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शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

एडिटिंग की मिसाल है, एन इन्सिग्निफिकेंट मैन

फिल्म का एक दृश्य
 दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की "आम आदमी पार्टी" ने अपने पांच साल पूरे होने का जश्न हाल ही में मनाया है। पार्टी के भीतर और पार्टी से अलग हुए नेताओं की टिप्पणियां भी हुईं और विपक्षियों के आरोप-प्रत्यारोप भी। पार्टी से नाराजों के भी बोल भी रहे और पार्टी के रास्ता भटक जाने की बातें भी। इसी समय में हमारे बीच एक फिल्म आई  "एन इन्सिग्निफिकेंट मैन", मैं इसे डॉक्युमेंट्री इसलिए नहीं कहना चाहता क्योंकि ये फिल्म उससे बहुत आगे जाती है।

 इस फिल्म के राजनीतिक पहलू पर बहुत बातें हुई हैं। इससे जुड़े लोगों के बारे में भी बहुत बातें हुईं हैं। लेकिन मेरा मानना है कि इस फिल्म ने एक बहुत बड़े स्टीरियोटाइप को तोड़ा है। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैंने इसे महसूस किया है। फिल्म रिलीज हुई 17 नवंबर को और मैं इसे 19 को ही देख आया।

 आमतौर पर भारत में दर्शक इस तरह की फिल्मों के लिए थिएटर में पैसा नहीं खर्च करता। लेकिन इस फिल्म में कुछ अलग है, मैंने दिल्ली के अनुपम साकेत में जब यह फिल्म देखी तो हॉल खचाखच भरा पाया। इसमें भी खास बात देखने वालों में युवाओं की संख्या ज्यादा होना लगी।

 अब लोग कह सकते हैं कि केजरीवाल की ब्रांड वैल्यू इससे जुड़ी है इसलिए भीड़ चली आयी। लेकिन मेरे हिसाब से सचिन की "बिलियन ड्रीम्स" को भी ऐसा रिस्पांस नहीं मिला था, और सचिन तो पीढ़ियों पर राज करने वाला ब्रांड रहे हैं। तो फिर क्या खास है इस फिल्म में जो इसे लोगों के लिए इतना रुचिकर बनाता है।

 मेरे हिसाब से इस फिल्म की एडिटिंग इसकी जान है और यही इसे इतना खास बनाती है। मैंने शुरू में ही कहा कि इसे डॉक्युमेंट्री कहना इससे जुड़े लोगों की काबिलियत को काम आंकना होगा। मुझे नहीं लगता कि इसके निर्देशकों के पास किसी तरह के फुटेज की कमी रही होगी, लेकिन उन फुटेजों का कैसे और कहाँ इस्तेमाल करना है। कैसे फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाना है, ये काम किया है इसकी एडिटिंग ने।

 फिल्म में एक दृश्य जो मुझे प्रभावित कर गया वो था केजरीवाल का सत्याग्रह फिल्म देखकर थिएटर से बाहर निकलना और एक टीवी रिपोर्टर को इंटरव्यू देना। उस दौरान कैमरा का एक फोकस केजरीवाल के अपनी शर्ट के कोने से साथ खेलने को दिखाता है। यह अपने आप में किसी फिल्म के नायक के चरित्र को स्थापित करने वाला दृश्य है।

 यह किसी फीचर फिल्म की तरह ही अपने नायक को गढ़ने का दृश्य है। फिर धीरे-धीरे फिल्म में योगेंद्र यादव का असर दिखना शुरू होता है, जो बताता है कि फिल्म में नायक है लेकिन एक प्रति नायक भी है। प्रति नायक शब्द का इस्तेमाल हूँ क्योंकि योगेंद्र खलनायक नहीं हैं।

 चूँकि नायक अरविन्द हैं तो फिल्म में खलनायक होना तो जरुरी है ही, और इसके लिए चुना गया उस समय दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित को। उनके ऐसे फुटेज इस्तेमाल किये गए जो आपको बरबस हंसने पर मजबूर कर देंगे। फिर वह चाहें चुनाव प्रचार के दौरान दलेर मेहंदी के गाने पर उनका मेज थपथपाना हो या चुनाव नामांकन के दौरान अरविन्द के ऊपर जोक सुनाना। यह उनके चरित्र को फिल्म में पूरी तरह खलनायक तो नहीं लेकिन उसके लगभग बराबर ही रखता है।

 फिल्म बोझिल न लगे इसलिए इसमें एक मसाला फिल्म के लगभग सभी मसाले दिखते हैं। जब आप पार्टी की नेता संतोष कोली की मौत हो जाती है तो उसके अगले दिन की एक सभा का फुटेज फिल्म में इस्तेमाल  किया गया है। उस दृश्य में अरविन्द के चेहरे पर वह सारे भाव नज़र आते हैं जो इस घड़ी में हक़ीक़त में होने चाहिए और ये दृश्य फिल्म के नायक को दर्शक के करीब लाता है।

 ऐसा ही एक और दृश्य है जहाँ एक मोहल्ला सभा में एक महिला अरविन्द को पावर देने की बात करती है। इस फुटेज को फिल्म में रखने का निर्णय बताता है कि निर्देशक अपने चरित्र को कैसे गढ़ना चाहता है। फिल्म में एक दृश्य कुमार विश्वास और अरविन्द के बीच हास-परिहास का भी है। यह हमारे नेताओं के बीच आम इंसान की तरह होने वाले हंसी मजाक के साथ-साथ उनकी एक मिथक छवि को तोड़ने का भी काम करता है।

 भारतीय समाज अपने नेता को इंसान मानने के लिए तैयार ही नहीं है। वह या तो कोई दैवीय पुरुष, शक्ति या परमावतार होता है, वह इंसान नहीं होता। इसलिए जब हम उनके लिए कहानी या फिल्म लिखते हैं तो वह "लार्जर देन लाइफ" होती है। एक समय में अरविन्द ने इस छवि को तोडा था और यह फिल्म उसी को आगे बढाती है। यह हमे हमारे नेताओं को अपने बीच का समझने में मदद करती है।

 और अंत में एक बात फिल्म बनाने वालों के लिए, हिंदी में "मुख्यमंत्री" सही शब्द है, "मुख्यामंत्री" नहीं जैसा कि फिल्म के अंत में लिखा दिखाया गया है।

फिल्म के निर्देशक विनय और खुशबू

सोमवार, 27 नवंबर 2017

कुछ यूँ बदल गयी हमारी खिलौनों की दुनिया

कनॉट प्लेस के डी ब्लॉक में राम चन्दर एंड संस का बोर्ड
 म सभी ने अपने बचपन में खिlलौनों के साथ वक़्त बिताया जरूर होगा। लेकिन इस बार मैंने वक़्त बिताया उस शख्स के साथ जो अपने जीवन के 62-64 साल इन खिलौनों के बीच बिता चुका है। पाँच पीढ़ियों से चल रही अपनी खिलौनों की दुकान में न जाने उसने कितने बच्चों के अरमान सजते देखें होंगे और कितनों के टूटते भी।

 हालांकि मैंने ये स्टोरी अपने काम के चलते की थी लेकिन ऐसा बहुत कुछ रह गया जो वहां कह नहीं पाया। दिल्ली के दिल कहे जाने वाले कनॉट प्लेस में अंग्रेजों के ज़माने की कई दुकानें हैं। इन्हीं में एक नाम ओडियन सिनेमा के बगल वाली राम चन्दर एंड संस का है।

 इसके बारे में कहा जाता है कि यह भारत की सबसे पुरानी खिलौने की दुकान है। लगता भी ऐसा ही है क्योंकि 1890 में शुरू हुई इस दुकान के अंदर आप जैसे ही दाखिल होंगे आपको लगेगा ही नहीं यह कनॉट प्लेस की ही कोई दुकान है।
अपनी उसी बेतरतीब टेबल के साथ वाली कुर्सी पर सतीश सुंदरा
 कनॉट प्लेस में जहाँ कांच के शोकेसों वाली दुकानें तमाम तरह के दीप आभूषण धारण किये मिलती हैं। इस दुकान को देखकर पहली नजर में आपको किसी गोदाम में जाने की अनुभूति होगी। सब सामान इधर-उधर बेतरतीब सा पड़ा है। इन्हीं के बीच में दाहिने तरफ एक दराजों वाली टेबल है जिस पर एक कम्प्यूटर है और ढेर सारा सामान भी साथ ही बगल की कुर्सी पर कोई 70-75 साल बुजर्ग बैठा है।

यह बुजुर्ग व्यक्ति सतीश सुंदरा हैं जो इस दुकान से जुड़े परिवार की चौथी पीढ़ी से हैं। करीब आठ साल की उम्र में दुकान पर बैठना शुरू कर चुके सतीश अभी अपने बेटा-बहू के साथ मिलकर इस दुकान को चलाते हैं।

 दुकान पर बैठने की अपनी शुरुआत के बारे में सतीश बड़े रोमांच के साथ बताते हैं,
''मेरे परिवार में मारवाड़ी माहौल था। इसलिए मैं सात—आठ साल की उम्र से ही दुकान पर बैठने लगा। तब से अब तक मैंने खिलौनों की इस दुनिया को बड़े नजदीक से बदलते देखा है।"
 बकौल सतीश 1940 के दशक में भारत में ज्यादातर खिलौने ब्रिटेन-अमेरिका से आते थे। तब खिलौनों में रेलगाड़ियां अहम होती थीं। इसमें भी सबसे ज्यादा जर्मनी की गाड़ियों को पसंद किया जाता था। मुझे खुद एक इलैक्ट्रानिक रेलगाड़ी बहुत पसंद थी। इसके अलावा ब्लॉक आपस में जोड़ने वाले खिलौनों का ही विकल्प हमारे पास होता था।

 हमारे परिवार की कुल पांच दुकानें थी। पहली दुकान अम्बाला में खुली और 1935 में यह यहां कनॉट प्लेस में आ गयी। पिताजी और उनके भाइयों के बीच बाद में ये दुकानें बंट गयी और फिर मेरे और भाई के बीच भी बंटवारा हुआ। सबने अपनी दुकानें बेच दी। शिमला और कसौली में भी हमारी दुकान थी लेकिन अब बस यही एक बची है।

  बकौल सतीश खिलौनों की दुनिया में अमेरिका और ब्रिटेन के दबदबे को चुनौती जापान ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद देनी शुरू की। 1950 के दशक में जापान ने कबाड के टिन से खिलौने बनाने शुरु किए। उसने अंतरिक्ष विज्ञान से जुड़े खिलौने बनाने शुरू किये। हम खुद 1969 तक इनका भारत में बेरोकटोक आयात करते थे। लोग इसे बहुत पसंद करते थे। बाद में 1970 में सरकार ने कई तरह के आयात पर रोक लगा दी और यह रोक 1980 के दशक तक जारी रही।

 वर्ष 1980 के दशक में आयात तो खुल गया लेकिन तब तक खिलौने जापान से ताइवान चले गए। तभी कई तरह के इलेक्ट्रॉनिक खिलौने आये। बाद में 2000 के बाद से चीन ने इसमें अपनी साख बनायी है। लेकिन एक बात जो यूरोपीय खिलौनों में थी तो वो थी ''दादा खरीदे, पोता बरते'' लेकिन अब यह बात कहीं नहीं बची।

 बीते के दिनों को याद करते हुए सतीश कहते हैं कि तब का दौर और था। हमारे पास खिलौनों के साथ खेलने का वक़्त होता था। मेले-तमाशे होते थे, आँगन और गलियों में भी बच्चे खेला करते थे। अब तो पार्कों में भी जाने पर बच्चे खेलते नहीं दिखते। मेरे भी जानकारी में कई बच्चे हैं जिन्हें मोबाइल वगैरह पर खेलते हुए देखकर बड़ा कष्ट होता है।

 बड़े कौतुहल के साथ सतीश बताते हैं कि हर खिलौना एक शिक्षा देता है। किसी भी बच्चे के शारीरिक, मानसिक और तार्किक विकास में खिलौनों की भूमिका होती है। बचपन में मेलों में मैंने एक खेल देखा है जिसमें एक इलैक्ट्रॉनिक तार से एक छल्ले को पार निकालना होता था। सोचिए यह बच्चों को कितना ज्यादा एकाग्र बनाता था। यह बात बताते हुए उनकी आँखों में एक अजब तरह की चमक उभर आती है।

 आजकल ​िखलौनों की जगह फिल्मों से जुडी मर्चेंडाइज ने ले ली है। इनके आने से एक तो बच्चों में थोड़ी हिंसक प्रवृत्ति बढ़ने लगी और हमारे खुद के चरित्रों और नायकों को हम अपने बच्चों के जीवन में वह स्थान नहीं दिला पाए जो सुपरमैन वगैरह को मिला।

 एक और बात जो मुझे कचोटती है, वो यह कि आजकल माँ-बाप बच्चे को खिलौना तो दिला देते हैं। लेकिन उसके साथ समय नहीं बिताते। ना ही उस खिलौने को लेकर बच्चे के साथ खेलते हैं। देखा जाए तो हमारे बच्चे आजकल बहुत अकेले हो गए हैं।

सतीश जी की बहू दीप्ति दिव्या
 हमारी दुकान का विशेष नियम है कि हम बच्चे को वही खिलौना देते हैं जो उसकी उम्र के हिसाब से सही हो।  सिर्फ बेचने के लिए खिलौना हम नहीं बेचते। हम चाहते हैं कि बच्चे अपने खिलौने का पूरा मज़ा उठायें ताकि उसका बचपन भी यादों से भरा हो। 

गुरुवार, 7 सितंबर 2017

कहने को बस यही है...

