी तो शायद उस 'समय' को खुद नहीं पता था कि उसे ऐसा भी एक वक़्त देखना होगा, जो बीते समय को ही हमारा दुर्भाग्य बता दे। किसी का भी अतीत उसके वर्तमान का आईना होता है, क्योंकि हमारे वर्तमान की मीनार उसी नींव पर खड़ी होती है।


 अभी जो समय है वो हमें बताने पे तुला है कि एक दौर में हम विश्वगुरु थे, लेकिन कब और कहाँ ये उसे भी नहीं पता। हालाँकि हो सकता है कि उस बात में सच्चाई हो, लेकिन इतिहास तथ्य पर चलता है। ऐसे में अगर एक प्रदर्शनी आपको अपने अतीत के करीब ले जाये, आपको उस समय में जीने का मौका दे और इतना ही नहीं आपको आपकी वैश्विक हैसियत से भी रूबरू कराये तो उससे बेहतर क्या हो सकता है ?

सिंधु सभ्यता से जुड़ा एक खिलौना
 पिछले हफ्ते जब दफ्तर से एक दिन की छुट्टी मिली तो मैं भी पहुँच गया इंडिया गेट के पास नेशनल म्यूजियम, जहाँ 'भारत और विश्व : नौ कहानियों में इतिहास' प्रदर्शनी लगी है। यहाँ न सिर्फ मुझे हिदुस्तान के 20 संग्रहालयों या टाटा ट्रस्ट जैसे कुछ निजी संग्रहों की वस्तुएं देखने को मिली, बल्कि लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम से आयी कई तरह की ऐतिहासिक वस्तुओं ने भी मेरा ध्यान खींचा।

 यह प्रदर्शनी दरअसल एक रास्ता है इतिहास के उन रोशन झरोखों में झांकने का, जो कभी हमारे पूर्वजों का वर्तमान हुआ करता था। यह वो गलियारा है जहाँ हम अपने और विश्च के साझा इतिहास में चहलकदमी कर सकते हैं। यह किसी को भी मानव सभ्यता के आदिकाल से सभ्य समाज तक आने की क्रमवार जानकारी तो देती ही है। साथ ही भारत के विश्व इतिहास से जुड़ाव और उसके आधुनिक राष्ट्र बनने तक के सफर से रूबरू कराती है।

मरियम
युद्ध के देवता
 जैसे ही मैंने प्रदर्शनी में प्रवेश किया मुझे ‘साझा शुरुआत’ खंड मिला। इसमें भारत में मिले आदिमानव काल के पत्थर के औजार और उसी जैसे अफ्रीका में मिले एक पत्थर के औजार के बीच तुलना करके देखी जा सकती है कि हमारी और उनकी विकास गाथा में हम कितना इतिहास साझा करते हैं। इसके आगे प्रदर्शनी में दुनियाभर में मिले बर्तनों की समानता दिखती है, जिसने मानव को खाने के भंडारण और उसमें विविधता लाने के लिए प्रेरणा दी।

सिकंदर महान की एक मूर्ति
 आगे बढ़ा तो मुझे ‘पहले शहर’ नाम का खंड मिला, यहाँ मैंने देखा कि कैसे उस शुरुआती समय में भी भारत के आम जनमानस ने सिंधु सभ्यता और उसके नगरों का निर्माण किया और कैसे लगभग उसी समय विकसित हुईं मेसोपोटामिया और मिस्र की सभ्यताएं हमें विश्व इतिहास में करीब लाती हैं। इसके बाद जब मैं आगे बढ़ा तो मेरा सामना ‘साम्राज्य’ खंड से हुआ। यह बताता है कि हम अकेले नहीं थे जिसने दुनिया में साम्राज्यों का दौर देखा। जहां भारत के मौर्य साम्राज्य की झलक यहाँ देखी जा सकती है, वहीं चीन और मिस्र के साम्राज्यों का इतिहास भी यहाँ दिखता है।

इस्लामी कला का एक नमूना 
 इस खंड में विभिन्न साम्राज्यों के सिक्के भी रखे गए हैं जो बताते हैं कि कैसे साम्राज्य अपनी मान्यता के लिए सिक्कों का प्रयोग करते थे। कैसे इन सिक्कों ने व्यक्ति पूजा को स्थापित किया। जब सिक्के इस्लाम जगत में पहुंचते हैं तो कैसे व्यक्ति और राज्य के गुणगान का स्थान कुरान की आयतें सिक्कों पर ले लेती हैं। चीन के सिक्के भी इस खंड में हैं। इन सिक्कों के बीच में छेद है जिसकी वजह इन सिक्कों को रस्सी में बांधकर रखे जाने के लिए सुविधाजनक बनाना था।

 सिक्कों से निकलकर धर्म और राज्य मूर्ति विधा में कैसे पहुंचा और उसने साम्राज्य के वर्णन के साथ-साथ कला और चित्रकारी को नया रूप कैसे दिन इसकी जानकारी मुझे अगले खंड ‘चित्रित और मनोहारी वर्णन’ में मिली। इस खंड में ब्रिटिश म्यूजियम से लायी गई कई कलाकृतियां ऐसी थी जिसने मेरा मन मोहा। मां मरियम, यीशू मसीह के अलावा कबीलाई ईश्वर, युद्ध के देवता और काष्ठ की बनी कई मूर्तियों के साथ कपड़े पर उकेरी गई इस्लामिक चित्रकारी ने  इतिहास के खूबसूरत पहलू की जानकारी करायी। आगे ‘भारतीय समुद्र व्यापार’ खंड में भारत के विश्व के साथ होने वाले समुद्री व्यापार की झलक देखने को मिली। यह खंड दिखाता है कि कैसे व्यापारिक आदान-प्रदान ने हमारी संस्कृति को प्रभावित किया।
राणा संग्राम की ढाल

रोमन शैली की काली मिर्च की डिब्बी
 यहां ब्रिटिश संग्रहालय से आयी एक 300 से 400 ईसवी की एक पुरानी काली मिर्च छिड़कने की डिब्बी ने मुझे सोचने पर मजबूर किया कि मानव सभ्यता में हमारा वर्तमान कितना कलाहीन होता जा रहा है। उस समय में मानव ने कैसे इतनी मामूली वस्तुओं में भी कला को इतना निखरा रुप दिया। यह कहीं ना कहीं वर्तमान में हमारे कलाबोध के ह्रास को दिखाती है। 

अकबर की युद्ध पोशाक
 इससे आगे  ‘दरबारी संस्कृति’ खंड में मुझे मुगल दरबार की शानोशौकत दिखी। इसमें अकबर की युद्ध पोशाक और तलवार के साथ राजपूतों के शौर्य को दर्शाती कला से परिपूर्ण राणा संग्राम सिंह की एक ढाल ने थोड़ी देर मुझे वंही खड़े रखा। इस ढाल पर उनकी कई लड़ाइयों की चित्रकारी की गयी है। इतना ही नहीं इस खंड में मैंने ईसाई संस्कृति के राजसी प्रतीक भी देखे।

 इसके बाद ‘आजादी के जुनून’ में भारत की आजादी की लड़ाई के कई पहलू और अंत में ‘असीमित काल’ खंड में वर्तमान में जारी युद्धक सोच और उससे समाज पर पड़ते प्रभाव यहाँ बहुत अच्छे से दिखाया गया है।



 कुल मिलाकर इसे एक बार जरूर देखा जा सकता है। अभी तो यह 30 जून तक यहाँ लगी है, तो देख लीजिये, क्योंकि वर्तमान में जब हम इतिहास का कुछ बिखरा कुछ धुंधला स्वरूप देख रहे हैं तो इस तरह की प्रदर्शनियां उसे एक नयी रोशनी देती हैं।

 साथ एक वीडियो भी साझा कर रहा हूँ...



शुक्रवार, 18 मई 2018

बहुत सी बातों पर 'राज़ी' करती एक फिल्म


 किसी भी फ़िल्म का वजूद, वह किस दौर में आयी है उस पर निर्भर करता है। चार्ली चैपलिन की 'द ग्रेट डिक्टेटर' सिर्फ इसलिए खास नहीं हैं कि वो हिटलर पर व्यंग्य करती है, या फिर वह क्राफ्ट की दृष्टि से बहुत ही बेहतरीन फिल्म है, बल्कि इन सबके बावजूद उसके अनोखे होने की एक और वजह उसका हिटलर के दौर में ही परदे पर और जनता के बीच आना थी।

 यही बात हाल में भारत में रिलीज हुई 'राज़ी' के बारे में कही जा सकती है। निर्देशक मेघना गुलज़ार ने फिल्म की कहानी पर बहुत अच्छे से काम किया है। उनकी पिछली फिल्म 'तलवार' के बाद यह उनकी नयी पेशकश है।

 मेघना की फिल्म उस दौर में आयी है जब हम अपनी 'राष्ट्र्भक्ति और 'देशभक्ति' का पैमाना सिनेमाघर में 'राष्ट्रगान' पर खड़े होने से नाप रहे हैं। यह फिल्म उस वक़्त में है जब पूरे कश्मीर को सिर्फ 'आतंकवादी' या  'देशद्रोही' मान लिया गया है।

 उस दौर में मेघना दर्शक को इस बात के लिए राज़ी करती हैं कि कश्मीरी भी देशभक्त होते हैं। उन्होंने भी इस राष्ट्र के निर्माण में अपनी भूमिका अदा की है। साथ ही यह फिल्म हमें हमारे वर्तमान के राष्ट्रभक्ति और देशभक्ति के पैमाने को दुरुस्त करने की बात पर भी राज़ी करती है। यह ‘सीमा पर हमारे जवान लड़ रहे हैं...’ के तर्क से शुरु नहीं होती बल्कि यह बताती है कि सीमा पर लड़े बिना भी अगर आप की नज़र में देश सबसे ऊपर है तो आप 19 साल की छोटी सी उम्र में भी बहुत कुछ कर सकते हैं।