 ल शिक्षक दिवस था तो यह बात मैं कल भी लिख सकता था। लेकिन एक डर था कि कल की भीड़ में ये बात कहीं खो जाती। वैसे आजकल डर कई तरह के हो गए हैं, फिर वह चाहे अपनी बात कहने का डर हो, या सोशल मीडिया पर ट्रोल किये जाने का या सरकार से सवाल पूछने का। खैर इन सभी के बारे में फिर कभी बात की जा सकती है क्योंकि ये बात मैं आज करना ही नहीं चाहता... 

 बचपन में अक्सर हम अपने शिक्षकों से ही या आस-पास के लोगों से या बड़ों से ये सुना करते थे कि एक शिक्षक के जीवन का सबसे अच्छा पल क्या होता है...? जवाब होता था कि जब किसी शिक्षक का पढ़ाया कोई विद्यार्थी बहुत सालों बाद उससे मिलता है और अपने जीवन में बहुत सफल होने के बावजूद शिक्षक के पैर छू लेता है तो शिक्षक का सीना गर्व से फूल जाता है। 

 हमारी फ़िल्में भी शिक्षक जीवन के इस पहलू को दिखाती रही हैं। हाल के वर्षों में आयी "दो दूनी चार" और "चॉक एंड डस्टर" नाम की दो फ़िल्में मुझे याद हैं जिनमें यही बात दिखाई गयी है। लेकिन मेरा मानना है कि यह इस बात का केवल एक पहलू है।

 यदि कोई छात्र सफल होकर अपने शिक्षक का सम्मान करता है तो यह उस शिक्षक की निश्चित सफलता है। लेकिन उसके उन्हीं छात्रों में से कोई समाज का विनाशक हो जाता है तो क्या उसके पैर छूने से भी उस शिक्षक का सीना गर्व से फूल जाता होगा...?

 मेरा मानना है कि ये उस शिक्षक की असफलता तो है लेकिन उससे भी बड़ी ये उस छात्र की असफलता है कि वह अपने शिक्षक के लिए सम्मान का कारण नहीं है। यहीं पर एक छात्र की सफलता का प्रश्न भी खड़ा हो जाता है। 

 हमारे समाज की विडंबना भी यही है कि हम एक पक्ष से सारी जिम्मेदारियां निभाने को कहते हैं लेकिन हमारी दूसरे पक्ष के प्रति क्या जिम्मेदारी है, इस सवाल पर चूं तक नहीं करते। महिला-पुरुष संबंधों के दायरे में आप इस बात को देखेंगे तो ज्यादा बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। तो यहाँ प्रश्न एक शिक्षक के प्रति विद्यार्थी की सफलता का है। इस छोटे से वाकये से समझाना चाहता हूँ... 
 "पिछले साल मैं अपने कॉलेज के पुरातन छात्र सम्मलेन में गया था। करीब 7-8 साल बाद कॉलेज जाना हुआ। तो अपने पुराने दोस्तों, शिक्षकों से मिलकर खुश था। सब यादों को ताज़ा कर रहे थे कि कौन क्या किया करता था ? कौन पढ़ाई में अव्वल था तो कौन किसी और काम में ?
इसी दौरान मेरे हिंदी के शिक्षक भास्कर रोशन वहां आये और वर्तमान वर्ष के छात्रों से मेरा परिचय कराने लगे।
भास्कर सर ने मुझे सिर्फ कॉलेज के फर्स्ट ईयर में हिंदी पढ़ाई थी। वो भी मेरा सिर्फ क्वालीफाइंग पेपर था। लेकिन उन्होंने जब मेरा परिचय कराया तो मेरे पास प्रतिक्रिया देने के लिए शब्द नहीं थे क्योंकि मुझे अंदाज़ा नहीं था कि उन्होंने मुझे इस तरह से याद रखा होगा। 
उनके शब्द थे, " ये मेरे उन छात्रों में से एक है जिसे मैंने शायद अपने जीवन में आज तक सबसे ज्यादा अंक दिए हैं। जबकि ये मुझसे सिर्फ क्वालीफाइंग पेपर ही पढ़ा करता था।"
 उस समय मुझे लगा कि ये शायद एक छात्र के तौर पर मेरी आंशिक ही सही लेकिन एक सफलता तो है।

 मुझे अहसास हुआ कि वाकई इस बात में कितनी गहराई है कि आप अपने शिक्षक को कैसे याद रखते हैं उससे बड़ी बात है कि वो आपको एक सफल छात्र के रूप में यद् रखता है जो समज को गढ़ रहा है या एक ऐसे छात्र के रूप में याद करता है जो समाज का विनाशक बन चुका है। 

 मेरा मानना है कि शिक्षक अपनी हिस्से का काम उसी दिन पूरा कर देता है जब वह अपने छात्र को डर से लड़ने की शक्ति दे देता है। उसके बाद जिम्मेदारी छात्र की होती है कि वह उस शक्ति का इस्तेमाल अपने शिक्षक का सीना गर्व से फुलाने में इस्तेमाल करना चाहता है या उसके मस्तक को शर्मसार कर झुकाने में...
भास्करोदय...
 वैसे भास्कर सर की दो बातें मुझे हमेशा याद रहती हैं-

"लिखते समय शब्दों का इस्तेमाल बहुत कंजूसी से करना चाहिए।"
"गुस्से को दबाना चाहिए ,ना कि सवालों को। "

रविवार, 17 जुलाई 2016

कितने दूर चले गए हमारे नेता?


 भी पिछले दिनों एक किताब "डिकोडिंग राहुल गांधी" को पढ़कर ख़त्म किया। ये राहुल गांधी के 2012 तक के सफर (अमूमन असफलताओं) की कहानी कहती है। पत्रकार आरती रामचंद्रन की इस किताब को आये लम्बा समय बीत चुका है इसलिए उसके बारे में बहुत कुछ लिखा और पढ़ा जा चुका होगा, ऐसा मुझे लगता है। इसलिए मैं यहाँ किताब के बारे में ज्यादा ज़िक्र नहीं करूँगा। लेकिन हाँ इस किताब ने मन में कई सवालों को जन्म दिया उन पर तो बात की ही जा सकती है।

 इस किताब को आप राहुल गांधी की एक अनाधिकारिक जीवनी (क्योंकि राहुल के बारे में कोई अन्य किताब उपलब्ध नहीं है) मान सकते हैं जो उनके जीवन के बहुत छोटे से कालखंड की बात करती है। लेकिन यह कितना विचित्र है कि राहुल पर लिखी गयी किताब में लेखक ने अपनी सिर्फ एक मुलाकात का ज़िक्र किया है बाकि जितने भी संदर्भ और वर्णन हैं वो सब दस्तावेजों और सहयोगियों से जुटाए गए हैं।

 अब ये मेरी समझ से परे है कि किसी से एक मुलाकात में आप कितना उसके बारे में जान पाएंगे। यहाँ आम जीवन में रोज़ाना दफ्तर या कामकाज के दौरान में मिलने वाले लोगों को हम सही से नहीं जान पाते तो एक नेता को कैसे जान सकते हैं ? खैर किताब में राहुल के बारे में कई रोचक जानकारियां हैं जिनके बारे में शायद आम जनता को पता भी नहीं हो।

 आज़ादी के हमारे नायकों ने अपने जीवन में कई किताबों को लिखने का श्रम किया। उस दौर में वो अपने साथियों को पत्र लिखा करते थे जिसमें उनकी अपनी निजी भावनाओं का पता चलता था। अगर जानना है कि पत्र किसी के अंदर ने मनुष्य को कैसे बाहर निकालते हैं तो गांधीजी और टॉलस्टॉय के बीच का पत्राचार पढ़िए। खैर इस दौर की तो कमी यही है कि इतिहास विलुप्त हो रहा है और नया इतिहास लिखा जा रहा है।

 नेहरू-गांधी परिवार में राजीव गांधी के बाद जब से नयी पीढ़ी का उदय हुआ है तो ये लिखने की परंपरा कंही पीछे छूट गयी है। नेताओं का जन संवाद खत्म हो गया है और उसकी जगह चाटुकारों ने ले ली है। इसलिए आरती की किताब में भी राहुल का चित्रण उनके चाटुकारों के माध्यम से ही ज्यादा हुआ है।

 खैर मैं राहुल की बात का अंत यंही करना चाहूंगा क्योंकि उनके जमा खाते में कुल मिलाकर "स्वयं सहायता समूह" की एक मात्र उपलब्धि है। वैसे यह कार्य भी मनमोहन सरकार की योजनाओं का हिस्सा था इसमें राहुल क्या योगदान है वो मुझे नहीं पता ! किताब भी राहुल के समस्याओं से भागने की ही बात करती है। 

 रंज इस बात का नहीं कि हम अपने नेताओं के बारे में कितना जानते हैं, सवाल ये है कि लोकतंत्र में सुरक्षा के नाम पर हमारे नेता लोक से ही दूर हो चलें हैं। फिर वो चाहें अपने आप को चाटुकारों से मुक्त बताने वाले नरेंद्र मोदी हों या अरविन्द केजरीवाल। इनमें से कोई भी जनता के लिए आसानी से उपलब्ध नहीं है। 

 मैंने अपने बड़ो से नेहरू-गांधी दौर के कई किस्से सुने हैं उनमें से एक किस्सा नेहरू से जुड़ा है- (अभी इसकी सत्यता की जाँच की जानी बाकी है, लेकिन फिर भी किस्सा तो है, जांचने वाले इस किस्से जुड़े तथ्य बताएं तो बेहतर होगा।)
"एक बार जवाहरलाल नेहरू तीनमूर्ति वाले घर से निकल रहे थे तो उन्होंने एक बुजुर्ग सफाईकर्मी को झाड़ू लगाते देखा। उस समय झाड़ू में डंडा नहीं लगा होता था तो उस बुजुर्ग को झुककर झाड़ू लगानी पड़ रही थी। यह देखकर नेहरू रुक गए और उस बुजुर्ग से बात करने पहुँच गए। उसके बाद उन्होंने सरकारी सफाईकर्मियों की झाड़ू में डंडा लगाने का निर्णय लिया और ऐसे ये परंपरा शुरू हुई।"
  हालाँकि मोदी ने भी एक दो बार ये जताया कि वो सर्व सुलभ होने की इच्छा रखते हैं। लेकिन यह मुझे रस्मी ज्यादा लगा। भारतीय राजनीति अन्य उभरते सितारे केजरीवाल के बारे में तो यही कहा जाता है कि सर्व सुलभ होना तो दूर वो तो कई बार अपने विधायकों के लिए भी उपलब्ध नहीं होते।

 सोचना हमें ही है कि क्या हम अपने नेताओं को ऐसे ही दूर से देख के मनोरंजन करना चाहते हैं या उन्हें अपने जीवन में अपनाकर लोकतंत्र का उत्सव मनाना चाहते हैं क्योंकि मांगेगे नहीं तो मिलेगा भी नहीं। रही बात मनोरंजन की तो देखने से भी हो जाता है जबकि उत्सव में भाग लेना होता है।

 वैसे अब नेताओं ने लिखना छोड़ दिया है और सरकारी अधिकारियों ने लिखना शुरू कर दिया है। नेहरू-गांधी परिवार में इंदिरा के बाद तो शायद ही किसी ने कुछ लिखा हो, तो हमें अपने नेताओं के बारे में पता कैसे चलेगा। भाजपा में लिखने को अच्छी विधा नहीं माना जाता तभी तो लिखने वाले जसवंत सिंह का क्या हश्र हुआ सबको पता है और लाल कृष्ण आडवाणी भी "माय लाइफ माय कंट्री" लिखने के बाद कहाँ हैं ये भी सभी को दिखाई दे रहा है।

 खैर अभी इंतज़ार करिये क्या पता मनमोहन सिंह ही कुछ लिख दें...

गुरुवार, 7 जुलाई 2016

अच्छा हुआ कपिल कलर्स छोड़ आए

वडाली बंधु कपिल के शो में
 च्छा ही हुआ कि कपिल शर्मा ने कलर्स चैनल छोड़ दिया। इसी वजह से कम से कम वो टाइप्ड होते-होते बच गए। कलर्स पर जब उनका शो आ रहा था तो उसमें विविधता (वैरिएशन) की बहुत कमी थी। उनकी हाज़िर जवाबी भी भद्दे मजाक में तब्दील हो रही थी, लेकिन वो जब से सोनी पर अपने शो का नया रूप लेकर आये हैं ये एकदम बदला-बदला सा है।

 उनके नए शो में कलाकारों की प्रस्तुति, उसके अतिथियों में, उसकी भाषा में और विषयवस्तु अभी में बहुत बदलाव आया है जो उन्हें फिर से नकलची होने से बचाता है और ये बताता है कि असल की ताकत बहुत बड़ी है। 

 खैर यहाँ बात उनके हाल में आए वडाली बंधु वाले एपिसोड की करते हैं। आम तौर मेरे जैसे संगीत प्रेमियों का वडाली बंधुओं से परिचय उनके गीतों से ही है। उनका 'तू माने या न माने दिलदारा' गाना मुझे कॉलेज के समय से पसंद है और नयी पीढ़ी के लखविंदर वडाली का 'चरखा' अभी कुछ समय पहले ही मन में बसा है। उनका गायक के अलावा एक आम इंसान के रूप में परिचय कपिल के सोनी पर आने के बाद ही हो पाया। उन्हें किस्सागोई करते, डांस करते देखना कितना नया है? मात्र चाय न पिलाने के कितने किस्से, सब स्मृति में समाने लायक।

 सोनी पर आने के बाद कपिल का शो बॉलीवुड के परकोटे से बाहर आया है। उनके शो में अब बॉलीवुड फिल्मों के पब्लिक रिलेशन और प्रचार मंच से आगे बढ़ने की कसक दिख रही है। मराठी फिल्म 'सैराट' के कलाकारों को हिंदी के दर्शकों से रूबरू कराना अपने आप में बताता है कि कपिल की सोच में बदलाव आया है। मैं यह बात इसलिए भी लिख रहा हूँ क्योंकि कपिल इस शो के सह-निर्माता भी हैं।

 सानिया मिर्जा और ड्वेन ब्रावो की बॉलीवुड सितारों के साथ जोड़ी बनाकर किया गया उनका प्रयोग स्पष्ट करता है कि वो असल करने में विश्वास करते हैं,नक़ल में नहीं। अब यूँ तो हम नवजोत सिंह सिद्धू को कई बरसों से हँसते देख रहे हैं लेकिन उनका परिवार कैसा है इसके बारे में हमें कपिल के शो ने ही बताया।

 देखा जाए तो कपिल का शो अब ज्यादा मानवीय स्वरूप लिए हुए है। इससे पहले टीवी पर आए फारुख शेख के 'जीना इसी का नाम है' और ऋचा अनिरुद्ध के 'ज़िंदगी लाइव' जैसे टॉक शो ही मुझे याद हैं जिनके मूल में मानवीय संवेदनाएं हैं। 'जीना इसी का नाम है' में फिल्म, राजनीति, कारोबार, प्रशासन और खेल जगत से जुड़ी कई हस्तियां शामिल रही तो वहीं 'ज़िंदगी लाइव' में ये संवेदनाएं आम लोगों के जीवन संघर्ष से जुड़ गईं।  

 हालाँकि मेरा प्रयास यहाँ किसी भी प्रकार से इन सभी शो की तुलना करना नहीं है क्योंकि कपिल का शो अच्छा है लेकिन अभी भी इन दोनों शो के स्तर का नहीं है। चूँकि कपिल के शो में हास्य प्रधान है तो उसमें संवेदनाएं भी हल्के-फुल्के अंदाज वाली हैं, अब आप चाहें तो गोविंदा या राहत फ़तेह अली खान के शो को ही देख लें। 

 टीवी के लिए शेखर सुमन, सिमी ग्रेवाल, करण जौहर, रजत शर्मा और अनुपम खेर ने भी टॉक शो बनाए, लेकिन इनमें से अधिकतर या तो चकाचौंध भरे या उपदेशात्मक रहे। सितारों के जीवन की मानवीय संवेदनाएं इन शो में उतने अच्छे से उजागर ही नहीं हुई। इस जमात में आमिर खान का 'सत्यमेव जयते' और अमिताभ बच्चन का 'आज की रात है जिंदगी' भी शामिल किये जा सकते हैं लेकिन ये मूलतः टॉक शो नहीं थे।

 वडाली बंधुओं वाला एपिसोड न सिर्फ कपिल को टाइप्ड होने से बचाता है बल्कि हमारा परिचय उस किस्सागोई से भी कराता है जो स्मार्टफोन की तकनीक और समाज से खत्म होते हास्य बोध से हमारे जूझने के बीच खत्म हो रही है। ये हमें वापस व्यक्तिवाद से सामाजिक बनने को प्रेरित करता है और हमारे जीवन के हर पहलू में घुस चुकी राजनीति से हमे थोड़ी देर के लिए दूर ले जाता है।

 ज़रा सोचिये कि सिर्फ चाय न पिलाने जैसी बात पर कितनी बातें और कितने ठहाके इस शो में लगे। ये 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा' के अंत में दावा किये जाने वाले ठहाकों से तो बेहतर ही है। छोटे शहरों में जब लाइट चली जाती थी तो लोग छत की मुंडेर पर बैठकर ऐसी ही किस्सागोई किया करते थे। खैर सरकार अब गांवों में भी 24 घंटे बिजली देने में लगी है तो पता नहीं भविष्य में भी ये वहां बचेगी या नहीं क्योंकि सार्वजानिक यात्रा का सामाजिक संवाद तो वैसे ही कान में ठुंसे हेडफोन खा गए। कितना विचित्र है कि हर सुविधा भी हमारे लिए नामाकूल ही है।

 कपिल के शो की अंतिम बात जो मुझे पसंद है वो यह कि उसकी भाषा बिल्कुल सहज और जमीन से जुड़ी है। उसमें वही देसीपन है जो हमारे आपके बीच संवाद में होता है। वो बेड़ियों में वैसे नहीं बंधी है, जैसे कि "भाभी जी घर पर हैं' की भाषा में जकड़न है। कपिल में एक और जो बदलाव इस शो में दिख रहा है वो यह कि अब उनके ऊपर उनकी 'श्रेष्ठता' का अहम हावी नहीं है तभी तो वो सुनील ग्रोवर को पूरा मौका देते हैं और सुनील ग्रोवर जो कर रहे हैं उसकी चर्चा फिर कभी...
सुनील और कपिल

सोमवार, 20 जून 2016

राजाराम के साथ चाय पर चर्चा

स्रोत - गूगल इमेजेस

 अरे नहीं-नहीं, मैं स्वर्ग में भगवान राम से भेंट करके नहीं लौटा हूँ। वैसे भी मैं उधर जा ही नहीं सकता क्योंकि उसका लाइसेंस तो "भक्तों" के पास है। मैं तो हाल में ग्वालियर की यात्रा पर गया था तो वहां रास्ते में मेरी चप्पल टूट गयी। मैं उसे सुधरवाने जिस "चप्पलों के डॉक्टर" के पास गया था, बस उनका नाम राजाराम है।

 अब वहां बाजार में वो अकेले थे और काम का ढेर भरा, बस फिर क्या था हमने पकड़े चाय के तीन गिलास और उनमें से एक थमा दिया राजाराम जी को और वंही टेक लगा के बैठ गए, तो बस यह ब्यौरा है उनके साथ हुई चाय पर चर्चा का...

"अरे साब इस चाय की क्या जरुरत थी, आप क्यों ले आये, पहले बोला होता तो हम ही मंगा देते।"
"अरे नहीं चाचा, मेरा मन था पीने का तो ले आये, आप बस चाय पियो और अच्छे से सिलाई करना।"
"आप निश्चिन्त रहें, एकदम मजबूत काम करके देंगे, 25 साल से यही काम तो कर रहे हैं।"
"अरे फिर तो आपका तजुर्बा मेरी उम्र से ज्यादा है, तो चाचा आप यंही ग्वालियर के हैं या बाहर से आकर बसे।"
"नहीं साहब, मैं तो यंही का हूँ, बस बाहर कुछ दिन काम करने गया था लेकिन मन नहीं लगा सो वापस यंही आ गया।"

 अब तक राजाराम जी अपनी चाय खत्म करने के करीब पहुंचे थे कि तभी दो और ग्राहक अपनी चप्पल उन्हें दे गए। उन्हें बहुत अर्जेंट चाहिए थी तो चाचा ने तसल्ली भरी निगाहों से मेरी तरफ देखा, मैं तो आया ही समय काटने था तो मैंने भी सहमति दी कि चाचा निपटा लीजिए। चाचा ने चप्पल में कील ठोकी और ग्राहकों से पैसे लेकर उन्हें चलता किया। तब तक मैं भी फ़ोन पर किसी से बात निपटा रहा था फिर जब मैं निपट चुका तो देखा चाचा के हाथ में सफ़ेद धागा था जिसे वो मोम से रगड़ रहे थे।

"अरे निपट गए।"
"हाँ दो कील ही ठोकना था, अब आपका काम ही निपटाएंगे।"
"चलो ठीक है। अच्छा एक बात बताओ कि मैं यहाँ से किला (ग्वालियर का) जाना चाहता हूँ तो कैसे जाऊं।"
"किले के लिए तो सबसे नजदीक उरवाई गए पड़ेगा, यंही से टम्पू मिल जायेगा तो उस से चले जाना।"
"और चाचा यहाँ चौहान साब कैसा काम कर रहे।"
"साब काम तो सबई करते हैं लेकिन अपने को फायदा हो तब कछु समझें।"
"मतलब"
"अरे साब देखो अपन को काम से का लेना देना, अपन को तो रोटी सस्ती चाहिए बस।"
"लेकिन चाचा अब तो सब बढ़िया है, ऐसा ही सुना है।"
"सब सुना ही है ना, हो रहा हो तो बताओ। अब आप तो दिल्ली से आये हैं आप ही बताओ कि वहां वो केजरीवाल कौनो काम कर रहा।"
"अरे चाचा उसे काम करने कहाँ दे रहे लोग।"
"साब ये तो कोरी कोरी बात है। असल बात बताओ।"
"असल में तो मैं बता ही नहीं सकता क्योंकि मेरा वास्ता उससे या उसके काम से पड़ा नहीं।"
"ऐसा ही यहाँ है साब चौहान साब के काम से हमारा वास्ता पड़ा ही नहीं।"