 इसके अलावा यह फिल्म हमें किसी और बात के लिए राज़ी करती है तो वह है ‘अंधराष्ट्रभक्ति’ से बचने की बात पर। कैसे एक परिवार अपना सब कुछ देश के लिए लुटा देता है, फिल्म में इसे हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों के पक्ष से बखूबी दर्शाया गया है। राष्ट्रभक्ति दिखाने के लिए बड़े-बड़े दावे फिल्म का कोई किरदार नहीं करता, बस वह अपना काम पूरी ईमानदारी से करता है। कैसे एक पिता अपनी किशोर बच्ची को दुश्मन के घर सिर्फ इसलिए भेज देता है क्योंकि उसे देश की फिक्र है। और कैसे एक बेटी इसके लिए तैयार हो जाती है और उसके बारे में बनायी गई सोच को तोड़ते हुए अपनी सीमाओं से आगे जाकर देश की मदद करती है। यहीं फिल्म दिखाती है कि ‘अंधराष्ट्रभक्ति’ और वास्तविक ‘देशभक्ति’ में कितना अंतर है।

 आलिया भट्ट का किरदार इस बात के लिए राज़ी करता है कि देश से ऊपर कुछ नहीं, लेकिन उसमें भी मानवता को बनाए रखने की एक झलक दिखाई देती है। जहां वह भारत के देशभक्ति के पक्ष को रखती हैं तो वहीं विकी कौशल पाकिस्तान के पक्ष को फिल्म में दिखाते हैं।

 और इसी पूरी उधेड़बुन के बीच मेघना ने दोनों किरदार के बीच एक प्रेम कहानी को भी बड़े भावपूर्ण तरीके से बुना है।

 अगर बात फिल्म की स्टारकास्ट पर की जाए तो मेघना ने फिल्म के हर किरदार का चुनाव बहुत सावधानी से किया है। हर अभिनेता को अपने किरदार के साथ न्याय करने का मौका मिला है सिवाय विकी कौशल के, मेरे हिसाब से उनसे और बहुत कुछ फिल्म में कराया जा सकता था। रजित कपूर बहुत छोटी भूमिका में हैं, लेकिन प्रभाव छोड़ते हैं।

 हालाँकि आलिया भट्ट ने अपने अभिनय से सिद्ध किया है कि भले फ़िल्मी परिवार की पृष्ठभूमि से आने के चलते उनका फिल्म इंडस्ट्री में प्रवेश आसान रहा हो लेकिन उनके पास अभिनय की प्रतिभा है। आपको पूरी फिल्म में कंही भी महसूस नहीं होगा कि आप आलिया को देख रहे हैं, बल्कि आपको उनमें सिर्फ 'सहमत' नज़र आएगी। पूरी फिल्म को आलिया ने अपने कंधों पर टिकाये रखा है। इसके अलावा जयदीप अहलावत और शिशिर शर्मा भी अपनी छाप फिल्म में छोड़ते हैं।

 हालांकि फिल्म में कुछ तकनीकी खामियां हैं जिनमें एक दृश्य मेरे ज़हन में बस गया है। यदि फिल्म 1971 के दौर की बात कर रही है तो हेयरड्रायर भी उसी दौर का होना चाहिए जो कि नहीं है। ऐसी ही और कई तकनीकी खामियां है लेकिन आम दर्शक को उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

 फिल्म का संगीत, कहीं भी कहानी से कम नहीं बैठता। शंकर-एहसान-लॉय ने बहुत समय बाद लीक से हटकर संगीत दिया है और गुलज़ार के अल्फ़ाजों के साथ वह खूबसूरती से पिरोया गया है। यह बहुत हद तक आपको ‘मिशन कश्मीर’ की याद दिलायेगा। सबसे खूबसूरत फिल्म में ‘एे वतन’ गाने का फिल्मांकन है। आलिया और बच्चों के साथ फिल्माये गए इस गाने की अनोखी बात यह है कि बच्चे इस गाने को पाकिस्तान के लिए गा रहे हैं और ठीक उसी वक्त में आलिया इसे हिंदुस्तान के लिए गा रही हैं। इस गाने में इकबाल के ‘बच्चे की दुआ’ के कुछ बोलों को रखा गया है जो पाकिस्तान के स्कूलों में आज भी गायी जाती है और यह वही इकबाल हैं जिन्होंने ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ लिखा है।

 ऐसे में यह फिल्म भारत-पाकिस्तान की दुश्मनी को तो दिखाती ही है लेकिन उनकी साझा विरासत को बरकरार रखने के लिए भी कहीं ना कहीं राज़ी करती है।

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

एडिटिंग की मिसाल है, एन इन्सिग्निफिकेंट मैन

फिल्म का एक दृश्य
 दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की "आम आदमी पार्टी" ने अपने पांच साल पूरे होने का जश्न हाल ही में मनाया है। पार्टी के भीतर और पार्टी से अलग हुए नेताओं की टिप्पणियां भी हुईं और विपक्षियों के आरोप-प्रत्यारोप भी। पार्टी से नाराजों के भी बोल भी रहे और पार्टी के रास्ता भटक जाने की बातें भी। इसी समय में हमारे बीच एक फिल्म आई  "एन इन्सिग्निफिकेंट मैन", मैं इसे डॉक्युमेंट्री इसलिए नहीं कहना चाहता क्योंकि ये फिल्म उससे बहुत आगे जाती है।

 इस फिल्म के राजनीतिक पहलू पर बहुत बातें हुई हैं। इससे जुड़े लोगों के बारे में भी बहुत बातें हुईं हैं। लेकिन मेरा मानना है कि इस फिल्म ने एक बहुत बड़े स्टीरियोटाइप को तोड़ा है। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैंने इसे महसूस किया है। फिल्म रिलीज हुई 17 नवंबर को और मैं इसे 19 को ही देख आया।

 आमतौर पर भारत में दर्शक इस तरह की फिल्मों के लिए थिएटर में पैसा नहीं खर्च करता। लेकिन इस फिल्म में कुछ अलग है, मैंने दिल्ली के अनुपम साकेत में जब यह फिल्म देखी तो हॉल खचाखच भरा पाया। इसमें भी खास बात देखने वालों में युवाओं की संख्या ज्यादा होना लगी।

 अब लोग कह सकते हैं कि केजरीवाल की ब्रांड वैल्यू इससे जुड़ी है इसलिए भीड़ चली आयी। लेकिन मेरे हिसाब से सचिन की "बिलियन ड्रीम्स" को भी ऐसा रिस्पांस नहीं मिला था, और सचिन तो पीढ़ियों पर राज करने वाला ब्रांड रहे हैं। तो फिर क्या खास है इस फिल्म में जो इसे लोगों के लिए इतना रुचिकर बनाता है।

 मेरे हिसाब से इस फिल्म की एडिटिंग इसकी जान है और यही इसे इतना खास बनाती है। मैंने शुरू में ही कहा कि इसे डॉक्युमेंट्री कहना इससे जुड़े लोगों की काबिलियत को काम आंकना होगा। मुझे नहीं लगता कि इसके निर्देशकों के पास किसी तरह के फुटेज की कमी रही होगी, लेकिन उन फुटेजों का कैसे और कहाँ इस्तेमाल करना है। कैसे फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाना है, ये काम किया है इसकी एडिटिंग ने।

 फिल्म में एक दृश्य जो मुझे प्रभावित कर गया वो था केजरीवाल का सत्याग्रह फिल्म देखकर थिएटर से बाहर निकलना और एक टीवी रिपोर्टर को इंटरव्यू देना। उस दौरान कैमरा का एक फोकस केजरीवाल के अपनी शर्ट के कोने से साथ खेलने को दिखाता है। यह अपने आप में किसी फिल्म के नायक के चरित्र को स्थापित करने वाला दृश्य है।

 यह किसी फीचर फिल्म की तरह ही अपने नायक को गढ़ने का दृश्य है। फिर धीरे-धीरे फिल्म में योगेंद्र यादव का असर दिखना शुरू होता है, जो बताता है कि फिल्म में नायक है लेकिन एक प्रति नायक भी है। प्रति नायक शब्द का इस्तेमाल हूँ क्योंकि योगेंद्र खलनायक नहीं हैं।

 चूँकि नायक अरविन्द हैं तो फिल्म में खलनायक होना तो जरुरी है ही, और इसके लिए चुना गया उस समय दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित को। उनके ऐसे फुटेज इस्तेमाल किये गए जो आपको बरबस हंसने पर मजबूर कर देंगे। फिर वह चाहें चुनाव प्रचार के दौरान दलेर मेहंदी के गाने पर उनका मेज थपथपाना हो या चुनाव नामांकन के दौरान अरविन्द के ऊपर जोक सुनाना। यह उनके चरित्र को फिल्म में पूरी तरह खलनायक तो नहीं लेकिन उसके लगभग बराबर ही रखता है।

 फिल्म बोझिल न लगे इसलिए इसमें एक मसाला फिल्म के लगभग सभी मसाले दिखते हैं। जब आप पार्टी की नेता संतोष कोली की मौत हो जाती है तो उसके अगले दिन की एक सभा का फुटेज फिल्म में इस्तेमाल  किया गया है। उस दृश्य में अरविन्द के चेहरे पर वह सारे भाव नज़र आते हैं जो इस घड़ी में हक़ीक़त में होने चाहिए और ये दृश्य फिल्म के नायक को दर्शक के करीब लाता है।

 ऐसा ही एक और दृश्य है जहाँ एक मोहल्ला सभा में एक महिला अरविन्द को पावर देने की बात करती है। इस फुटेज को फिल्म में रखने का निर्णय बताता है कि निर्देशक अपने चरित्र को कैसे गढ़ना चाहता है। फिल्म में एक दृश्य कुमार विश्वास और अरविन्द के बीच हास-परिहास का भी है। यह हमारे नेताओं के बीच आम इंसान की तरह होने वाले हंसी मजाक के साथ-साथ उनकी एक मिथक छवि को तोड़ने का भी काम करता है।

 भारतीय समाज अपने नेता को इंसान मानने के लिए तैयार ही नहीं है। वह या तो कोई दैवीय पुरुष, शक्ति या परमावतार होता है, वह इंसान नहीं होता। इसलिए जब हम उनके लिए कहानी या फिल्म लिखते हैं तो वह "लार्जर देन लाइफ" होती है। एक समय में अरविन्द ने इस छवि को तोडा था और यह फिल्म उसी को आगे बढाती है। यह हमे हमारे नेताओं को अपने बीच का समझने में मदद करती है।

 और अंत में एक बात फिल्म बनाने वालों के लिए, हिंदी में "मुख्यमंत्री" सही शब्द है, "मुख्यामंत्री" नहीं जैसा कि फिल्म के अंत में लिखा दिखाया गया है।

फिल्म के निर्देशक विनय और खुशबू

बुधवार, 26 अप्रैल 2017

बेग़म जान : बेहतरीन हुनर की बरबादी

 हुत दिनों से कुछ लिखा ही नहीं या यूँ कहें कि लिखने का मन ही नहीं। लेकिन जब आज सोचा कि कुछ लिखा जाए तो ख्याल आया कि इसकी शुरुआत किसी फिल्म से क्यों न की जाये?