 इसके बाद मेरे पास कोई जवाब नहीं था और न ही बहस बढ़ाने की कोई वजह क्योंकि चाचा ने मुझे एक ही पंक्ति में चुप करा दिया था। फिर मैंने सोचा कि क्यों न मोदी जी (नरेंद्र) का जिक्र छेड़ा जाये, शायद चाचा उनके बारे में कुछ कहें।

"अच्छा चाचा एक बात बताओ ये मोदी जी कछु करेंगे या नहीं।"
"देखो भाईसाब उनने काम तो बहुत सारे करने की कही थी, लेकिन अभी तो मन की बात ही सुनी है।"
"ये तो मजाक वाली बात हो गयी, असल में आपको क्या लगता है, मोदी जी करेंगे कुछ।"
"अरे साब हम भी अख़बार सुनते हैं, टीवी देखते हैं। आपई बताओ गरीब की सुनै है कौनो।"
"वो तो ठीक है चाचा लेकिन मोदी जी तो बहुत काम करते हैं।"
"देखो साब हम बैठते पटरी पर, और दिन के चार आने कम लेते कि बस रोटी कहकर डरे रहें। अब कौनो सरकार आये, मोदी आये या केजरीवाल आये हमाये लाने सब वैसा का वैसा ही है।"

 इसके बाद चाचा से दो चार बातें और हुई। तब तक मेरी चप्पल भी सिल गयी। उनके साथ इस चाय पर चर्चा का कोई निष्कर्ष तो नहीं निकला लेकिन फिर मेरे दिमाग में एक बात जरूर रह गयी।

 चुनाव, नेता, पार्टी और उनके वादों को लेकर ये गरीब जनता जब इतनी निश्चिन्त है तो वो वोट किस आधार पर देती है और क्यों देती है ? जब वो जानते हैं कि सरकार और पार्टियां कुछ नहीं करेंगी तो वो सरकार में उठापटक क्यों कर देते हैं ? क्यों वो हमेशा इस आस में रहते हैं कि उन्हें कुछ मिलेगा ? क्या यही हमारा संविधान उन्हें अब तक दे पाया है...एक अनोखी सी तसल्ली जिसमें बेचैनी तो है लेकिन छटपटाहट नहीं और उसे दूर करने का जुझारूपन भी नहीं। मैं अभी इन प्रश्नों के जवाब तलाश रहा हूँ, अगर आपको किसी भी एक प्रश्न का जवाब मिले तो बताना... 

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

हम सब का एक जैसा हो जाना

 मैं अक्सर अपने दोस्तों से लड़ जाता हूँ कि भाई मैं तेरे जैसा नहीं हो सकता क्योंकि मैं, मैं हूँ। दरअसल ये मेरे अहम की लड़ाई नहीं होती बल्कि ये उस विविधता की लड़ाई है, जो इस दुनिया को बहुत खूबसूरत बनाती है।

 इसे थोड़ा दूसरे तरीके से समझते हैं। फ़र्ज़ कीजिये एक शेर है जो जंगल में रहता है और आशिक मिजाज है। सारी शेरनियां उसे पसंद करती हैं और उस पर लट्टू हैं। जंगल के और शेर इस बात से जलते हैं और उसी शेर की तरह होते चले जाते हैं। लेकिन इसी समय में एक और शेर है जो उसके जैसा नहीं है। वह दिल फेंक आशिक़ न होकर शालीन है और यही एक बात उसे औरों से अलग करती है। कुछ समय सभी शेरनियां एक नए साथी की तलाश में निकलती हैं और वो उन सभी शेरों को नहीं चुनती जो पहले वाले शेर जैसे हो गए बल्कि वो चुनती हैं इस शेर को जो अपनी बात पर अटल रहा।

 हो सकता है ये थोड़ा गलत उदहारण हो लेकिन आप मेरी उस बात के मर्म को समझिए जो मैं कहना चाह रहा हूँ। समानता अच्छा विषय है और इसे होना चाहिए लेकिन एकरूपता से हमेशा बचना चाहिए वरना फिर हमारे पास सिर्फ शेर ही होंगे, बाघ, हिरण, मोर वगैरह नहीं। 

 यही वह बात है जो मैं अपने दोस्तों से कहता हूँ कि अगर मैं भी उनके जैसा हो गया तो फिर हमारे बीच आकर्षण, मतभेद, कहानियां सब खत्म हो जायेंगे और इसके बाद क्या हमारी सभ्यता ठहर नहीं जाएगी ?

 फ़र्ज़ कीजिये कि आप सब जो इस ब्लॉग को पढ़ रहे हैं वो सब भी मेरी तरह ही देखने, बोलने और सोचने लगें तो हमारी दुनिया कैसी होगी। मेरे हिसाब से कुछ-कुछ रोबोटों जैसी। आप इस ब्लॉग को पढ़ें, समझें या यूँहीं अनदेखा कर दें लेकिन अपने का समर्पण नहीं करें।

 हॉलीवुड की एक फिल्म है "आई रोबोट" जिसमें एक रोबोट अपने जैसे कई रोबोट बनाकर इंसान से लोहा लेता है।  इसके बाद मानव और मशीन की जंग छिड़ जाती है। ख्याल और रचनात्मकता के हिसाब से यह फिल्म एक अच्छी फिल्म है लेकिन अगर ये हकीकत में हो तो सोचिये कैसा होगा?

 सारी दुनिया के लोग एक जैसे होंगे, एक जैसे दिखेंगे और एक जैसा सोचेंगे और एक जैसा खाएंगे और और भी बहुत कुछ एक जैसा करेंगे, उनकी नस्लें भी वैसी होंगी। तब कितनी नीरस होगी वह दुनिया क्योंकि फिर आप किसी को निहारना नहीं चाहेंगे, किसी को घूरना भी नहीं चाहेंगे। आपके लिए ख़ूबसूरती और प्रेम के मायने नहीं रह जायेंगे। आपके शब्दकोष में मतभेद और विचारधारा जैसे शब्द नहीं होंगे। तब शर्म-बेशर्म नहीं होगा।  सही-गलत, अच्छे-बुरे की परिभाषाएँ भी बेमानी होंगी। सोचिये तो सही कितना उबाऊ होगा ऐसा संसार ?

 लेकिन अगर उस समय कोई अपनी अलग बात पर अडिग रहने वाला शेर हुआ तो उसके लिए पूरी दुनिया का तानाशाह बनना कितना आसान होगा...आप इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते?

 हमारी दुनिया अन्य ग्रहों की तुलना में शायद इसीलिए इतनी सुन्दर और रोचक है क्योंकि यहाँ विविधता है। इंसानों को जो बात अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ बनाती है वो यही है कि वह ज्यादा बेहतर तरीके से सोच सकता है और यही सोच उसे एक दूसरे से अलग करती, मतभेदों, विभिन्नताओं और विचारधाराओं का निर्माण करती है। 

 अब इसी पहलू को अगर संस्कृति, विचारधारा एवं राजनीति  के संबंध में समझने का प्रयास करें तो बात ज्यादा स्पष्ट तरीके से उभरकर सामने आएगी। 

 अक्सर हमें बाध्य किया जाता है कि कोई अमुक विचारधारा की बात ही ठीक है और बाकि सब बकवास है। फिर यही बात राजनीति में उतर आती है कि हमारी पार्टी का एजेंडा ठीक है बाकि सब बेकार की बातें करते हैं। भारत में वर्तमान राजनीति का आकलन करेंगे तो स्थिति स्वतः स्पष्ट हो जाएगी। एक विचारधारा को स्थापित करने का लक्ष्य ही होता है कि शासक अपनी सत्ता को टूटने नहीं देना चाहता फिर वह चाहे वामपंथी हो या दक्षिणपंथी। इसलिए आजकल कैडर आधारित राजनीति जोर पकड़ रही है क्योंकि कैडर बनने के बाद आप अपने प्रश्नों की विविधता का त्याग कर देते हैं।

 जब इसी बात को आप वैश्विक स्तर पर करते हैं तो वहां अर्थव्यवस्थाऐं जुड़ती हैं।  संस्कृतियों का मिलन होता है लेकिन क्या वाकई ये मिलन हो रहा है ? संस्कृतियों में एकरूपता लाने का प्रयास पहचान और वर्चस्व की जंग बनने लगता है क्योंकि मजबूत (शासक) हमेशा चाहता है कि सब उसके जैसे हो जाएँ ताकि उसकी सत्ता पर कोई आंच नहीं आये लेकिन मानव स्वभाव से विद्रोही होता है क्योंकि ये उसके जानवर से इंसान बनने के दौरान जीन में विकसित हो चूका है और वो कंही न कंही अपने इस स्वाभाव को बचाने का प्रयास करता है।

 ज़रा सोचिये कि रूस और अमेरिका में एक जैसा खाना, रहन-सहन, बोलचाल हो तो कैसा होता? अगर तनी भाषाओं का, शब्दों का, भावनाओं का संकलन नहीं होता तो कैसा होता? फिर हमे जानवर से इंसान बनने की जरुरत ही क्या थी ? काम तो चल ही रहा था आगे भी चल जाता।

 दुनिया में अगर कोई विरोधाभास नहीं होगा तब तो दुनिया की सारी तकलीफों का अंत हो जायेगा ??

 इसीलिए हम अलग रहें लेकिन एक रहें तो चलेगा किन्तु हम सबका एक जैसा हो जाना यह ख्याल ही कितना भयावह है...

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

जनाब बस दिमाग खोलकर चलें...!




 वैसे आमतौर पर मैं राजनीति से परहेज ही करता हूँ क्योंकि आजकल राजनीति के बारे में लिखने का मतलब बुद्धिजीवियों का नेताओं के बयानों पर टीका टिप्पणी करने और समर्थकों का उनके लिए छाती पीटने भर से रह गया है। रही-सही कसर सोशल मीडिया पूरी कर देता है क्योंकि अब संवाद एक तरफ़ा हो चला है।

 हम जब मीडिया की पढाई कर रहे थे तब एक थ्योरी थी "बुलेट थ्योरी" जिसका मोटा सा मतलब यह था कि खबरें बन्दूक से निकली गोली की तरह होती हैं जिसका कोई फीडबैक नहीं आता और आज के सन्दर्भ में यह बात नेताओं की टिप्पणियों पर लागू होती है। बस वो ट्वीट कर देते हैं और उसके बाद सब अपने हिसाब से लड़ते रहो। 

 खैर यह बात तो प्रसंगवश लिख दी लेकिन बात तो मैं जेएनयू के मुद्दे पर करना चाह रहा था।

 मैं अभी तक इस बात को समझ नहीं पा रहा हूँ कि यदि जेएनयू में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगे भी तो उसके वीडियो फुटेज ( Is there any conspiracy? ) मीडिया तक कैसे पहुंचे ? इसका मतलब यह हुआ कि कोई वास्तव में विवाद भड़काना चाहता था। 

 दूसरी बात यह कि सरकार को इस मामले क्या वाकई में दखल देना चाहिए था ? यदि जेएनयू प्रशासन खुद इस बात पर एक्शन लेता तो क्या वह ज्यादा तार्किक नहीं होता ?

 तीसरी बात कि इस मामले में अज्ञात लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गयी तो गिरफ्तारी जेएनयू छात्र संगठन के अध्यक्ष ( Kanhaiya's Clearance. ) की कैसे और किस आधार पर हुई ? क्या उसने इस कृत्य समर्थन किया था?

चौथी बात कि कुछ लोगों द्वारा अंजाम दी गयी इस घटना के लिए पूरा जेएनयू कैसे जिम्मेदार हो गया ?