 सोच तो रहा था कि "बेग़म जान" पहले ही देख लूंगा लेकिन जब आज देखा तो लगा कि सही किया जो इसे पहले नहीं देखा। हमारे यहाँ किसी के हुनर को बर्बाद कैसे किया जाता है, इसकी बानगी है ये फिल्म। कई बड़े नाम इस फिल्म में हैं जैसे नसीरुद्दीन शाह, आशीष विद्यार्थी , रजित कपूर, राजेश शर्मा, इला अरुण और विद्या बालन, जिन्होंने तरह-तरह के किरदार में अपने अभिनय का लोहा मनवाया है। लेकिन 'बेग़म जान' की लचर कहानी इनकी इस काबिलियत का ठीक से इस्तेमाल ही नहीं कर पाती। 

 फिल्म कहानी इतनी है कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बंटवारा हो गया है। दोनों देशों के बीच सीमा रेखा खींची जानी है जो "बेग़म जान" के घर के बीच में से निकलती है। बेग़म जान के किरदार में विद्या बालन हैं और वो एक तवायफ़खाना की मालकिन है जिसके बीच से ये सीमा गुजरनी है। 

 फिल्म की इतनी पटकथा समझ में आती है और जायज़ भी लगती है। इतनी सी  कहानी को लेकर अगर चंद्रप्रकाश द्विवेदी जैसा कोई निर्देशक होता तो "पिंजर" जैसी शानदार फिल्म बना सकता था।

 लेकिन निर्देशक सृजित मुखर्जी बस यंही से अपनी कहानी से भटक जाते हैं जिसमें न तो वेश्याओं की संवेदनाएं हैं, न विभाजन की त्रासदी का असर और न ही अपने कोठे को बचाने के लिए जान दे देने के पीछे का तर्क, बस सब मरते जा रहे हैं , लेकिन क्यों, इसका जवाब कहीं भी फिल्म में नहीं हैं। 

 अगर फिल्म में विद्या बालन के दो चार संवाद के अलावा कुछ देखने लायक है तो बस आशीष विद्यार्थी और रजित कपूर के आधे-आधे चेहरों के साथ शूट किये गए कुछ दृश्य जिसके भाव भी अच्छे हैं और सिनेमाटोग्राफी भी बढ़िया है। यहाँ तक कि नसीर भी कोई असर नहीं छोड़ते। इससे बेहतर नवाब या राजा का किरदार उन्होंने "डेढ़ इश्क़िया" में किया है। इससे पहले हमने "इश्किया" में नसीर यार विद्या को साथ देखा है और वो दोनों किरदार आपके फलक पर आज भी ज़िंदा हैं लेकिन यहाँ दोनों ही फीके हैं।

 बाकी किसी किरदार में कोई जान नहीं है और न ही वो कोई प्रभाव छोड़ने वाला है। सिर्फ विद्या किसी तरह अपने कन्धों पर फिल्म को ढोती हुई नजर आ रही हैं। चंकी पांडे ने यूँ तो फिल्म में खलनायक की भूमिका निभाई है लेकिन  सिरहन नहीं पैदा करता बल्कि उन पर उनकी हाउसफुल सीरीज का छिछोरापन ही हावी दिखता है।

हालाँकि लाड़ली के किरदार में ग्रेसी का कपड़े उतारने वाला दृश्य पूरी तरह से अचंभित करने वाला है जहाँ उसकी आँखें अभिनय कर रही हैं। 

 इनमें से किसी की भी अभिनय क्षमता पर कोई सवाल नहीं हैं लेकिन अच्छे हुनर की बर्बादी ऐसे ही की जाती है। बहुत साल पहले "चाइना गेट" नाम से एक फिल्म आयी थी, तब मैं बहुत छोटा था तो उतनी समझ नहीं थी लेकिन जब हाल में उसे मैंने दुबारा देखा तो समझ में आया कि वो फिल्म कम बल्कि एक वृद्धाआश्रम ज्यादा थी।

 उस फिल्म में भी नसीर के अलावा अमरीश पुरी, जगदीप, ओमपुरी, डैनी जैसे अपने दौर के मंझे कलाकार थे। लेकिन उस फिल्म में नया कुछ भी नहीं था, क्योंकि हम इन कलाकारों को उसी रूप में देखने के आदि थे। इसी तरह "बेग़म जान" इन बड़े अभिनेताओं की नुमाइश है जो कुछ कर नहीं रहे हैं लेकिन बस कर रहे हैं। हम ये क्यों नहीं समझते कि अच्छी फिल्म अच्छी कहानी पे बनती है न की यूँ अभिनेताओं के जमावड़े से। 

 "बेग़म जान" की कमी सिर्फ उसकी लचर कहानी नहीं है, बल्कि फिल्म ट्रीटमेंट के हिसाब से भी ख़राब है। फिल्म में पहनावे और भाषा पे कोई ध्यान नहीं है। यदि वो होता तो शायद फिल्म को झेल पाना थोड़ा और आसान होता। विद्या अकेले के अलाव निर्देशक को सबको जिम्मेदारी देनी चाहिए थी और खुद भी थोड़ा ईमानदारी से काम करते तो फिल्म अच्छी होती। 

 अब देखना न देखना आपकी मर्जी है। मुझे तो ये ऐसी ही लगी। वैसे अगर आपने "पिंजर" न देखी हो तो एक बार देख जरूर लेना। 

रविवार, 17 जुलाई 2016

कितने दूर चले गए हमारे नेता?


 भी पिछले दिनों एक किताब "डिकोडिंग राहुल गांधी" को पढ़कर ख़त्म किया। ये राहुल गांधी के 2012 तक के सफर (अमूमन असफलताओं) की कहानी कहती है। पत्रकार आरती रामचंद्रन की इस किताब को आये लम्बा समय बीत चुका है इसलिए उसके बारे में बहुत कुछ लिखा और पढ़ा जा चुका होगा, ऐसा मुझे लगता है। इसलिए मैं यहाँ किताब के बारे में ज्यादा ज़िक्र नहीं करूँगा। लेकिन हाँ इस किताब ने मन में कई सवालों को जन्म दिया उन पर तो बात की ही जा सकती है।

 इस किताब को आप राहुल गांधी की एक अनाधिकारिक जीवनी (क्योंकि राहुल के बारे में कोई अन्य किताब उपलब्ध नहीं है) मान सकते हैं जो उनके जीवन के बहुत छोटे से कालखंड की बात करती है। लेकिन यह कितना विचित्र है कि राहुल पर लिखी गयी किताब में लेखक ने अपनी सिर्फ एक मुलाकात का ज़िक्र किया है बाकि जितने भी संदर्भ और वर्णन हैं वो सब दस्तावेजों और सहयोगियों से जुटाए गए हैं।

 अब ये मेरी समझ से परे है कि किसी से एक मुलाकात में आप कितना उसके बारे में जान पाएंगे। यहाँ आम जीवन में रोज़ाना दफ्तर या कामकाज के दौरान में मिलने वाले लोगों को हम सही से नहीं जान पाते तो एक नेता को कैसे जान सकते हैं ? खैर किताब में राहुल के बारे में कई रोचक जानकारियां हैं जिनके बारे में शायद आम जनता को पता भी नहीं हो।

 आज़ादी के हमारे नायकों ने अपने जीवन में कई किताबों को लिखने का श्रम किया। उस दौर में वो अपने साथियों को पत्र लिखा करते थे जिसमें उनकी अपनी निजी भावनाओं का पता चलता था। अगर जानना है कि पत्र किसी के अंदर ने मनुष्य को कैसे बाहर निकालते हैं तो गांधीजी और टॉलस्टॉय के बीच का पत्राचार पढ़िए। खैर इस दौर की तो कमी यही है कि इतिहास विलुप्त हो रहा है और नया इतिहास लिखा जा रहा है।

 नेहरू-गांधी परिवार में राजीव गांधी के बाद जब से नयी पीढ़ी का उदय हुआ है तो ये लिखने की परंपरा कंही पीछे छूट गयी है। नेताओं का जन संवाद खत्म हो गया है और उसकी जगह चाटुकारों ने ले ली है। इसलिए आरती की किताब में भी राहुल का चित्रण उनके चाटुकारों के माध्यम से ही ज्यादा हुआ है।

 खैर मैं राहुल की बात का अंत यंही करना चाहूंगा क्योंकि उनके जमा खाते में कुल मिलाकर "स्वयं सहायता समूह" की एक मात्र उपलब्धि है। वैसे यह कार्य भी मनमोहन सरकार की योजनाओं का हिस्सा था इसमें राहुल क्या योगदान है वो मुझे नहीं पता ! किताब भी राहुल के समस्याओं से भागने की ही बात करती है। 

 रंज इस बात का नहीं कि हम अपने नेताओं के बारे में कितना जानते हैं, सवाल ये है कि लोकतंत्र में सुरक्षा के नाम पर हमारे नेता लोक से ही दूर हो चलें हैं। फिर वो चाहें अपने आप को चाटुकारों से मुक्त बताने वाले नरेंद्र मोदी हों या अरविन्द केजरीवाल। इनमें से कोई भी जनता के लिए आसानी से उपलब्ध नहीं है। 

 मैंने अपने बड़ो से नेहरू-गांधी दौर के कई किस्से सुने हैं उनमें से एक किस्सा नेहरू से जुड़ा है- (अभी इसकी सत्यता की जाँच की जानी बाकी है, लेकिन फिर भी किस्सा तो है, जांचने वाले इस किस्से जुड़े तथ्य बताएं तो बेहतर होगा।)
"एक बार जवाहरलाल नेहरू तीनमूर्ति वाले घर से निकल रहे थे तो उन्होंने एक बुजुर्ग सफाईकर्मी को झाड़ू लगाते देखा। उस समय झाड़ू में डंडा नहीं लगा होता था तो उस बुजुर्ग को झुककर झाड़ू लगानी पड़ रही थी। यह देखकर नेहरू रुक गए और उस बुजुर्ग से बात करने पहुँच गए। उसके बाद उन्होंने सरकारी सफाईकर्मियों की झाड़ू में डंडा लगाने का निर्णय लिया और ऐसे ये परंपरा शुरू हुई।"
  हालाँकि मोदी ने भी एक दो बार ये जताया कि वो सर्व सुलभ होने की इच्छा रखते हैं। लेकिन यह मुझे रस्मी ज्यादा लगा। भारतीय राजनीति अन्य उभरते सितारे केजरीवाल के बारे में तो यही कहा जाता है कि सर्व सुलभ होना तो दूर वो तो कई बार अपने विधायकों के लिए भी उपलब्ध नहीं होते।

 सोचना हमें ही है कि क्या हम अपने नेताओं को ऐसे ही दूर से देख के मनोरंजन करना चाहते हैं या उन्हें अपने जीवन में अपनाकर लोकतंत्र का उत्सव मनाना चाहते हैं क्योंकि मांगेगे नहीं तो मिलेगा भी नहीं। रही बात मनोरंजन की तो देखने से भी हो जाता है जबकि उत्सव में भाग लेना होता है।

 वैसे अब नेताओं ने लिखना छोड़ दिया है और सरकारी अधिकारियों ने लिखना शुरू कर दिया है। नेहरू-गांधी परिवार में इंदिरा के बाद तो शायद ही किसी ने कुछ लिखा हो, तो हमें अपने नेताओं के बारे में पता कैसे चलेगा। भाजपा में लिखने को अच्छी विधा नहीं माना जाता तभी तो लिखने वाले जसवंत सिंह का क्या हश्र हुआ सबको पता है और लाल कृष्ण आडवाणी भी "माय लाइफ माय कंट्री" लिखने के बाद कहाँ हैं ये भी सभी को दिखाई दे रहा है।

 खैर अभी इंतज़ार करिये क्या पता मनमोहन सिंह ही कुछ लिख दें...

गुरुवार, 7 जुलाई 2016

अच्छा हुआ कपिल कलर्स छोड़ आए

वडाली बंधु कपिल के शो में
 च्छा ही हुआ कि कपिल शर्मा ने कलर्स चैनल छोड़ दिया। इसी वजह से कम से कम वो टाइप्ड होते-होते बच गए। कलर्स पर जब उनका शो आ रहा था तो उसमें विविधता (वैरिएशन) की बहुत कमी थी। उनकी हाज़िर जवाबी भी भद्दे मजाक में तब्दील हो रही थी, लेकिन वो जब से सोनी पर अपने शो का नया रूप लेकर आये हैं ये एकदम बदला-बदला सा है।

 उनके नए शो में कलाकारों की प्रस्तुति, उसके अतिथियों में, उसकी भाषा में और विषयवस्तु अभी में बहुत बदलाव आया है जो उन्हें फिर से नकलची होने से बचाता है और ये बताता है कि असल की ताकत बहुत बड़ी है। 

 खैर यहाँ बात उनके हाल में आए वडाली बंधु वाले एपिसोड की करते हैं। आम तौर मेरे जैसे संगीत प्रेमियों का वडाली बंधुओं से परिचय उनके गीतों से ही है। उनका 'तू माने या न माने दिलदारा' गाना मुझे कॉलेज के समय से पसंद है और नयी पीढ़ी के लखविंदर वडाली का 'चरखा' अभी कुछ समय पहले ही मन में बसा है। उनका गायक के अलावा एक आम इंसान के रूप में परिचय कपिल के सोनी पर आने के बाद ही हो पाया। उन्हें किस्सागोई करते, डांस करते देखना कितना नया है? मात्र चाय न पिलाने के कितने किस्से, सब स्मृति में समाने लायक।

 सोनी पर आने के बाद कपिल का शो बॉलीवुड के परकोटे से बाहर आया है। उनके शो में अब बॉलीवुड फिल्मों के पब्लिक रिलेशन और प्रचार मंच से आगे बढ़ने की कसक दिख रही है। मराठी फिल्म 'सैराट' के कलाकारों को हिंदी के दर्शकों से रूबरू कराना अपने आप में बताता है कि कपिल की सोच में बदलाव आया है। मैं यह बात इसलिए भी लिख रहा हूँ क्योंकि कपिल इस शो के सह-निर्माता भी हैं।

 सानिया मिर्जा और ड्वेन ब्रावो की बॉलीवुड सितारों के साथ जोड़ी बनाकर किया गया उनका प्रयोग स्पष्ट करता है कि वो असल करने में विश्वास करते हैं,नक़ल में नहीं। अब यूँ तो हम नवजोत सिंह सिद्धू को कई बरसों से हँसते देख रहे हैं लेकिन उनका परिवार कैसा है इसके बारे में हमें कपिल के शो ने ही बताया।

 देखा जाए तो कपिल का शो अब ज्यादा मानवीय स्वरूप लिए हुए है। इससे पहले टीवी पर आए फारुख शेख के 'जीना इसी का नाम है' और ऋचा अनिरुद्ध के 'ज़िंदगी लाइव' जैसे टॉक शो ही मुझे याद हैं जिनके मूल में मानवीय संवेदनाएं हैं। 'जीना इसी का नाम है' में फिल्म, राजनीति, कारोबार, प्रशासन और खेल जगत से जुड़ी कई हस्तियां शामिल रही तो वहीं 'ज़िंदगी लाइव' में ये संवेदनाएं आम लोगों के जीवन संघर्ष से जुड़ गईं।  

 हालाँकि मेरा प्रयास यहाँ किसी भी प्रकार से इन सभी शो की तुलना करना नहीं है क्योंकि कपिल का शो अच्छा है लेकिन अभी भी इन दोनों शो के स्तर का नहीं है। चूँकि कपिल के शो में हास्य प्रधान है तो उसमें संवेदनाएं भी हल्के-फुल्के अंदाज वाली हैं, अब आप चाहें तो गोविंदा या राहत फ़तेह अली खान के शो को ही देख लें। 

 टीवी के लिए शेखर सुमन, सिमी ग्रेवाल, करण जौहर, रजत शर्मा और अनुपम खेर ने भी टॉक शो बनाए, लेकिन इनमें से अधिकतर या तो चकाचौंध भरे या उपदेशात्मक रहे। सितारों के जीवन की मानवीय संवेदनाएं इन शो में उतने अच्छे से उजागर ही नहीं हुई। इस जमात में आमिर खान का 'सत्यमेव जयते' और अमिताभ बच्चन का 'आज की रात है जिंदगी' भी शामिल किये जा सकते हैं लेकिन ये मूलतः टॉक शो नहीं थे।

 वडाली बंधुओं वाला एपिसोड न सिर्फ कपिल को टाइप्ड होने से बचाता है बल्कि हमारा परिचय उस किस्सागोई से भी कराता है जो स्मार्टफोन की तकनीक और समाज से खत्म होते हास्य बोध से हमारे जूझने के बीच खत्म हो रही है। ये हमें वापस व्यक्तिवाद से सामाजिक बनने को प्रेरित करता है और हमारे जीवन के हर पहलू में घुस चुकी राजनीति से हमे थोड़ी देर के लिए दूर ले जाता है।

 ज़रा सोचिये कि सिर्फ चाय न पिलाने जैसी बात पर कितनी बातें और कितने ठहाके इस शो में लगे। ये 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा' के अंत में दावा किये जाने वाले ठहाकों से तो बेहतर ही है। छोटे शहरों में जब लाइट चली जाती थी तो लोग छत की मुंडेर पर बैठकर ऐसी ही किस्सागोई किया करते थे। खैर सरकार अब गांवों में भी 24 घंटे बिजली देने में लगी है तो पता नहीं भविष्य में भी ये वहां बचेगी या नहीं क्योंकि सार्वजानिक यात्रा का सामाजिक संवाद तो वैसे ही कान में ठुंसे हेडफोन खा गए। कितना विचित्र है कि हर सुविधा भी हमारे लिए नामाकूल ही है।

 कपिल के शो की अंतिम बात जो मुझे पसंद है वो यह कि उसकी भाषा बिल्कुल सहज और जमीन से जुड़ी है। उसमें वही देसीपन है जो हमारे आपके बीच संवाद में होता है। वो बेड़ियों में वैसे नहीं बंधी है, जैसे कि "भाभी जी घर पर हैं' की भाषा में जकड़न है। कपिल में एक और जो बदलाव इस शो में दिख रहा है वो यह कि अब उनके ऊपर उनकी 'श्रेष्ठता' का अहम हावी नहीं है तभी तो वो सुनील ग्रोवर को पूरा मौका देते हैं और सुनील ग्रोवर जो कर रहे हैं उसकी चर्चा फिर कभी...
सुनील और कपिल

सोमवार, 11 जनवरी 2016

बनारसीपन की पहचान है 'मोहल्ला अस्सी'

  हो सकता है कि इसे लिखने में मैंने काफी देर कर दी हो लेकिन मैं चाहता था कि  पहले किताब को पढ़ लिया जाए उसके बाद ही इस फिल्म को देखा जाए। ‘मोहल्ला अस्सी’, जी हाँ मैं इसी फिल्म की बात कर रहा हूँ।

 डाॅ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने इसी नाम से फिल्म बनाई है, जो बनारस की पृष्ठभूमि पर आधारित काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ पर आधारित है। अगर इस फिल्म का आप पूरा रस लेना चाहते हैं तो पहली सलाह है कि ‘काशी का अस्सी’ जरूर पढ़ लें। हां अगर नहीं भी पढ़ेंगे तो भी इस फिल्म को समझने में कोई परेशानी नहीं होगी और फिल्म का देसीपन आपको लुभाएगा, लेकिन अगर उपन्यास पढ़ लिया तो रस का आनंद आएगा।


पहले परिचय थोड़ा ‘काशी का अस्सी’ से, इसके लेखक वही काशीनाथ सिंह हैं। हम यहां बात उनके उपन्यास या यूं कहें कि समान पात्रों को लेकर पिरोई गई पांच कहानियों की कर रहे हैं। जो लोग बनारस में रहे हैं या जिन्होंने उसे नजदीक से देखा है, तो वह इस किताब से अच्छी तरह परिचित होंगे और इसकी बातें भी उनके लिए बिल्कुल सामान्य होंगी। लेकिन जो लोग बनारस नहीं गए या जिन्हें वहां का सउर नहीं, उनके लिए इस किताब का मतलब है कि वह इसे पढ़कर भारत की अपनी देशज परंपराओं से कुछ हद तक वाकिफ हो सकते हैं, खासकर अंतिम अध्याय में कहानी सुनाती मंडलियां कई गूढ़ बातों को गानों की रवां में ही कह जाती हैं।

 सजीव से पात्र और सजीव सा उनका आकर्षण यही इस किताब की खासियत है और यह बात मैं अभिभूत होकर नहीं कह रहा हूं, लेकिन जो लोग छोटे शहरों से संपर्क रखते हैं उन्हें यह बात अच्छी तरह मालूम होगी कि हर शहर की अपनी एक संस्कृति और भाषा होती है और इस किताब में बनारस के सिर्फ एक मोहल्ले की कहानी है लेकिन वह आचरण में पूरे बनारस की तस्वीर पेश करती है। बाकी आप इस किताब को पढ़कर खुद ही पता लगाएं सारा कुछ मैं ही लिखूंगा क्या ?