 यह वो कुछ बातें हैं जिन पर सोशल मीडिया दोनों पक्षों के लोग बहस कर रहे हैं। सब अपने समर्थन में वीडियो को दिखा रहे हैं। तो अनुरोध बस इतना है कि किसी निर्णय पर पहुँचने से पहले दिमाग को विभिन्न पहलुओं से सोचने के लिए थोड़ा खोल लें।

 मुझे और जो बात इस सब प्रकरण के पीछे नजर आई वो यह कि आने वाले साल में पश्चिम बंगाल और केरल के चुनाव होने हैं। दोनों ही राज्यों में लेफ्ट पार्टियों का अच्छा दबदबा है और जेएनयू का लेफ्ट से अच्छा ताल्लुक है। ऐसे में जेएनयू से जुड़ा कोई भी विवाद दोनों राज्यों में कार्यकर्ताओं और समर्थकों को इकठ्ठा करने में काम आएगा। लेकिन शायद सरकार यह भूल रही है कि इन दोनों राज्यों में ही लेफ्ट पार्टियों का आधार काफी मजबूत है तो इससे वो आपके कार्यकर्ताओं से ज्यादा लामबंद हो जायेंगे। कंही यह विवाद पटखनी जैसा न हो जाये जैसा "गोपालक" विवाद बिहार में उल्टा पड़ा था।

 एक और बात जो यह है कि कांग्रेस ने लेफ्ट पार्टियों से गठबंधन कर लिया है ऐसी ख़बरें चर्चाओं में हैं। तो कंही भाजपा को यह डर तो नहीं सताने लगा है कि कांग्रेस महज दो साल में ही फिर से मजबूत होने लगी है। जैसे बिहार में उसकी स्थिति सुधरी है अगर वह और जगह भी बेहतर हुई तो कांग्रेस मुक्त भारत का सपना कैसे पूरा होगा। 

 एक और बात जो मुझे इस प्रकरण में समझ में आ रही है वो यह है कि जेएनयू के विवाद से अफज़ल गुरु के विवाद को जोड़ देना कंही कश्मीर के संकट से उबरने के लिए अपने समर्थकों के बहाने जन समर्थन जुटाने का प्रयास तो नहीं है क्योंकि मुफ़्ती मोहम्मद सईद के निधन के इतने दिन बाद भी वहां सरकार नहीं बनी है।

 इसके अलावा भाजपा के लिए सबसे अहम चुनाव उत्तर प्रदेश के हैं और उसमें एक साल करीब का वक़्त रह गया है। वहां बसपा फिर से उभर रही है और हाल के पंचायत चुनावों में उसके समर्थन वाले प्रत्याशी जीते हैं। ऐसे में जेएनयू के माध्यम से दलित-पिछड़े वोटों ध्रुवों में बांटने का काम तो नहीं किया जा रहा ताकि मायावती के उभर को रोका जा सके, उन्हें सीबीआई से उतना डरा भी तो नहीं सकते जितना कि मुलायम सिंह यादव को और फिर सपा को तो भाजपा की राजनीति से हमेशा फायदा ही मिलता है। 

 तो बहुत से सवाल हैं और बहुत सी संभावनाएं बस आप अपना दिमाग खोलकर रखें जनाब। बाकि ये भारत है, विविधताओं से भरा, इसे किसी एक विचारधारा में किसी का भी बांधपाना नामुमकिन ही है चाहें तो पूरा इतिहास खंगाल के देख लो।

सोमवार, 7 सितंबर 2015

अब सोहन हलवा कैसे खाएंगे...?

 ब भी मैं दिल्ली के आम ढाबों में मिलने वाले शाही पनीर, दाल मक्खनी और तरह-तरह के पंजाबी खानों से ऊब जाता हूँ तो पुरानी दिल्ली की गलियों का रास्ता अख्तियार कर लेता हूँ और किसी न किसी एक मित्र को साथ चलने के लिए पटा ही लेता हूँ।

 पुरानी दिल्ली की गलियां न केवल मांस के शौकीनों को अपनी ओर खींचती हैं बल्कि मुझ जैसे शाकाहारियों को भी यहां की कढ़ाहियों से उठने वाली महक सराबोर कर देती है। वैसे भी यहाँ आकर खाने का लालच बढ़ जाता है तो मैं एक दादा जी दौर का नुस्खा अपनाता हूँ ताकि ज्यादा से ज्यादा जायके का आनंद ले सकूँ।

 चांदनी चौक में अक्सर मैं खाने की शुरुआत कांजी वड़े या गोलगप्पों से करता हूँ। इन सबकी रेसिपी पर फिर कभी विस्तार से चर्चा करेंगे। हाँ लेकिन यहाँ यह बताना दीगर होगा कि ये दोनों ही हाजमे के लिहाज से बेहतर होते हैं तो शुरुआत के लिए अच्छे हैं।  वैसे भी इनके पानी में खट्टे के साथ तीखपन होता है जिसे शांत करने के लिए चांदनी चौक की मिठाइयां जरूरी सी हो जाती हैं। 

गोलगप्पे का खोमचा
 गोलगपे मुझे सिर्फ नयी सड़क पर बड़े पेट वाले भाईसाहब के खोमचे के पसंद आते हैं या फिर हल्दीराम के ठीक बगल में ऊंचे दासे वाली दुकान के। इनका नाम पूछने की पिछले आठ साल में मुझे कभी जरुरत महससू ही नहीं हुई क्योंकि मुझे हमेशा ही ऐसा लगा कि ये यहाँ जैसे आदिकाल से हैं।  कांजी वड़े की दुकान भी हल्दीराम के पास में ही है तो चांदनी चौक की यह लेन मेरी जायके की यात्रा की सनातनी शुरुआत है।

 इसी लेन के ठीक सामने एक दुकान हुआ करती थी घण्टेवाला की, लेकिन इस बार उस दुकान को बंद देखकर मन खिन्न सा हो गया। जब आस-पास पता किया तो पता चला कि कई महीनों पहले ही यहाँ ताले पद गए हैं और उसकी वजह दुकान का घाटे में चलना है।

 आमतौर पर लोगों को घण्टेवाला  का नाम सोहन हलवे के लिए याद रहता है लेकिन जिसने भी यहाँ पर रसमलाई का स्वाद लिया है, उसके लिए भी घण्टेवाला ख़ास तवज्जो रखता है।

घण्टेवाला की दुकान का साइनबोर्ड
 सोहन हलवा को अगर दिल्ली की मिठाई के तौर पर जाना जाता है तो उसकी एक बड़ी वजह घण्टेवाला ही है। घण्टेवाला के इतिहास की जानकारी आपको आसानी से विकीपीडिया पर मिल जाएगी कि कैसे 200 साल से भी ज्यादा पुरानी परंपरा से इन लोगों ने सोहन हलवे को एक स्थायी मिठाई में स्थान दिलाया। लेकिन इसका यूँ अचानक बंद हो जाना मुझ जैसे मिठाई के शौकीनों के लिए बहुत विस्मय से भरा है। 

 मेरे बचपन में जब भी पिताजी दिल्ली से लौटते थे तो सिर्फ सोहन हलवे का ही इंतज़ार मुझे रहता था। अब जब मैं दिल्ली रहने लगा तो इसका  इंतज़ार करने वालों में पिताजी शामिल हो गए और मैं इसे ले जाने वाला। न सिर्फ मेरे बचपन की यादें बल्कि मेरी माँ के बचपन की भी कई यादें घण्टेवाला के सोहन हलवे से जुडी हैं। लेकिन अब यह स्वाद ही याद बन गया है। 

 घण्टेवाला की दुकान बंद होना एक और सामाजिक-आर्थिक पहलू पर गौर करने के लिए इशारा करती है। इसके ठीक सामने हल्दीराम की दुकान है और इसी बाजार में बीकानेरवाला, कँवरजी जैसी और भी मिठाइयों की दुकानें हैं।

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

छोटे शहरों को ज़िंदा करता मसान

 मुझे इस बार कोई और शीर्षक नहीं सूझा, वजह साफ़ है कि इस फिल्म की आत्मा में वो छोटा शहर है जो मुख्यधारा से कटता जा रहा है और यूंही किसी घाट पर अपनी जिंदगी में नयी किरण ढूंढ रहा है, ठीक वैसे ही जैसे फिल्म के किरदार दीपक और देवी अपनी पुरानी यादों को गंगा जी में बहाकर एक नाव में शायद किसी नए कल की तलाश में चल पड़ते हैं।

 अब मैं इस फिल्म की तारीफ ज्यादा करूँगा तो इस इल्ज़ाम को भी झेलना होगा कि भई अवार्ड जीती हुई फिल्म है तो तारीफ तो करेंगे ही जनाब ! तो फिल्म के बारे में समीक्षात्मक बातें बाद में करते हैं पहले इस पर थोड़ी चर्चा कर लेते हैं कि फिल्म प्रभावित क्यों करती है ?

'दम लगा के हईशा' का एक दृश्य
 लंबे समय से मीडिया और फिल्मों से देश के छोटे शहर गायब थे,  सब कुछ महानगरों तक सीमित हो रहा था फिर वो चाहे समाचार हों, टीवी के धारावाहिक या फ़िल्में। लेकिन अगर आप पिछले दिनों आई कुछ फिल्मों को देखें मसलन 'तनु वेड्स मनु' के दोनों संस्करण और 'दम लगा के हईशा', इनमें खांटी देसीपन की खुशबू है। ये उस भारत से भी परिचय कराती हैं, जो छोटे शहरों में बसता है और उनकी भी एक आत्मा है।

 'मसान' इसी कड़ी को और आगे ले जाती है। ये उन छोटे शहरों को ज़िंदा करती है, जहाँ सेक्स अभी भी एक जिज्ञासा है और प्यार की पींगे अपने शहर से दूर जाकर बढ़ाई जाती हैं, वो भी किसी दोस्त की बाइक उधार लेकर या यह उन शहरों की भी कहानी है जहाँ फेसबुक और स्मार्टफोन जैसे सूचना क्रांति के वाहक अपनी पहुँच बना रहे हैं और लोग उनका इस्तेमाल सीख रहे हैं या जहाँ की भ्रष्टाचार से परेशान जनता समाचारों की सुर्खियां नहीं है ।

 वैसे हमारे महानगरों में भी आपको कई छोटे शहर मिल जायेंगे, कभी दिल्ली में ही लक्ष्मी नगर, सीमापुरी, शाहदरा, नवादा, रघुबीर नगर और जामा मस्जिद के पास के इलाके घूम आइये, खुदबखुद दर्शन हो जायेंगे छोटे-छोटे कई शहरों के।

 'मसान' की कहानी की चर्चा यहाँ नहीं करना बेहतर जान पड़ता है मुझे क्योंकि मैं नहीं चाहता कि अगर अभी जो लोग फिल्म देखने जाने वाले हैं वो मेरी धारणा को लेकर जाएँ मन में, लेकिन सन्दर्भ के लिए बस इतना बता देता हूँ कि कहानी में एक नायिका है देवी पाठक और एक नायक है दीपक कुमार लेकिन इन दोनों का आपस में कोई संबंध नहीं।

 दोनों किरदारों की अपनी अलग-अलग कहानियां है, दोनों के जीवन में  संयोग और वियोग रस का श्रृंगार हैं। दोनों के जीवन में खलनायक है उनका 'डर" जो उन्हें समाज से , जाति से , जाति के आधार पर बंटे काम के भेदभाव से , ऊंच-नीच से  और पुलिस से है।  केवल एक चीज उन्हें जोड़ती है और वो हैं बनारस की गंगा पर बने घाट और उन पर बने मसान, जहाँ उनका प्रेम धू-धू करके खाक में मिल जाता है और जब इसी मसान-तट पर वो अपने डर से पार पातें हैं तो उम्मीद की किरण उन्हें साथ ले जाती है।

 फिल्म की जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वो है इसके अधूरेपन का संपूर्ण होना। ये जहाँ से शुरू होती है उसका कोई बैकग्राउंड नहीं और जहाँ खत्म होती है उसके आगे ये अनंत है। अंग्रेजी में इसका नाम 'फ्लाई अवे सोलो' है जो बताता है कि मसान से आगे का रास्ता इंसान अकेले ही धुंए में उड़कर करता है।

 निर्देशक नीरज घेवन की यह पहली फिल्म है और कान्स समारोह में अवार्ड जीतने के बाद भारत में रिलीज हुई है। फिल्म का स्क्रीनप्ले बेहतर है लेकिन कैमरा का काम और बेहतर किया जा सकता था। फिल्म के तीन गाने इंडियन ओसियन के रंग में रंगे हैं और तीन अलग-अलग मूड्स को दिखाते हैं, हालांकि यह अच्छा ही किया कि 'भोर' गाने को फिल्म के अंत में रखा क्यूंकि मध्य में यह फिल्म को भारी बना देता।

 फिल्म में देवी का किरदार ऋचा चड्ढा ने निभाया है और उनके पिता के किरदार में हैं संजय मिश्रा। इन दोनों कलाकारों से बेहतर अभिनय की उम्मीद की जाती है और दोनों ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है। हालांकि ऋचा पूरी तरह से बनारस के रंग में नहीं रंग पाती हैं।

 दीपक का किरदार निभाने वाले नवोदित अभिनेता विकी कौशल निश्चित रूप से प्रभावित करते हैं। ज़रा सोचकर देखिये कि एक अभिनेता के लिए कितना मुश्किल होता होगा कि वह बनारस के हरिश्चंद्र घाट पर वह मुर्दों को जला रहा है, एक ऐसा काम जो उसने शायद ही कभी किया हो, लेकिन उसके अभिनय में कोई झिझक या शिकन न दिखे, ऐसा ही विकी का अभिनय है।

 फिल्म में बनारस एवं  गंगा के घाटों पर चली आ रही दहन की परम्परा भी एक किरदार है।  काशी विश्वनाथ और गंगा आरती को दिखाए बिना भी फिल्म की हर रग में बनारस मौजूद है। तो बस देख आइये एक बार 'मसान', क्योंकि अगर अच्छा देखने में यकीन रखते हैं तो ये आपको निराश नहीं करेगी।

शनिवार, 27 दिसंबर 2014

शनिदेव श्रृंखला...