 अब बात करते हैं ‘मोहल्ला अस्सी’ की, कहते हैं कि फिल्म की कहानी का कथानक कुछ भी और किसी भी दौर का हो, लेकिन वह जिस देशकाल में बनी है वही उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण है। डाॅ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी को हम गंभीर विषय उठाने के लिए जानते हैं फिर वह चाहे धारावाहिक के रूप में ‘चाणक्य’ हो या फिल्म के रूप में ‘पिंजर’ और ‘जेड प्लस’, सभी के विषय प्रभावी और समाज को लगभग आईना दिखाने वाले।

 ‘मोहल्ला अस्सी’ आधिकारिक रूप से पर्दे पर प्रकट नहीं हुई इसे आपको गैर कानूनी तरीके से इंटरनेट की सेवा का प्रयोग करते हुए ही देखना होगा। अब मौजूं सवाल यह है कि यह रिलीज क्यों नहीं हुई तो इसकी एक वजह यह है कि इसमें गालियों के इस्तेमाल में कोई पशोपेश नहीं रखा गया है, रखा भी नहीं जा सकता था क्योंकि ‘काशी का अस्सी’ भी वैसा ही है। अब जिस देश में सेंसर बोर्ड फिल्मों में कुछ शब्दों पर पाबंदी लगा दे वहां ‘भोसड़ी के’ शब्दयुग्म की भरमार के साथ कोई फिल्म कैसे रिलीज हो सकती है।

 खैर बात हो रही थी फिल्म के देशकाल की, यूं तो फिल्म की कहानी 90 के दशक के बदलाव के दौर की कहानी है जिसने हमें बहुत कुछ दिया लेकिन समाज से बहुत कुछ छीना भी और यह फिल्म उसी उधेड़बुन को ‘पप्पू की दुकान’, ‘धर्मनाथ पांड़े’ और बनारस के घाट किनारे वाले ‘मोहल्ला अस्सी’ से पेश करती है। इसमें बात है मंडल आयोग की, बाबरी मस्जिद विध्वंस की और एक आयातित संस्कृति से खुद को बचाने की जद्दोजहद की।

अब चूंकि इस समय सरकार देश में भाजपा की है और फिल्म कहीं ना कहीं उनको कठघरे में खड़ा करने का काम करती है तो इसका रिलीज होना लाजिमी नहीं लेकिन उसके बबवजूद ऐसे समय में इस फिल्म का बनना इसकी स्वीकार्यता को बढ़ा देता है।

 खैर बातें बहुत हुईं, अब फिल्म पर आते हैं। किताब में कई किरदार हैं और उनकी कई कहानियां लेकिन फिल्म में आप इतना घालमेल नहीं कर सकते तो फिल्म मुख्य पात्र धर्मनाथ पांड़े के किरदार के इर्द-गिर्द घूमती है।

 हालांकि मुझे इस किरदार में सनी देओल मिसफिट ही लगे क्योंकि जिन दृश्यों में चरित्र का काईंयापन दिखाना था वहां उनका चेहरा भावशून्य नजर आता है। इतना ही नहीं इस किरदार में थोड़ा तोंदू सा व्यक्ति ज्यादा सटीक लगता ना कि कोई बलिष्ठ व्यक्ति जैसे कि सनी देओल हैं। हो सकता है कि उन्हें फिल्म की थोड़ी सी स्टार वैल्यू बढ़ाने के लिए रखा गया हो क्योंकि उनके अलावा पूरी फिल्म में कोई सितारा हैसियत वाला कलाकार नहीं है।

 देखा जाए तो बनारस के पंडा के किरदार में सौरभ शुक्ला ज्यादा जंचते हैं।  बेहतर ही होता यदि वे धर्मनाथ पांड़े के किरदार में होते, क्योंकि फिल्म का विषय ऐसा है कि उसे सनी देओल जितने स्टारडम की जरूरत नहीं थी।

 अगर मैं इसी संदर्भ में बात करूं तो बनारस की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘धर्म’ में पंकज कपूर अपने कंधों पर पूरी फिल्म को खड़ा रखते हैं, वहां स्टार की जरूरत नहीं थी, खैर सनी इतने भी फीके नहीं लगे हैं, वह फिल्म को बांधे रखते हैं।

 फिल्म में धर्मनाथ पांड़े की पत्नी सावित्री के किरदार में हैं साक्षी तंवर। उन्होंने अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है और वह फिल्म में उपन्यास की सावित्री को जीवंत रूप देने में वह पूरी तरह समर्थ रही हैं। लेकिन रवि किशन अब सच में बोरियत महसूस कराने लगे हैं क्योंकि ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ से लेकर अब तक उनके अभिनय में लेशमात्र भी अंतर नहीं आया है और हर फिल्म में उनका अभिनय समान ही रहता है।

 बाकी अन्य चरित्र कलाकार ही इस फिल्म की जान हैं फिर वह चाहें वकील साहब हों या प्रोफेसर साहब या बारबर बाबा सभी चरित्रों को पुस्तक से जैसा का तैसा लिया गया है। कई पात्रों के संवाद भी सीधे पुस्तक से लिए गए हैं जो किताब और फिल्म दोनों की मौलिकता को बनाए रखते हैं।

 'मोहल्ला अस्सी' में उस उधेड़बुन को पूरी तरह महसूस किया जा सकता है जो अभी हमारे समाज में व्याप्त है और पिछले 25 सालों से हम इसी उलझन से निकलने की कोशिश कर रहे हैं तो देखते हैं कि कब निजात मिलती है इन सब से। और इस फिल्म के अंत से यह सीखने की जरुरत नहीं कि आपको कहाँ जाना है अंततः , क्योंकि मेरे हिसाब से फिल्मों से ये बात नहीं सीखी जाती। तो बस आनंद लीजिये फिल्म का, हाँ फिल्म के संगीत में बिलकुल भी जान नहीं है।

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

'आरुषि' से 'तलवार' तक का सफर

साल  2008 के आरुषि-हेमराज दोहरे हत्याकांड पर आई अविरूक सेन की 'आरुषि' मैंने पहले पढ़ ली थी लेकिन मुझे इंतज़ार था मेघना गुलज़ार की फिल्म 'तलवार' का।

 जब आप 'आरुषि' पढ़ना शुरू करेंगे तो शुरूआती पन्ने पलटते हुए ही यह लगने लगता है कि अविरूक अपनी जांच-पड़ताल में तलवार दंपत्ति (आरुषि के माता-पिता) को पहले निर्दोष साबित कर चुके हैं, बाकी पूरी किताब में बस वो इसके पक्ष सबूत देते रहते हैं। खैर ये मेरी अपनी सोच है इस किताब के बारे में,  जब आप पढ़ें तो अपना नजरिया अपनाएं।

 बहरहाल 'आरुषि' में यदि चरित्रों के चरित्र हनन से अविरूक बचने का प्रयास करते तो शायद यह किताब उसे ज्यादा प्रामाणिक बना देती लेकिन इस किताब का पूरा सार आपको अंत के कुछ पन्नों में ही मिल जाएगा, जहाँ उन्होंने अधिकतर चरित्रों के साथ अपने साक्षात्कार को लिखा है। इन साक्षात्कारों के और पहलू भी हो सकते हैं लेकिन हमारे सामने वही उपलब्ध है जो तलवार दंपत्ति को निर्दोष बताने के लिए जरूरी है।

 निजी तौर पर मैं यह मानता हूँ कि यदि तलवार दंपत्ति निर्दोष हैं तो उन्हें न्याय मिलना चाहिए, लेकिन यदि वे दोषी हैं तो ? यह सवाल हम सभी को अपने से पूछना चाहिए। अविरूक की किताब इस तथ्य को जरूर सामने रखती है कि इस मामले की जांच में प्रारंभिक स्तर (पुलिस) पर बेहद गलतियां हुईं जिससे इसकी ये गत हुई। हालाँकि इस बात को साबित करने के लिए उन्हें जज, पुलिस प्रमुख और सीबीआई प्रमुख के चरित्र हनन की जरूरत नहीं थी लेकिन शायद मीडिया ट्रायल की आदत की वजह से बस उन्होंने इस बार इस कहानी का रुख थोड़ा बदल दिया।

 चूंकि फिल्म हर हाल में किताब से ज्यादा सशक्त माध्यम है इसलिए इस विषय पर बनी फिल्मों का ज़िक्र करना जरूरी है। इस विषय पर कुछ समय पहले आशीष विद्यार्थी, के. के. मेनन और टिस्का चोपड़ा की भूमिकाओं वाली एक एक फिल्म आई थी 'रहस्य'। फिल्म के नाम के अनुरूप ही यह फिल्म रहस्यात्मक थी। इसका आरुषि मामले से क्या लेना-देना यह खोजना की सबसे बड़ा रहस्य था। खैर ये फिल्म नहीं चली, लेकिन इन दिनों मेघना की फिल्म 'तलवार' का काफी शोर है और इसमें इरफ़ान खान के अभिनय की तारीफ भी हो रही है।

 'तलवार' की कहानी भी अविरूक की 'आरुषि' की तरह शुरू होती है। क़त्ल के बाद का दृश्य, पुलिस की पड़ताल और फिर सीबीआई तक जांच का पहुंचना। पूरी किताब को यहाँ फिल्म की कहानी के रूप में चस्पां कर दिया गया है और सीबीआई के पहले जांच अधिकारी अरूण कुमार की तफ़्तीश पर ही यह फिल्म आधारित है। तो फिर क्या है जो इस फिल्म को 'रहस्य' और 'आरुषि' से अलग करता है।

  'तलवार' को अलग करता है इसका फिल्मांकन, पटकथा की कसावट और पात्रों का अभिनय। विशाल भारद्वाज की लिखी पटकथा एकदम कसी हुई है, पूरी फिल्म के दौरान इसमें रत्तीभर भी टस से मस होने की गुंजाइश नहीं है। फिल्म का एक-एक फ्रेम कहानी को आगे बढ़ाता है और उसे बोझिल नहीं होने देता, हालाँकि अश्विन कुमार (इरफ़ान) की निजी जिंदगी की कहानी गैर जरूरी लगती है लेकिन वो भारीभरकम फिल्म के बीच अल्पविराम की तरह है।
इरफ़ान और कोंकणा दृश्य में

 इरफ़ान का अभिनय पूरी फिल्म को एक धारा पर टिकाये रखता है और 'रहस्य' फिल्म भटकाव से बचाता है। हर दृश्य में उनकी काबिलियत नजर आती है। जब वह एक जांच अधिकारी के रूप में तथ्यों की पड़ताल कर रहे होते हैं तब उनका मिजाज एकदम सख्त नजर आता है और जब निजी ज़िंदगी में पत्नी (तब्बू) के साथ अपने रिश्ते को बचाने की कवायद में होते हैं तो उसकी तकलीफ, परेशानी, पत्नी के साथ बिताये अच्छे वक़्त की यादें सब कुछ उनके भावों से बाहर आ रही होती हैं।

 फिल्म में आरुषि के नाम को बदलकर श्रुति टंडन कर दिया गया तो फिल्म का नाम 'तलवार' पात्रों के सरनेम की वजह से नहीं रखा गया है, बल्कि इसके पीछे कहानी है न्याय की मूर्ति की जिसके एक हाथ में तराजू है और दूसरे हाथ में तलवार और फिल्म में इरफ़ान इसी तलवार पर लगी जंग को मिटाने की जद्दोजहद कर रहे हैं।

 कोंकणा सेन शर्मा और नीरज काबी (तलवार दंपत्ति के किरदार) ने माता-पिता की भूमिका को सहज ढंग से निभाया है। दोनों के पास अभिनय का ज्यादा स्कोप नहीं था लेकिन दोनों प्रभावित करते हैं।

नीरज काबी कोंकणा के साथ
 जब दोनों जांच टीमों की संयुक्त बैठक में इस मामले को सुलझाने की कवायद चल रही होती है तो इरफ़ान कहानी को बयां करते हैं और परदे पर कोंकणा और नीरज का अभिनय नजर आता है। यह फिल्म का सबसे जानदार दृश्य है जहाँ एक ही कहानी को दो अलग-अलग नजरिये से दिखाया गया है। इस पूरे दृश्य में सिर्फ और सिर्फ कोंकणा ही नजर आती हैं और यहाँ उनका अभिनय लाजवाब है।

 कहा जा रहा है कि यह 'रशोमन' फिल्म से प्रभावित है जिसमें घटनाओं को अलग-अलग नजरिये से देखने पर उनके परिणाम बदलने की दास्ताँ है। इस फिल्म में भी ऐसा ही है, एक नजरिया अश्विन कुमार का है और एक नजरिया दूसरे जांच अधिकारी पॉल (अतुल कुमार) का। फिल्म में अश्विन को हीरो बनाने के लिए पॉल को उतना ही बेवकूफाना दर्शाया गया है जितना कि किताब में अरूण को सही ठहराने के लिए कौल को।

सुमित गुलाटी 'कन्हैया' के किरदार में
 फिल्म में कुछ नए कलाकारों की बात नहीं करना बेमानी होगा क्योंकि उन्होंने भी फिल्म में जान डालने में कमी नहीं की। पहले नाम अरूण के सहयोगी बने वेदांत (सोहम शाह) की, पूरी फिल्म में उनका अपीयरेंस फरहान अख्तर की तरह दिखता है और अगर उन्हें सफल होना है तो इससे बाहर आना ही होगा। दूसरी बात मैं करना चाहूंगा नौकर कन्हैया (सुमित गुलाटी) के अभिनय की, एक संदिग्ध और एक शातिर अपराधी के बीच झूलते किरदार को उन्होंने बखूबी परदे पे उकेरा है। इसके अलावा फिल्म में छोटे-छोटे किरदार बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जिनमें बेहद दिलचस्प किरदार सीबीआई प्रमुख के तौर पर स्वामी (प्रकाश बेलवाड़ी) का है।

 और अंत में बात मेघना की, मैंने उनकी 'दस कहानियां' में 'पूरनमासी' और 'फ़िलहाल' को देखा है, वह विषय को बहुत संजीदगी से उठाती हैं और 'तलवार' में भी उनकी यह संजीदगी दिखती है।

 फिल्म में एक ओर वे जहाँ आरूषि के निजी जीवन की छीछालेदर करने से बचती हैं तो वंही दूसरी ओर जजों की कार्यवाही से फिल्म को दूर रखती हैं जबकि किताब में ऐसा नहीं है।

 फिल्म में एक बात जो मेघना ने काबिले तारीफ की है, वह है पात्रों का चरित्रांकन (कैरेक्टराइजेशन), यदि आपको इस हत्याकांड के समय के समाचारों में आये वीडियो याद हैं तो आपको कोंकणा नुपूर की तरह ही दिखेंगी और इरफ़ान अरूण की तरह ही लगेंगे। जहाँ मेघना ने किरदारों पर उनकी स्टार इमेज को हावी नहीं होने दिया वहीं इन कलाकारों ने पात्रों को सजीवता से जिया है।

 दूसरी तरफ फिल्म में कुछ दृश्यों के फिल्मांकन में मेघना ने एक नयी परिभाषा तय करने वाला काम किया है, इसमें से एक दृश्य का वर्णन मैंने ऊपर किया है। एक और दृश्य जो प्रभावित करता है वह है श्रुति की हत्या करने के दो अलग-अलग दृश्य, जिसमें से कन्हैया के हत्या करने का दृश्य बहुत प्रभावी है। इसके अलावा सीबीआई की दो अलग-अलग जाँच टीमों की संयुक्त बैठक की तल्खी को फिल्म में बड़े ही व्यंगात्मक लहजे में दिखाया गया है जो इस दृश्य को भारी नहीं होने देता और फिल्म के कुछ बेहतरीन दृश्यों में से एक है।

 फिल्म में खैर किसी बात को थोपा नहीं गया है जैसा कि किताब में है। फिल्म सिर्फ जांच के विभिन्न पहलुओं को दिखाती है और कोई निर्णय नहीं सुनाती जैसा कि 'आरुषि' और 'रहस्य' में किया गया है, यही इसकी मुख्य खासियत है। दूसरा फिल्म सामाजिक स्तर पर यह दिखाने का प्रयास करती है कि किन कारणों से ऐसी घटनाएं होती हैं जिनमें फिर चाहे आपके निजी जिंदगी के कुछ अनछुए लम्हों के उजागर होने का परिणाम हो या फिर नौकरों के साथ किया गया व्यवहार।

-सभी फोटो गूगल सर्च से साभार

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

छोटे शहरों को ज़िंदा करता मसान

 मुझे इस बार कोई और शीर्षक नहीं सूझा, वजह साफ़ है कि इस फिल्म की आत्मा में वो छोटा शहर है जो मुख्यधारा से कटता जा रहा है और यूंही किसी घाट पर अपनी जिंदगी में नयी किरण ढूंढ रहा है, ठीक वैसे ही जैसे फिल्म के किरदार दीपक और देवी अपनी पुरानी यादों को गंगा जी में बहाकर एक नाव में शायद किसी नए कल की तलाश में चल पड़ते हैं।

 अब मैं इस फिल्म की तारीफ ज्यादा करूँगा तो इस इल्ज़ाम को भी झेलना होगा कि भई अवार्ड जीती हुई फिल्म है तो तारीफ तो करेंगे ही जनाब ! तो फिल्म के बारे में समीक्षात्मक बातें बाद में करते हैं पहले इस पर थोड़ी चर्चा कर लेते हैं कि फिल्म प्रभावित क्यों करती है ?