कमाल है...
आज निर्माण विहार मेट्रो स्टेशन के बाहर की दो तस्वीरें...
एक बताती है कि इस मार्केट में भगवान के बीच भी गजब कॉम्पटीशन है और दूसरी बताती है कि भगवान आपके बगल में ही क्यों न हो तब भी भूख से रोते बच्चे को चुप नहीं करा सकते...

सोमवार, 21 जुलाई 2014

अंजान लोगों से दोस्ती न करें!!

 दिल्ली में पिछले सात सालों से हूँ।एक चीज थी जो मुझे लगता था की यहां शायद वो लोगों के बीच से कंही चली गयी है। पर आज लगा कि नहीं इतनी जल्दी भी हम सब कुछ कैसे भुला देंगे।
 पहले जब कभी यात्रा पर जाने का मौका मिलता था तो आस-पास वालों से बातचीत करते हुए वक्त कट जाया करता था। बस और ट्रेन से सफर के दौरान न जाने कितने मित्र बन जाया करते थे। सफर में फिर चाहे बात राजनीति की हो या फ़िल्मी गपशप, आसपास बैठे लोग रस के साथ बतिया थे। अब इससे हमारे विभिन्न धर्मों-जातियों-परम्पराओं वाले देश के बारे में हमारी जानकारी बढ़ती थी या नहीं वो मैं नहीं जानता लेकिन काम से काम सफर बीतते देर नहीं लगती थी। अखबार किसी एक के पास हो और या कोई गुलशन नंदा का नॉवेल या कोई पत्रिका उसे कंपार्टमेंट में बैठे या बस में आगे-पीछे सीट वाले सब लोग पढ़ ही लिया करते थे।
 फिर धीरे-धीरे हमारी जिंदगी में मोबाइल ने घुसपैठ करनी शुरू कर दी और बातचीत का यह अंतराल सिमटने लगा। तकनीक सस्ती हुई और मोबाइल से स्मार्टफोन, लैपटॉप और टैब तक की दूरी हमने कब ख़त्म कर ली पता ही नहीं चला लेकिन ट्रेन और बस में साथ सफर करने वालों से की जाने वाली वो बातें भी न जाने कंही ख़त्म सी हो गयी थीं।
Think as Delhi Metro Handrail
 दिल्ली मेट्रो में सफर के दौरान लोग आपको अक्सर कानों में कनखजूरे (हेडफोन) लगाये गाने सुनते मिल जायेंगे। खैर ये व्यक्तिगत पसंद का मामला है। लेकिन कई बार तो मुझे आश्चर्य होता कि साथ सफर करने वाले दोस्तों के झुंड भी संवाद नहीं करते हैं तो अनजानों से बात करना तो बेमाना है। ऐसे में समाज का संवाद गायब तो हो ही रहा है। अब इसके और क्या नुकसान हैं वो एक अलग चर्चा का विषय हो सकता है।
 पर आज मेट्रो का सफर कुछ उम्मीद जगाता है। कॉलेज जाने वाले कुछ लड़के जो साथ में ही खड़े थे उनसे थोड़ी बातचीत हो ही गयी और मेट्रो का सफर इतना बोरिंग भरा नहीं रहा जैसा अमूमन होता है। तो एक बेहतर उम्मीद है की बस अभी वो पूरी तरह नहीं खोया है जो बहुत दिनों से दिख नहीं रहा था।
 सच तो ये है कि हम अपनों के  पास हैं लेकिन अपने पास वालों से बहुत दूर ऐसा इस नयी बदलती दुनिया में हो तो रहा ही है। दिल्ली से नोएडा जाएँ या गुड़गांव हमारा सफर भी बहुत बोरिंग हो रहा है। एक तरफ हम कम्युनिकेशन एरा में जी रहे हैं और दूसरी तरफ संवाद भी नहीं कर रहे हैं। पता नहीं क्या हम बनना चाहते हैं और क्या बनते जा रहे हैं। लेकिन कम से कम महज इंसान बनने से तो अभी कोसों दूर हैं।
 वैसे मेट्रो में जाएँ तो उस उद्घोषक का हिंदी में वह डायलॉग जरूर सुनें जिसमें वो कहता है, "अंजान लोगों से दोस्ती न करें!!" अब उसे कौन बताये दोस्ती अनजान से ही होती है जान-पहचान वाले तो रिश्तेदार बन जाते हैं। कभी खुद से पूछें कि क्या आप अपने सभी दोस्तों को पहले से जानते थे ? मैं थोड़ा नियमों का उल्लंघन करते हुए उसकी बात नहीं मानता हूँ और मौका ए दस्तूर पर बात कर ही लेता हूँ। मुझे अपना सफर बोरिंग बनाना बिलकुल पसंद नहीं और ऐसी पहल करने में मैं कभी बुराई नहीं समझता।

फोटो विशेष-


यूँ जिंदगी भी एक दिन हमारी
डिब्बे में बंद न हो जाए
हम बस सुनते रहें अपनी कहानी
और कोई हमारी आवाज भी न सुन पाये....

मंगलवार, 13 मई 2014

फेसबुकियाई नियम

 सच में मैं तंग सा गया हूँ, इन फेसबुक के नियम कानूनों से। इतना तो इस देश का कानून भी आपको मज़बूर नहीं करता अपनी मर्जी से न जीने देने के लिये।

 अब भला ये भी कोई  बात है कि आपको फेसबुक  पर किसी के बारे मे लगातार जानना हो तो उसे या उसके पेज को लाइक करो ही करो। अब भले ही मैं उस व्यक्ति के बारे में लगातार अपडेट रहने को उत्सुक हूँ, लेकिन इसका ये मतलब तो कतई नहीं  है कि मैं अमुक को पसन्द भी करता हूँ । अब ये तो फिर वही बात हुई मान ना मान मैं ही पहलवान बाकि दुनिया ख़ाने जाए पान। (हो सकता है ऊपर दी हुई पंक्ति आपको रसपान न कराए लेकिन  इतनी स्वतंत्रता तो लिखते समय ले ही सकता हूँ, वैसे भी आजकल पान बड़ा चर्चा के केंद्र में है।)

 अब अगर फेसबुक पर मैं किसी भी चर्चित व्यक्ति मान लीजिये नरेन्द्र जी ही सही के बारे मे अपडेट रहने की कोशिश करता हूँ तो  इसका मतलब ये तो कभी नहीं हो सकता ना कि मैं नरेन्द्र जी को पसन्द ही करता हूँ। (वैधानिक चेतावनी - यहाँ नरेन्द्र जी के नाम को उदाहरण की तरह लिया गया है ये कोई भी नरेन्द्र जी हो सकते हैं। इनका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से संबंध पाया जाता है तो इसे मात्र एक संयोग कहा जायेगा।)


 कई बार उन लोगों के बारे मे भी लगातार जानकारी रखना चाहते हैं जिन्हें आप पसंद नहीं करते ताकि यदि उसके विरोध का वक़्त आये तो आप मुखर हो कर वो भी कर सकें।

 विरोध का भी अपना मजा होता है और उसके लिये किसी को नापसंद करने का कोई स्पष्ट पैमाना अभी बना नहीं है ये तो व्यक्ति के हिसाब से बदलता रहता है।

 वाकई ये फेसबुकियाई कानून तो हमें सभी ऐरे गैरों को पसंद करने को मजबूर कर रहा है।

बुधवार, 8 जनवरी 2014

बदल रहे हैं हम

वैसे तो एक जनवरी भी साल के बाकी के आम दिनो की तरह ही एक आम दिन होता है, लेकिन फिर भी बदलते साल का कुछ रोमांच इसे दिलचस्प बना देता है। वैसे हम खुद लगातार बदलने की प्रक्रिया से गुजरते रहते हैं, कोशिश होती है कि बदलाव अपने में लायेंगे लेकिन साल बदल जाते हैं हम नहीं बदल पाते और वही पुराने ढर्रे पर चलते रहते हैं।
शपथ लेते हुए राखी बिड़ला (बिडलान)
खैर हम बदल रहे हैं ये नजर आने लगा है अगर बात राजनीति से शुरू की जाये तो दिल्ली में अरविंद के मुख्यमंत्री बनने से ज्यादा चौंकाने वाली बात ये रही कि युवा वर्ग की राजनीति में भागीदारी बढ़ रही है, अब युवा राजनीति को गटर नहीं समझ रहा। दूसरी तरफ जो युवा मोदीमय है उसे भी एक अन्य विकल्प नजर आ रहा है। इस बीच जो सबसे ज्यादा अचंभित करने वाली बात है वो है राखी बिडलान का मंत्री बनना। मात्र 26 साल की उम्र में किसी सरकार में मंत्री बनना वो भी बिना किसी राजनीतिक विरासत के इस देश कि राजनीति के बदलने की ओर संकेत करता है। भले ही अभी इन सभी के काम पर व्यापक चर्चा होनी बाकि है और इनके राजनीतिक तरीके पर भी, लेकिन जरा एक दशक या उससे थोड़ा और पहले भी नजर दौड़ाएं तो देश में ऐसा कोई उदहारण नहीं दिखता कि 26 की उम्र में कोई मंत्री बना हो।
एक बड़ा बदलाव अबकी से मुझे पाने प्रधानमंत्री में भी नजर आया कि वो अब राजनीतिक प्रश्नो से बचते नहीं हैं बल्कि उनका जवाब देते हैं जिसकी बानगी इस बार की उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस में आप देख सकते थे। अब ये तो भगवान का कसूर है कि वो कितने भी दमदार हो जाएँ लेकिन नजर ही बेचारे आते हैं। अब इसके लिए कोई भगवान में बदलाव लाये तो मुनासिब है।
हाँ भगवान ने जरुर अब लोगों के घरों तक पहुँचने का अपना टाइम बदल लिया है। पहले टीवी पर वो सुबह-सुबह दर्शन देने आते थे वो भी अक्सर शनिवार और रविवार के दिन लेकिन अब वो भी वीकेंड मानते हैं और शनि-रवि को टीवी से गायब रहते हैं भाई आखिर उनकी भी तो इच्छाएं हैं क्या बदलते दौर में उनका मन नहीं होता होगा कि वो भी न्यू इयर ईव पर पार्टी मनाने जाएँ। समय भी उनका बदल चुका अब तो वो रात को आते हैं प्राइम टाइम पर आत 8 बजे से।
वैसे अब उबके दर्शन करने वाले लोगों में भी बदलाव आया है अब वे  टीवी के सामने रोली-चावल लेकर नहीं बैठते, न ही उन्हें इन सीरियलों के सास-बहू टाइप सीरियलों में बदलते जाने से चिड़ होती है और उन्हें अब जल्द ही इससे भी गुरेज नहीं होगा कि उनके भगवान संस्कृत क्यों नहीं बोलते, उनके लिए तो अच्छा है कि भगवान भी हाईटेक होते जा रहे हैं तभी तो विजुअल इफेक्ट्स के साथ आजकल भगवान साउथ के सुपरस्टार से कम नहीं लगते। इतना ही नहीं दर्शकों को अब धारावाहिकों में भगवान को लेकर दिखाए जा रहे तथ्यों की भी परवाह नहीं, तभी तो मूल शास्त्रों से तमाम असंगतियां होने के बाबजूद भी लोग इसे स्वीकार कर रहे हैं। वरना जोधा अकबर के नाम पर मचा बवाल तो  आप जानते ही हैं वंही अब सीरियल आ रहा है इसी नाम से तो कोई बवाल नहीं। तो लोग थोड़े ही सही धार्मिक रूप से उदार तो हुए हैं।
वैसे एक बदलाव अब मैं अपने घर में भी देखने लगा हूँ मेरी दादी कि उम्र यही कोई 82 के आस-पास होगी जब एक साल पहले उन्हें हमने मोबाइल दिलाया था तो वो उससे बेहद अनजान थी और वैसे भी 80 की उम्र में कौन इस सरदर्दी को पालना चाहता है लेकिन उनकी जिजीविषा और तकनीक के बढ़ते प्रभाव ने उन्हें मोबाइल पर सिर्फ कॉल उठाने तक सीमित नहीं रखा बल्कि खुद से कॉल लगाने में भी दुरुस्त बना दिया है।