'दम लगा के हईशा' का एक दृश्य
 लंबे समय से मीडिया और फिल्मों से देश के छोटे शहर गायब थे,  सब कुछ महानगरों तक सीमित हो रहा था फिर वो चाहे समाचार हों, टीवी के धारावाहिक या फ़िल्में। लेकिन अगर आप पिछले दिनों आई कुछ फिल्मों को देखें मसलन 'तनु वेड्स मनु' के दोनों संस्करण और 'दम लगा के हईशा', इनमें खांटी देसीपन की खुशबू है। ये उस भारत से भी परिचय कराती हैं, जो छोटे शहरों में बसता है और उनकी भी एक आत्मा है।

 'मसान' इसी कड़ी को और आगे ले जाती है। ये उन छोटे शहरों को ज़िंदा करती है, जहाँ सेक्स अभी भी एक जिज्ञासा है और प्यार की पींगे अपने शहर से दूर जाकर बढ़ाई जाती हैं, वो भी किसी दोस्त की बाइक उधार लेकर या यह उन शहरों की भी कहानी है जहाँ फेसबुक और स्मार्टफोन जैसे सूचना क्रांति के वाहक अपनी पहुँच बना रहे हैं और लोग उनका इस्तेमाल सीख रहे हैं या जहाँ की भ्रष्टाचार से परेशान जनता समाचारों की सुर्खियां नहीं है ।

 वैसे हमारे महानगरों में भी आपको कई छोटे शहर मिल जायेंगे, कभी दिल्ली में ही लक्ष्मी नगर, सीमापुरी, शाहदरा, नवादा, रघुबीर नगर और जामा मस्जिद के पास के इलाके घूम आइये, खुदबखुद दर्शन हो जायेंगे छोटे-छोटे कई शहरों के।

 'मसान' की कहानी की चर्चा यहाँ नहीं करना बेहतर जान पड़ता है मुझे क्योंकि मैं नहीं चाहता कि अगर अभी जो लोग फिल्म देखने जाने वाले हैं वो मेरी धारणा को लेकर जाएँ मन में, लेकिन सन्दर्भ के लिए बस इतना बता देता हूँ कि कहानी में एक नायिका है देवी पाठक और एक नायक है दीपक कुमार लेकिन इन दोनों का आपस में कोई संबंध नहीं।

 दोनों किरदारों की अपनी अलग-अलग कहानियां है, दोनों के जीवन में  संयोग और वियोग रस का श्रृंगार हैं। दोनों के जीवन में खलनायक है उनका 'डर" जो उन्हें समाज से , जाति से , जाति के आधार पर बंटे काम के भेदभाव से , ऊंच-नीच से  और पुलिस से है।  केवल एक चीज उन्हें जोड़ती है और वो हैं बनारस की गंगा पर बने घाट और उन पर बने मसान, जहाँ उनका प्रेम धू-धू करके खाक में मिल जाता है और जब इसी मसान-तट पर वो अपने डर से पार पातें हैं तो उम्मीद की किरण उन्हें साथ ले जाती है।

 फिल्म की जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वो है इसके अधूरेपन का संपूर्ण होना। ये जहाँ से शुरू होती है उसका कोई बैकग्राउंड नहीं और जहाँ खत्म होती है उसके आगे ये अनंत है। अंग्रेजी में इसका नाम 'फ्लाई अवे सोलो' है जो बताता है कि मसान से आगे का रास्ता इंसान अकेले ही धुंए में उड़कर करता है।

 निर्देशक नीरज घेवन की यह पहली फिल्म है और कान्स समारोह में अवार्ड जीतने के बाद भारत में रिलीज हुई है। फिल्म का स्क्रीनप्ले बेहतर है लेकिन कैमरा का काम और बेहतर किया जा सकता था। फिल्म के तीन गाने इंडियन ओसियन के रंग में रंगे हैं और तीन अलग-अलग मूड्स को दिखाते हैं, हालांकि यह अच्छा ही किया कि 'भोर' गाने को फिल्म के अंत में रखा क्यूंकि मध्य में यह फिल्म को भारी बना देता।

 फिल्म में देवी का किरदार ऋचा चड्ढा ने निभाया है और उनके पिता के किरदार में हैं संजय मिश्रा। इन दोनों कलाकारों से बेहतर अभिनय की उम्मीद की जाती है और दोनों ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है। हालांकि ऋचा पूरी तरह से बनारस के रंग में नहीं रंग पाती हैं।

 दीपक का किरदार निभाने वाले नवोदित अभिनेता विकी कौशल निश्चित रूप से प्रभावित करते हैं। ज़रा सोचकर देखिये कि एक अभिनेता के लिए कितना मुश्किल होता होगा कि वह बनारस के हरिश्चंद्र घाट पर वह मुर्दों को जला रहा है, एक ऐसा काम जो उसने शायद ही कभी किया हो, लेकिन उसके अभिनय में कोई झिझक या शिकन न दिखे, ऐसा ही विकी का अभिनय है।

 फिल्म में बनारस एवं  गंगा के घाटों पर चली आ रही दहन की परम्परा भी एक किरदार है।  काशी विश्वनाथ और गंगा आरती को दिखाए बिना भी फिल्म की हर रग में बनारस मौजूद है। तो बस देख आइये एक बार 'मसान', क्योंकि अगर अच्छा देखने में यकीन रखते हैं तो ये आपको निराश नहीं करेगी।

गुरुवार, 28 मई 2015

रिटर्न ऑफ पंजाबी गाने

 वैसे मुझे पंजाबी बिल्कुल भी नहीं आती और मैं पंजाबी गानों का उतना बड़ा शौक़ीन भी नहीं इसलिए इस विषय पर लिखने का कायदे से मुझे कोई अधिकार नहीं लेकिन भांगड़े की ताल पर नाचना किसे नहीं पसंद, इसलिए इस विषय पर कुछ लिखने का मन था इसलिए सोचा लिख ही देते हैं।

Daler Mehandi : Source-Internet
  आपको वो दौर याद होगा जब दूल्हे की बारात दलेर मेहंदी के 'हो जाएगी बल्ले बल्ले', 'काला कौवा काट खायेगा' और ' तुनक तुनक तुन' जैसे गानों के बिना आगे ही नहीं बढ़ती थी। हंस राज हंस, गुरदास मान, जसपिंदर नरूला और ऋचा शर्मा उस दौर में पंजाबी गानों के सरताज थे। इनकी आम जनता में लोकप्रियता इतनी थी कि भारतीय फिल्मों में भी पंजाबी गानों को रखने का चलन  बढ़ गया। हंस के 'तोते तोते' और दलेर के "ना ना ना रे' गाने की लोकप्रियता  का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि उस दौर में बच्चों को डांस क्लास में  इन्हीं गानों पर सबसे पहले थिरकना सिखाया जाता था।

  इसी दौरान स्टीरियो नेशन, जैज़ी बी, सुखबीर, मीका, जसबीर जस्सी और रब्बी शेरगिल ने पारम्परिक पंजाबी गानों के  साथ पश्चिमी वाद्यों का तालमेल कर अपनी अलग पहचान बनाई। उस समय भारत में शादियों  में डीजे का चलन शुरू ही हुआ था और शादियों में डांस फ्लोर पर नाचना नया फैशन बन गया। उस दौर में इन नए उभरते पंजाबी गायकों के गानों पर हर उम्र और पीढ़ी के लोगों ने ठुमके लगाये।

  इन पंजाबी गानों की जो एक बात सबसे खास थी वो यह कि हर गायक का अपना एक अलग अंदाज था लेकिन फिर भी वह देसीपन लिए हुए था। गुरदास मान के गाने खालिस पंजाबी थे और दलेर के गानों में भांगड़ा का मजा था। मीका, सुखबीर और जसबीर के गाने डीजे पार्टियों की शान बन गए थे।

Honey Singh : Source-Internet
  इसके बाद आया हनी सिंह का दौर और वह बेशक इस समय के सबसे तेजी से उभरे सितारे हैं। लेकिन उनके आने के बाद पंजाबी गानों में एक ठहराव सा देखने को मिला या यूँ कहें पंजाबी गाने कंही खो से गए। उनका पहले  एलबम 'इंटरनेशनल विलेजर' पंजाब के कई नए चेहरे थे और उसमें कुछ गाने भी थे जो पंजाबीपन से भरपूर थे।

  उसके बाद दिलजीत, बिलाल, दिलबाग, मिलिंद गाबा, गिप्पी ग्रेवाल, बादशाह,  रॉल और लिटिल छोटू  जैसे कई सितारे आये जो इस दौर में पंजाबी गाने गा रहे हैं लेकिन इनमें  सभी में एक बात जो खलती है वह है कि गायकों की अपनी कोई शैली नहीं है और गानों में जो वैरायटी होती थी वो ख़त्म हो गयी है। अब हर गाने में रैप ने एक जगह बना ली है जिनमें दो चार बातों को ही अलग अलग तरह से घुमा फिराकर कहा जाता है और उनके विषय भी तीन चार चीजों के आस पास ही घूमते हैं।

Jassi Gill : Source-Internet
  लेकिन हाल ही में आया जस्सी गिल का ' रिटर्न ऑफ मेलोडी' एलबम कुछ नयी उम्मीद जगाता है। इसमें फिर से वही पंजाब का खालिस देसीपन है। इसके गाने इन दिनों चार्टबस्टर्स में छाये हुए हैं। तो क्या यह हनी सिंह के दौर के अंत होने का इशारा करता है या लोगों का उनके अंदाज से ऊब जाने का। खैर अभी इस बात पर टिप्पणी करना जल्दबाजी होगी, तब तक आनंद लीजिये फिर छायी इस देसी बहार का। यही तो है रिटर्न  ऑफ पंजाबी गाने। 

रविवार, 10 मई 2015

इम्पोर्टेड देसी सुपरहीरो, इस पर भी गौर फरमाएं

 जी हाँ सवाल तो यही है कि क्या हमने गौर भी किया या नहीं? खैर जिन लोगों ने "एवेंजर्स : ऐज ऑफ़ अल्ट्रॉन" हिंदी में देखी होगी उन्हें शायद यह बात समझ आई होगी कि मैं किस बात की ओर इशारा करना चाहता हूँ।

Avengers : Age Of Ultron (Poster)
 बात है इस फिल्म के हिंदी संस्करण में प्रयोग किये गए "हरियाणवी संवादों" की । अभी तक हमने अनुवादित फिल्मों में  ऐसा प्रयोग सिर्फ दक्षिण भारत की फिल्मों के हिंदी रूपांतरण में ही देखा होगा, जहाँ खलनायक का चरित्र या तो भोजपुरी बोलता है या हरियाणवी। (खैर यह भी अपने आप में एक नस्लभेद ही है जहाँ क्षेत्रीय बोली बोलने वाले को खलनायक की तरह ही प्रस्तुत किया जाता है। )

 लेकिन "एवेंजर्स : ऐज ऑफ़ अल्ट्रॉन" जैसी हॉलीवुड फिल्म में यह प्रयोग चौंकाने वाला है। "एवेंजर्स : ऐज ऑफ़ अल्ट्रॉन"  हॉलीवुड की कोई चलताऊ फिल्म नहीं है बल्कि बजट और स्टारकास्ट के लिहाज से यह बहुत बड़ी फिल्म है। इस फिल्म का बजट अनुमानित तौर पर 280 मिलियन डॉलर के आस पास है। और जब इतनी बड़ी रकम को दांव पर लगाकर कोई बाजार में दस्तक देता है तो वह स्थापित नियमों से खेलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता।