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

कीमत

कुछ दिन पहले एक काम से जनपथ मार्किट जाना हुआ। वैसे तो मैं कई बार इस बाजार में गया हूँ लेकिन सर्दियों के शुरूआती दिनों में मैं पहली बार इस बाजार में गया। बाजार में हर तरफ भीड़ ही पसरी थी और ऊनी कपड़ों की बहार सी छायी हुई थी। जहाँ देखो तो सूटर (स्वेटर), जैकेट्स, कोट और तरह-तरह के ऊनी कपडे थे। लेकिन एक बात जिसने मेरा ध्यान खींचा वो था वहाँ लगाई जाने वाली आवाजों ने, 450 के 3 टी-शर्ट्स, 500 की जैकेट इत्यादि।

पालिका बाजार के बाहर का एक दृश्य 
 मुझे याद आया कि इस तरह  आवाज लगा-लगा के हमारे शहर में पटरी पर तो नहीं पर हाँ हाट और मेले में सामान जरुर मिलता है। साल में दो बार, नवदुर्गा उत्सव के अवसर पर तो मेरे घर के बाहर ही मेला लगता है लेकिन जो सामान हमारे यहाँ आवाज लगा कर बेचा जाता है उसकी कीमत यही कोई 10-50 रुपये के बीच तो अब होने लगी है अन्यथा एक समय में तो यह 2-10 रूपये ही हुआ करती थी। अब पता नहीं यह महंगाई की मार है या कुछ जमाखोरों की कारिस्तानी पर वक्त से साथ हम इन 2 से 10 की कीमतों के फर्क के आदि हो गए हैं।

 पर यहाँ जब मैंने 500 रुपये का सामान भी आवाज लगाकर बिकते हुए देखा तब मुझे रुपये कीमत समझ में आयी कि यह वाकई कितनी गिर गयी है। तभी तो 500 रुपये का सामान भी यूँ पटरी पर बिक जाता है और लोग भीड़ लगाकर खरीदने के लिए खड़े भी रहते हैं। वरना हम तो 500 रुपये में कितना कुछ कर लेते थे लेकिन ये दिल्ली है भाई सबको उनकी कीमत से वाकिफ करा ही देती है चाहे फिर वो पैसा हो या रुपया, नेता हो या अभिनेता, इंसान हो या भगवान। 

रविवार, 29 सितंबर 2013

खाऊ देश के लोगों के खाने का जुगाड़

 हम लोग खाने वाले लोग हैं और इसी वजह से ही हमारी सरकार, जनता सब दिन-रात खाने की ही सोचते रहते हैं।कई बार हम से कुछ लोग इतना खा लेते हैं कि जरुरतमंदों तक खाना नहीं पहुँच पाता और इससे फिर सरकार को उनके खाने की भी चिंता होती है। अब देखो न सरकार ने हमारे देश की सत्तर प्रतिशत जनता के खाने का जुगाड़ किया है। अध्यादेश तो सरकार ले आई लेकिन वास्तव में ये किसके खाने का प्रबंध है ये जानना बाकी है।
कृष्ण-सुदामा
 श्रीकृष्ण वाले इस प्रसंग की विभिन्न व्याख्याएं हो सकती हैं लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह परंपरा हमारे लिए और सरकार के लिए एक विकराल समस्या का रूप लेती जा रही है और आने वाले समय में यह और भी घातक हो जाएगी। खैर अब बात करते हैं की इस अध्यादेश से किसके खाने का प्रबंध होगा ? खाऊ देश के लोगों के खाने का जुगाड़ है यह बिल। सरकार को कम से कम चिंता तो है कि गरीबों के पेट में खाना पहुंचे लेकिन ये तो सभी जानते हैं कि खाना जनता के पास थोड़े ही पहुंचेगा बल्कि हम आदत से बेइमान लोगों के बीच से गए अधिकारिओं, नेताओं और पता नहीं किन-किन दलालों और राशन की दुकानों वालों के पास पहुंचेगा। तभी तो सरकार ने सोचा कि क्यूँ न गरीबों को इसके पैसे ही दे दिए जाएँ और वो खुद ही बाज़ार से सामान खरीद के खा ले, लेकिन हम ठहरे आदत से मजबूर हैं जिस काम के लिए बोल जाये उसे कैसे कर सकते हैं हम उसे छोड़ के सब करते हैं तो फिर खाने के पैसे हम भारतीय दारु और जुए में नहीं खर्च करेंगे इसकी गारंटी कैसे दे सकते हैं ?
साभार-सतीश जी

 गरीबों को जो काम हमने दिया वो कुछ समय बाद उन्हें बेकार और बेगार दोनों का ही मरीज बना देगा। हमने उन्हें कुछ सिखाने का काम थोड़े ही किया और हमने इस व्यवस्था को कायम कर उनके अन्दर की प्रतियोगिता की भावना को भी ख़त्म किया और अब खाना देकर हम उन्हें नाकारा बनाने का भी जुगाड़ करने जा रहे हैं और कुछ लोगों के खाऊ होने की आदत को हम इतना बढ़ावा दिए जा रहे हैं कि आने वाले दिनों में उनको होने वाले मोटापे और उससे होने वाली बीमारियों के इलाज़ का जुगाड़ करने की भी जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी।

 क्या यह अच्छा नहीं होता कि हम उन्हें काम देते और नए काम करने के काबिल बनाते और उन्हें इज्जत से रहना सिखाते ताकि भविष्य में किसी भी स्थिति में वो जी सकें। क्यूंकि ये खाना जो उनके लिए जुटाया जा रहा है इस व्यवस्था में तो उन्हें नसीब होने से रहा। 
 लेकिन अब क्या करें हमें अपने कुछ बड़े लोगों के खाने का जुगाड़ तो करना ही था नहीं तो वो बेचारे और भुखमरी से मर जाते। अध्यादेश तो सब के खाने के लिए है लेकिन देखते हैं कि कौन-कौन सी मछली को दाना नसीब होता है क्यूंकि वो कहावत है न कि दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम।

 हम लोग वैसे भी गरीबों को काम तो देते नहीं हाँ खाना जरुर दे देते हैं। वैसे इस बात के लिए मैं पूरी तरह श्रीकृष्ण को दोषी मानता हूँ, आखिर जब सुदामा उनके पास कुछ अपेक्षा लेकर आया था तो मित्र के नाते उन्होंने उसे काम क्यों नहीं दिया बल्कि मुफ्त में सब सुख-सुविधाएँ उसे देकर सम्पूर्ण भारत के आने वाली पीढ़ियों के लिए गलत परंपरा का प्रतिपादन किया। अगर वो उसे काम देते तो कम से वो अपने और अपने परिवार के लिए कुछ सार्थक कार्य करते और नवीन संभावनाओं का निर्माण होता किन्तु ऐसा नहीं हुआ और हमारे बीज में ही भीख मांगना, खाना देना जैसी परंपरा का विकास हुआ जिस वजह से हमने अपने लोगों को एक लम्बे समय में कामचोर बनाने को प्रशिक्षित किया।

 और बेचारे हमारे अधिकारी, राशन वाले, नेता और दलाल सब इस व्यवस्था के धनात्मक शिकार हैं तभी तो वो इतना माल गटक के भी डकार नहीं लेते। इसमें तो उनके नाम गिनीज बुक रिकॉर्ड है "द वर्ल्ड मोस्ट कलेक्टिव ईटिंग रिकॉर्ड"। खाऊ लोगों के पास इसका तो हक बनता ही है और वैसे भी हमारे खाने की आदत से तो अमेरिका का राष्ट्रपति भी परेशान है।

शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

मैं क्या लिखूँ?


 अक्सर ख्याल आता है कि कुछ लिखूँ, फिर मन में सोचता हूँ कि क्या लिखूँ? अगर हर कोई लिखने में ही जुट गया तो पढ़ेगा कौन ? वैसे सोचिये क्या समां होगा वो जब हर कोई सिर्फ और सिर्फ लिखेगा। आप अपनी कोई भी बात किसी तक सिर्फ लिख कर ही पहुंचाएंगे। वैसे भी तकनीक ने ये आसान कर ही दिया है, अब हमारी ज्यादातर बाते टेक्स्ट मैसेज से ही हो जाती हैं और बाक़ी बातें हम ईमेल और चैट से कर लेते हैं।



 अभी कुछ दिनों पहले देश का तार, बेतार हो गया तो मेरे अन्दर एक डर बैठ गया कि कंही अब अगला नंबर अंतर्देशीय पत्र (इनलैंड लैटर) का न हो गरीब आदमी जैसे भी हो दो-ढाई रुपये का जुगाड़ करके अपने परिजनों का हाल-चाल जान लेता है। खैर कुछ समय पहले ये घोषणा हुई थी कि सरकार हर किसी को मोबाइल देगी खासकर के गरीब को। मैं तो सोच रहा हूँ कि चलो अच्छा है इस मामले में तो हम चीन से आगे होंगे लेकिन ये कब तक होगा वो इस देश में सिर्फ राम ही बता सकते हैं।

 मैंने अपनी अब तक की उम्र में तार का चलन नहीं देखा, हाँ लेकिन उसके दिल दहला देने वाले कई किस्से अपने दादी से सुने जरुर हैं कि कैसे तार आते ही घर में हडकंप मच जाता था, सब कोई अपना काम छोड़ के उसे सुनने रुक जाता, लोग सीढियां चढ़ते-चढ़ते कब उतरने लगते उन्हें पता भी नहीं चलता और कोई अच्छी खबर होती तो जान में जान आती, वरना बोरिया-बिस्तर बंधना शुरू हो जाता। पर एक चिंता हमेशा बनी रहती कि क्या नया खर्चा बढ़ेगा उस महीने और उसका जुगाड़ कहाँ से होगा उन पैसों का।

 वैसे अच्छा ही हुआ कि इस सफ़ेद हाथी का हुक्का-पानी बंद कर दिया गया, अन्यथा पुरातनपंथियों का बस चले तो उसे भी चलाते रहें। हमारे यहाँ तो आदत है कि काम हो न हो अगर कुछ है तो ढोते रहो। कबाड़ जमा करने का शौक जो है, अब आप सरकारी दफ्तरों को जाकर ही देख लीजिये जितने पैसों में उनका डिजिटलाईजेशन हो सकता है उतना पैसा उनके कबाड़ को बेच के निकल आये लेकिन नहीं हम अब भी उसी कबाड़ को ढोए जा रहे हैं। इसी कबाड़ के चक्कर में आम आदमी को सरकारी दफ्तर के चक्कर चकरघिन्नी की तरह काटते रहना पढ़ता है।

 लेकिन अगर अंतर्देशीय पत्र की बात की जाए तो उसका मिजाज थोड़ा अलग है। पुराने समय में बेटियां अपने मायके इस चिट्ठी से ही अपने ससुराल की बातें और अपनी आपबीती बयां करती थीं, माँ-बाप भी उसे पढ़ते-पढ़ते पूरे आंसुओं से भीग जाते थे। लोगों के रूटीन में शामिल था कि चिट्ठी लिखें तो कुछ दोस्तों से हमेशा चिट्ठी लिखकर ही हाल-चाल पूछने में आनंद था। कई सारे महान लोगों ने इन चिट्ठियों में अपना पूरा-पूरा इतिहास लिखा तो साहित्यकारों ने साहित्यिक रचनाएँ कर डालीं। कईयों के पत्र आज करोड़ों में संग्राहक खरीदते भी हैं।लाम पर गए सिपाहियों का अपने घर वालों से संपर्क करने का एकमात्र जरिया होता था। खैर वो तो आज भी बहुत हद तक इसी पर आश्रित हैं बेचारे, तकनीक के विकास ने उनको अब भी कोई खास लाभ नहीं पहुँचाया । 

 बहरहाल मैंने बात शुरू की थी कि मैं क्या लिखूं और उसी बात में इतना सब कह गया। लिखने का जो आनंद पन्ने पर है वो किसी और जगह नहीं। अब यही वजह ढूंढ़ रहा हूँ की पन्ने से इतर कैसे और क्या लिखा जाये, जो आपको कुछ सूझे तो बताना।

सोमवार, 29 जुलाई 2013

हर किसी को अपने हिस्से का विरोध करना होगा

साभार : ए क्रिएटिव यूनिवर्स
नोट- मेरी पिछली पोस्ट "सबला बनने को प्रेरित करना है" का यह संशोधित संस्करण है जो तहलका हिंदी में प्रकाशित हुई है 31 जुलाई 2013 के अंक में आप सभी के साथ साझा कर रहा हूँ।

 कुछ बातें ऐसी होती हैं जिनको साझा किए बिना मन नहीं मानता. 
वह दिन मेरे लिए बिल्कुल आम दिन था. कुछ भी अलग नहीं. मैं हमेशा की तरह बस में बैठकर अपनी क्लास करने जा रहा था. बताता चलूं कि मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिण परिसर का छात्र था. वही जाने-पहचाने रास्ते थे और एक-सी सवारियां.

 बस के यात्री रोज की तरह बस में चढ़ और उतर रहे थे. थोड़ी देर बाद बंगला साहिब बस स्टॉप आया और दो युवतियां बस में चढ़ीं. दोनों देखने में किसी कॉलेज की छात्रा लग रही थीं. मैं चूंकि महिला सीट पर बैठा था इसलिए मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार था कि किसी भी मोड़ पर मुझे सीट खाली करनी पड़ सकती है. वे मेरे पास आकर खड़ी हुई ही थीं कि मैंने झट सीट खाली कर दी. उनमें से एक लड़की बैठ गई और मैं दूसरी के बगल में खड़ा हो गया. बस अपने गंतव्य की ओर बढ़ चली.

 कुछ देर बाद बस सरदार पटेल मार्ग से गुजर रही थी, तभी मालचा मार्ग के पास एक स्टैंड से अधेड़-सी महिला बस में सवार हुई. ठसाठस भरी बस में वे सीट तलाश ही रही थीं कि उस बैठी हुई लड़की ने खुद ही अपनी सीट उनको दे दी. मुझे अजीब लगा कि उस महिला ने एक बार धन्यवाद तक नहीं कहा. खैर, मैंने मन में सोचा कि होते हैं ऐसे भी लोग मुझे क्या मतलब? यह भी कि दिल्ली में तो यह आम है. मैंने अक्सर देखा है कि यहां आप किसी की मदद करेंगे, उसे थोड़ी सुविधा देंगे और वह उसे अधिकार समझकर आपके साथ अवहेलना का व्यवहार करना आरंभ कर देगा. अभी सफर थोड़ा ही कटा था कि उस महिला ने बगल में बैठी महिला के साथ बातचीत शुरू कर दी.

 मैं बहुत करीब खड़ा था और इसलिए मुझे सारी बातचीत एकदम साफ सुनाई दे रही थी. बातचीत के केंद्र में इन दोनों युवतियों का पश्चिमी पहनावा था. हालांकि बगल में बैठी उस दूसरी महिला के हाव-भाव से लग रहा था कि उसे इन बातों में कोई रुचि नहीं है फिर भी यह महिला लगातार बोले जा रही थी. अब मेरा धैर्य समाप्त होने लगा था और मुझे कुछ-कुछ गुस्सा आने लगा था. उन लड़कियों के पहनावे में कोई बुराई नहीं थी. उनका पहनावा एकदम आम था-जींस और टीशर्ट।

 दिल्ली में ही क्या देश के किसी भी शहर में हर दूसरी लड़की आपको यही पहने मिलेगी और इसमें बुराई भी क्या है? मेरे जी में आया कि उस महिला को जमकर फटकार लगा दूं लेकिन मैं रुक गया. मुझे लगा कि मेरे पहल करने का क्या मतलब है जब वे दोनों युवतियां सब कुछ सुनकर भी चुपचाप खड़ी हैं. लेकिन मुझसे रहा नहीं गया और आखिरकार मैंने अपने बगल में खड़ी युवती से कह ही दिया, ‘एक बात बताइए इन कपड़ों से जब आपको या आपके घरवालों को कोई परेशानी नहीं तो आप इतनी देर से इनकी बकवास क्यों झेले जा रही हैं? जवाब देकर इन्हें शांत क्यों नहीं कर देतीं.’ मेरी बात का फौरन असर हुआ और उस लड़की ने अपना विरोध दर्ज कराया. कहीं से समर्थन नहीं मिलता देखकर आखिरकार उस महिला को अपनी बात बंद करनी पड़ी.

 वह महिला तो थोड़ी देर बाद बस से उतर गई लेकिन उस दिन यह बात मेरी समझ में बहुत अच्छी तरह आ गई कि आखिर क्यों हमारे देश में औरत को औरत का दुश्मन माना जाता है. इसलिए कि सदियों से प्रताड़ना और दबाव सहन कर रही महिलाओं का मानस अब भी प्रतिरोध के लिए तैयार नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसका सीधा संबंध हमारे अंतर्मन से है. लेकिन इसके साथ-साथ मुझे यह भी समझ में आया कि जरूरी होने पर और सही जगह पर प्रतिरोध करना कितना जरूरी है और इससे कितनी गलत आदतों को रोकने में मदद मिलती है. वे  लड़कियां मेरी कोई नहीं थीं. हो सकता है कि उनकी ओर से बोलने पर मुझे काफी कुछ सुनने को भी मिल जाता. यह भी हो सकता है वे लड़कियां भी मुझे ही कुछ बोल देतीं लेकिन उस लड़की को बोलने के लिए प्रेरित करके मुझे आत्मिक संतोष मिला. सच भी है आखिर कब तक लड़कियों को अबला बताकर कुछ पुरुष उनकी ढाल बनकर खड़े रहेंगे? उन्हें अपना बचाव खुद करना होगा. फिर चाहे उनके सामने दुश्मन कोई पुरुष हो या उनकी ही जाति का कोई भटका हुआ सदस्य!

तहलका में प्रकाशित स्टोरी का लिंक- http://www.tehelkahindi.com/index.php?news=1896

शनिवार, 27 जुलाई 2013

सबला बनने को प्रेरित करना है।

साभार: टच टैलेंट डॉट कॉम
 बात ही ऐसी है कि उसे बयां करना जरूरी है। मैं रोजना की तरह बस से दिल्ली विश्विद्यालय के दक्षिण परिसर जा रहा था अपनी क्लास करने के  जा रहा था। सवारियां चढ़ रही थीं, उतर रही थीं और बस चलती जा रही थी। थोड़ी देर में बंगला साहिब के स्टैंड से दो लड़कियां बस में चढ़ी। देखने में तो कॉलेज की छात्रा ही लग रही थीं। उनमें से एक मेरे बगल में आकर खड़ी हो गयी, महिला सीट थी, मैं समझ गया, वो मुझसे कुछ कहती मैंने खुद ही खड़े होकर कहा कि सीट आप ले लीजिये। वो सीट पर बैठ गयी और उसके साथ वाली दोस्त वंही खड़ी हो गयी और मैं भी उनके बगल में ही खड़ा रहा और बस फिर अपने गंतव्य के लिए चलने लगी।

 बस कुछ देर में सरदार पटेल मार्ग से गुजर रही थी, तभी मालचा मार्ग के पास एक स्टैंड से अधेड़ सी महिला बस में सवार हुई। वो भी महिला सीट की तलाश में थी और तभी उस बैठी लड़की ने खुद ही कहा की आंटीजी आप बैठ जाइये। उस महिला ने धन्यवाद तक नहीं दिया, जो मुझे थोड़ा अजीब लगा, जब कभी मेरे साथ ऐसा होता तो अंग्रेजी में ‘‘यू शुड से थैंक्स टू मी’’ बोलकर मैं अपने परोपकार के अहम् को संतुष्टि दिला ही लेता था।

 बस में सीट पर बैठने के कुछ देर बाद पता नहीं उस महिला को क्या हुआ उसने अपनी पास वाली महिला से बातें करते हुए उन दोनों लड़कियों के कपड़ों को लेकर तरह-तरह की टिप्पणियां शुरू कर दी। हालाँकि बगल में बैठी महिला के हाव-भाव से लग रहा था कि उसे इन सब में कोई रूचि नहीं है, फिर भी वो महिला जारी रही। मुझे उस महिला पर गुस्सा आ रहा था। अब उन लड़कियों ने सिर्फ साधारण-सी जींस और टीशर्ट ही पहनी हुई थी, जो उस गर्मी में सही भी थी। मन में आया कि उस महिला को जमकर फटकार लगा दूँ, लेकिन मेरे दिमाग में उस समय कुछ और ही चल रहा था और मैंने फिर वही किया।
मैंने अपने बगल में खड़ी उस लड़की से कहा ‘‘एक बात बताओ जब इस तरह के कपड़ों से तुम्हें कोई परेशानी नहीं और न ही तुम्हारे माता-पिता को तो तुम इनकी ये बकवास सुन क्यूँ रही हो ? जवाब देकर इन्हें शांत क्यूँ नहीं करा देती।’’ मेरे कहने का असर हुआ और वो लड़की समझ गयी कि मैं क्या कहना चाहता हूँ। उसके बाद जो हुआ उसे मैं बयां नहीं करूँगा। हाँ, लेकिन वो महिला अगले ही स्टैंड पर उतर गयी।

 उस दिन मुझे समझ आया कि क्यूँ आखिर इस देश में औरत को ही औरत का शत्रु समझा जाता है क्यूंकि हमने उसके अंतःमन को प्रदूषित कर रखा है और एक बात जो समझ आई वो यह कि हमेशा जरूरी नहीं कि हम महिलाओं के लिए बाप,भाई या पति की ढाल बनकर खड़े हों यह तो हमें तब करना चाहिए जब इसकी आवश्यकता हो अन्यथा कोशिश यह हो कि हम उसे तलवार बनने को प्रेरित करें ताकि कम से कम अपने लिए तो वो लड़ सके। कब तक सहारा देकर उसे अबला बनाये रहेंगे ? उसे सही दिशा में प्रेरित कर हमें सबला बनाना है।

नोट- इस लेख का संपादित अंश तहलका में प्रकाशित हो चुका है। अगले लेख में वह संपादित अंश पढ़ें। लिंक यहाँ साझा कर रहा हूँ - हर किसी को अपने हिस्से का विरोध करना होगा