अब तक हॉलीवुड की जितनी भी फिल्मे हिंदी में रूपांतरित होकर आयीं हैं, उनमें बेहद संतुलित हिंदी में अनुवाद किया जाता है और क्षेत्रीय बोलियों को फिल्मों के अनुवाद से दूर ही रखा जाता है। लेकिन इतनी बड़ी फिल्म ने इसके अनुवाद में  हरियाणवी जैसी बोली को दो प्रमुख पात्रों की आवाज दी है जिनमें से एक शायद अगली फिल्म में भी दिखाई दे। इस हिम्मत को जुटाने के लिए वे निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं। ( हो सकता है बिहार और पूर्वांचली क्षेत्रों में इन दोनों किरदारों ने भोजपुरी बोली हो, दिल्ली में तो यह हरियाणवी में ही बात करते हैं। )

हरियाणवी भाई और बहना
  आप कल्पना भर करके देखिये कि "एवेंजर्स : ऐज ऑफ़ अल्ट्रॉन" का यह प्रयोग सफल नहीं होता, तो उसे कितना नुकसान उठाना पड़ता, क्योंकि भारत आज के समय में हर इम्पोर्टेड आइटम के लिए एक प्रमुख बाजार है। हमारी क्रय शक्ति बढ़ रही है जिससे हमारा उपभोग भी बढ़ रहा है। इसलिए यदि यह प्रयोग असफल होता तो एवेंजर्स के निर्माताओं को भारी नुकसान  उठाना पड़ता। खैर अभी तक विश्वभर में यह फिल्म लगभग 800 मिलियन डॉलर का कारोबार कर चुकी है।

 हॉलीवुड की फिल्मों में यह बदलाव इंगित करता है कि उसके लिए हिंदी का बाजार कितना मायने रखता है। गैर मातृभाषी फिल्म होने के बावजूद फिल्म को हिंदी पट्टी के लोगों से जोड़ने का प्रयास किया गया है।
 अब हम उम्मीद कर सकते हैं कि देसी स्पाइडर मैन हमें यहाँ भारत में नहीं बनाना पड़ेगा बल्कि सीधा हॉलीवुड से ही बनकर आएगा। अब भई क्या इम्पोर्टेड फिल्में सिर्फ अंग्रेजी में ही देखी जाएंगी क्या ? बाजार का नियम तो साफ़ है पैसा दो सामान लो। 

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

क्या चाहते हैं ब्योमकेश से ?

हाल में आई डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी  को लेकर कई  बड़े फिल्म समीक्षकों ने कोई खास अच्छी समीक्षा नहीं दी। सभी ने फिल्म को बहुत से पहलुओं पर नकार दिया, लेकिन मैंने फिल्म देखी है।

 फिल्म शुरुआत से ही रोचकता पैदा करती चलती है।  एक हत्या और उसके हत्यारे की तलाश यही फिल्म का सार है,  जो आम जासूसी फिल्मों का मुख्य पहलू होता है। फिर उस हत्यारे की तलाश के दौरान होती अन्य हत्याएं, सबूतों का बनना बिगड़ना फिल्म को आगे बढ़ाते हैं, और इसमें भी यही चलता है।

 शरदिंदु बंधोपाध्याय के चरित्र ब्योमकेश बख्शी (सुशांत सिंह राजपूत) को फिल्म में निर्देशक दिबाकर बनर्जी ने शुरुआत से बुना है। वह कॉलेज से निकला है, प्यार में असफल हुआ है और नौकरी की तलाश में है। उसी के कॉलेज का साथी अजीत बंधोपाध्याय (आनंद तिवारी) उसे अपने गायब पिता की तलाश करने को बोलता है और वो जुट जाता है काम में। फिल्म में ब्योमकेश अपना पहला केस सुलझा रहा है, तो गलती होना लाजिमी है और दिबाकर ने उससे वो गलती भी करवाई है।

 फिल्म शुरू होने के कुछ समय बाद ही बख्शी को अजित के पिता की लाश मिल जाती है। लेकिन असली सवाल है कि आखिर उनकी हत्या क्यों हुई ? बस इसी गुत्थी को सुलझाने में कहानी आगे बढ़ती जाती है।
 फिल्म में 1940 के दौर का बंगाल है।  द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो चुका है और जापानी सेना कलकत्ता पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ रही है और इसके लिए उसे कुछ कालाबाजारियों का सहयोग चाहिए। बाकी एक जासूसी फिल्म की कहानी इससे ज्यादा बताना घातक होगा।

 फिल्म में उस समय के कलकत्ता को दिबाकर ने शानदार तरीके से पेश किया है। बैकग्राउंड स्कोर फिल्म की जान है और फिल्म की गति एक समान है। हालांकि यह थोड़ी धीमी है लेकिन फिल्म को समझने के लिए सही है।  आजकल भोजपुरी का इस्तेमाल हिंदी फिल्मों का एक अंग बनता जा रहा है, और इसमें इसे बखूबी इस्तेमाल किया गया है। फिल्म का लाइट इफ़ेक्ट प्रभाव पैदा करता है।

 सुशांत ने अच्छा अभिनय किया है, लेकिन वो और अच्छा कर सकते थे। फिल्म में अंगूरी देवी का किरदार निभाने वाली स्वस्तिका मुखर्जी ने अभिनय की छाप छोड़ी है। फिल्म में सहयोगी कलाकारों ने अच्छा अभिनय किया है। फिल्म में खलनायक का किरदार निभाने वाले नीरज काबी बहुत प्रभावित करते हैं।
 दिबाकर इसे एक ब्रांड के तौर पर स्थापित करने में सफल रहे हैं।  इसकी अगली कड़ी बनने की पूरी सम्भावना है।

 एक जासूसी फिल्म से अपेक्षा होती है कि वो आपको सीट से हिलने का मौका भी न दे और डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी इस काम में पूरी तरह सफल है। फिर अब और क्या चाहते हैं आप ब्योमकेश से ?

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

गाइड से दामुल के बीच

पिछले कुछ दिनों में कुछ ऐसी फ़िल्में देखी, जिनका नाम बहुत सुना था और देखने की इच्छा थी। गॉडमदर, दामुल,गाइड… और भी बहुत पर अभी यहाँ सिर्फ दो ही की बात करना मुनासिब समझता हूँ, हो सकता है कि फिलहाल देखी हुई सभी फिल्मों में से इन दोनों से मैं थोडा प्रभावित हुआ हूँ या ये भी हो सकता है कि कंही मेरी उम्मीद इनसे बहुत ज्यादा थी। खैर जो भी हो यहाँ हम अब शुरू भी करते हैं क्यूंकि भारत में दर्शन तो कोई भी पढ़-पढ़ा सकता है।

बात करते हैं विजय आनंद की गाइड और प्रकाश झा की दामुल की। दोनों कहानियों में पूरे बीस साल का फर्क है जैसे पूरी पीढ़ी ही बदल गयी हो लेकिन फ़िल्में उतनी बदली नज़र नहीं आई। बात शुरू करते हैं गाइड से, पता नहीं क्यों मुझे इस फिल्म का क्लाइमेक्स कुछ अटपटा सा लगा ये समझ से परे लगता है कि नायक क्या कहना चाहता है, वो लोगों को जीने का फलसफा बता रहा है या उनके अन्धविश्वास को बढ़ा रहा है। अब चाहे तो कुछ लोग आक्षेप लगा सकते हैं कि मेरी समझ कम है किन्तु यहाँ पूरी फिल्म गुजरने के बाद लगता है कि मनुष्य को मोक्ष कैसे प्राप्त करना है यही बताया गया हो लेकिन रास्ता क्या है-अन्धविश्वास का। गाइड में किसान सूखे से मर रहा है और यहाँ नायक उनके नाम पर अपने मोक्ष का रास्ता तैयार कर रहा है। गाइड का दौर वो था जब देश घिरा था युद्ध की त्रासदी से और खुद देश का प्रधानमंत्री उपवास की अपील कर रहा था लेकिन वो बात कम से कम तार्किक थी अन्धविश्वासी नहीं। पर यहाँ उपवास के मायने कुछ और नज़र आते हैं, जिस बात का मुझे बुरा लगा कि क्या वाकई उस दौर में भारतीय नायक इतना कमजोर था की लोगों की आस्था के सामने उसका समझाना, जगाना और तर्क करना बेमानी था। वो बात अलग है कि अब हमारा नेतृत्व कुतर्क ही करता है पर चलो तब कम से कम किसान के पास आस्था और अन्धविश्वास का सहारा था ये संदेसा हम तक फिल्म से पहुँच जाता है।
अब कहानी को मैं भी सीरियल किलर की तरह बीस साल आगे धकेल के दामुल पर पहुँचता हूँ। तुलना तो मैं दोनों की नहीं करने वाला हूँ क्यूंकि दोनों का समय और कहानी अलग है, बस अपनी ही बात है जो कहनी है। दामुल में हमारा नायक थोडा सधा नजर आता है हो सकता है ये उस दौर का असर हो क्यूंकि 65 में हम नौसिखिये थे लेकिन 85 में तो हम बाप हो गए। लेकिन यहाँ नायक मजबूर किसान है जहाँ गाइड का किसान अन्धविश्वास का सहारे पर जिंदा है वंही हमारे पुनाई का बेटा थोडा यथार्थ में जीता है तभी तो चोरी से लेकर मर्डरवा तक कर देता है सब कर्जा के चक्कर में, वो भी वो जो वो लिया ही नहीं। किसान परेशान यहाँ भी है लेकिन वो अंत तक आते-आते कम से लड़ने की सोचता है ये अच्छा लगा न कि भगवान और भाग्य विधाता के भरोसे में खड़ा जन-गण बना रहता है वो बात अलग है कि किसान अब बीस साल बाद भी जूझ ही रहा होता है, हाँ हमारी तरक्की इतनी हो जाती है कि बाढ़, सूखे से मरने वाले किसान को हम अब क़र्ज़ से भी मारने पे तुले होते हैं और भगवान नाम का सहारा भी छीन चुके होते हैं।
वैसे आज इन बातों का कोई मतलब तो नहीं बनता क्यूंकि ज़माना चिल्ला रहा है कि वो बदल गया है, बस बदला नहीं तो बाढ़-सूखा और कर्जा। पर मेरे चिल्लाने से भी क्या बदलने वाला है बस मिअन तो कुछ कह रहा था तो कह दिया।